क्या तुम मेरी माँ हो?
डॉ. उषा रानी बंसल
हमारी बेटी २० साल पहले सेंट डियोगो नगर में अमेरिका में रहती थी। तब उसकी बिटिया क़रीब 3 साल की रही होगी। उसके पास बहुत-सी कहानियों की पुस्तकें थीं। एक दिन वह एक पुस्तक ला कर बोली, “नानी आप मुझे इसमें से कहानी सुनाइये।” पहली कहानी का शीर्षक था ‘Are you my mother’ (क्या तुम मेरी माँ हो)। मैंने उसे कहानी सुनानी शुरू की। अगर कहीं से मैं कुछ शब्द छोड़ देती तो वह तुरंत पकड़ लेती और कहती कि नानी आप ठीक से पढ़ें, ऐसा लिखा है। उसे प्रत्येक पृष्ठ तथा कहानी पंक्ति दर पंक्ति याद थी। मैंने आश्चर्य से अपनी बेटी से पूछा, “क्या वसुधा को पढ़ना आता है?”
“नहीं, उसने कहानी अक्षरशः रट रखी है।”
बड़ी सावधानी से मैं उसे कहानी सुनाने लगी। कहानी एक चिड़िया के बच्चे के बारे में थी।
एक पेड़ पर चिड़िया ने अंडे दिए, जब उसमें से चूज़े निकल आये तो एक दिन उन्हें उड़ना सिखाने के लिये चिड़िया ने चूज़ों को घोंसले से गिरा दिया। चिड़िया चूज़ों के लिये दाना लाने चली गई। चूज़े चारों तरफ़ माँ को खोजने लगे। तब एक चूज़ा अपनी माँ को खोजते-खोजते कुत्ते के घर के दरवाज़े तक पहुँच गया। उसने दरवाज़ा खटखटा कर पूछा, “अंदर कौन है?”
कुत्ते ने कहा, “मैं हूँ भौं भौं . . .”
चूज़े ने पूछा कि क्या तुम मेरी माँ हो। कुत्ता बोला, “भाग यहाँ से मैं तेरी माँ नहीं हूँ।
तब चूज़ा निराश होकर आगे बढ़ा। और वह एक मुर्गे के दड़बे में पहुँच गया। उसने अंदर झाँका और पूछा, “आप कौन हैं?”
अंदर से आवाज़ आई कि ये मुर्ग़ों का दड़बा है।
चूज़े ने पूछ, कि क्या यहाँ मेरी माँ है?
“नहीं नहीं जा कहीं और खोज।”
फिर उसे एक बिल्ली का घर दिखा। उसने बिल्ली से पूछा कि क्या तुम मेरी माँ हो?
बिल्ली ने हँसते हुए कहा, “हा-हा! म्याऊँ, म्याऊँ . . . भाग यहाँ से, नहीं तो मैं तुझे खा जाऊँगी।”
तब चूज़ा वापस लौटने लगा तो उसकी माँ उसे खोजती खोजती वहाँ आ गई। चूज़े को दाना चोंच में दे कर उसे अपने पंखों में छुपा लिया। चूज़ा बहुत ख़ुश हो गया? कहानी कि हैप्पी एनडिगं हो गई।
परन्तु वसुधा ख़ुश नहीं हुई, मैंने पूछा कि अब तो चूज़ा ख़ुश हो गया, उसे अपनी माँ जो मिल गई!
वह रुआँसी होकर बोली, “नहीं”!
मैं सकते में आ गई। उसे गोद में लेते हुए पूछा कि वह ख़ुश क्यों नहीं हुई? वह तपाक से बोली, “डैडी जो वहाँ नहीं थे।”
तब मुझे बरसों से कही जाने वाली बात याद आ गई कि बच्चों को एक के साथ, मम्मी या केवल पापा के साथ रहना अच्छा नहीं लगता। उन्हें माँ-पापा दोनों ही चाहिये। केवल एकल परिवार नहीं, वरन् दादी-बाबा, नाना-नानी व परिवार के सभी सम्बन्धियों के साथ रहना अच्छा लगता है। आज के टूटते परिवारों में सबसे आहत बच्चे ही हो रहे हैं। मौक़े-बे-मौक़े वह अपनी बात कहते भी हैं। जैसे मेरे चाचा हैं क्या? हमारे कज़िन हैं क्या? हम उनसे कब मिलेंगे? सब अपनी अपनी तरह से उनको बहला फुसला देते हैं, पर उनकी बेबसी और अकेलेपन पर ध्यान कोई नहीं देता।
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