वह स्वर्ण मंदिर दर्शन का वृत्तांत 

01-04-2021

वह स्वर्ण मंदिर दर्शन का वृत्तांत 

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

एक बार डॉक्टर जसराज अपनी पत्नी रतन को हरमिंदर साहब के दर्शन कराने अमृतसर ले गये। यह सिक्खों का एक प्रमुख धार्मिक स्थान है। इसे दरबार साहिब भी कहते हैं। यह एक बड़े सरोवर के बीच में बनाया गया है। बताया जाता है कि इसके वास्तुकार स्वयं गुरु अर्जुन देव थे। इसका निर्माण गुरु राम दास के हाथ से हुआ था। महाराजा रणजीतसिंह जी ने पूरे मन्दिर को सोने के पत्तर से मढ़वा दिया था। इसी से यह गुरुद्वारा स्वर्ण मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध हो गया। उसके दर्शन करने की अभिलाषा  उन्हें वहाँ ले गई थी।

डॉक्टर दम्पति २२ घंटे की ट्रेन से यात्रा कर के रात में अमृतसर पहुँचें थे। अत: रात किसी होटल में बिता कर सुबह स्वर्ण मंदिर देखने गये। यहाँ यह बताते चलें कि पिछले दस वर्ष से जसराज जी डायबिटीज़ के रोग से ग्रस्त थे। शुगर के चलते उन्हें न्यूरोपैथी भी हो गई थी। शक्कर की बीमारी में व्यक्ति ऊपर से हृष्ट- पुष्ट दिखता है परन्तु अंदर से दिनप्रतिदिन कमज़ोर होता जाता है। सभी शक्कर के रोगी जानते हैं कि यह रोग ऐसा घुन है जो शरीर को खोखला कर देता है। न्यूरोपैथी के कारण शरीर के  किसी  भी अंग कभी भी झुनझुनी होने लगती है। पैरों की, तलुओं की संवेदनशीलता कम हो जाती है। पैर की उँगलियों में, और पैर में ऐसे लगता है जैसे कोई सुइयाँ  चुभो रहा है। टाँगों पर सूजन भी हो जाती है। एक विशेष प्रकार के कम्प्रेशन मोज़े पहनने से कुछ आराम मिलता है। डॉक्टर साहब विशेष प्रकार के मोज़े पहनते थे। जिन्हें पहन कर वह फ़र्श पर नंगे पैर भी चल लेते थे। 

सिक्ख गुरु को ईश्वर तुल्य मानते हैं। जैसे कहा भी गया है–

’गुरु गोविंद दोउ  खड़े,  का के लागों पाय, 
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय’

स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने से पहले भक्त मंदिर के सामने अपना सिर झुकाते हैं। डॉक्टर दम्पति ने पूरी भक्ति से  मंदिर में प्रवेश करने से पहले अपना सिर झुकाया। फिर एक तरफ़ बने जूता-स्टैंड की ओर चल दिये। वहाँ उन्होंने ने अपने जूते-चप्पल उतार दिये। तभी एक सेवादार सरदार जी ने डॉक्टर साहब से मोज़े उतारने के लिये कहा। डॉक्टर साहब उन्हें अपनी बीमारी समझाते हुए परिसर में मोज़े पहन कर जाने के लिये कह रहे थे और सेवादार जी डॉक्टर साहब को पानी में पैर धोने के बाद ही परिसर में प्रवेश करने का विधान समझा  रहे थे। ‘जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई‘। शायद  दोनों एक दूसरे की बात समझ कर भी नासमझ थे। एक दूसरे सेवादार सरदार  जी बार-बार कुछ ऐसा  कह रहे थे कि ’गुरु के दरबार विच मथा टेकने से तेरी बीमारी ठीक हो जानी है, सबर रखीं ’।  एक पंजाबी बोल रहा था तो दूसरा हिन्दी। कुछ देर बहस के बाद डॉक्टर साहब ने मोज़े उतार दिये। तब सरदार जी ने दोनों को सिर ढँकने के लिये रुमाल दिये। 

संगमरमर का फ़र्श बहुत चिकना था। जिस पर पैर  फिसलने की संभावना बहुत अधिक थी। अत: डॉक्टर साहब पत्नी का हाथ पकड़ कर  सावधानीपूर्वक आगे बढ़े। कुछ सीढ़ियाँ उतरने पर नीचे पानी बह रहा था। उसमें पैर धो कर ही मुख्य द्वार तक जाना था। पानी में पैर रखते ही डॉक्टर साहब को पैरों में ज़ोर से करेंट सा लगा। वह वहीं खड़े के खड़े रह गये। पैर उठाना भी कठिन हो गया। तब रतन ने सहारा देकर कैसे ही उन्हें बाहर निकाला। उनके पैर पोंछ कर कुछ मालिश सी की। तभी किसी सेवादार सरदार भाई ने आ कर कहा कि वहाँ से इनके लिये व्हीलचेयर ले लें। रतन उन्हें वहाँ खड़ा कर चेयर लेने चली गई। 

रतन चेयर तो ले आई पर डॉक्टर साहब अपाहिज की तरह उस पर बैठने के तैयार नहीं थे। परन्तु संगमरमर के गर्म फ़र्श पर धूप में चलने  से घबरा रहे थे। साँप छछुंदर सी स्थिति हो गई। मरता क्या न करता, वह चेयर पर आख़िरकार बैठ गये। अभी कुछ दूर ही चले थे कि एक सरदार जी ने आ कर कुर्सी ले जाने में  सहायता का हाथ बढ़ाया। अब कुर्सी वह धकेलने लगे। रतन सरोवर व मंदिर के सौन्दर्य को निहारने लगी। मंदिर का वातावरण बड़ा मनोरम था। परिसर में गुरबानी की स्वर लहरियाँ गूँज रहीं थीं। एक अजीब सी शान्ति व सुकून था; जबकि  मंदिर में बहुत भीड़ थी। सरोवर का जल मंदिर की छाया पड़ने से सुनहरा हो रहा था। उसमें स्वर्ण मन्दिर की परछाई बहुत आकर्षक लग रही थी। 

मंदिर में जाने वाले दर्शनार्थी क़तार में लगे थे। यह क़तार बहुत लम्बी थी। सरदार भाई जी ने बताया कि व्हीलचेयर वालों के लिये दूसरा रास्ता है। उस रास्ते पर क़तार कम थी। कुछ क़दम चलने  पर रास्ते के ऊपर शेड लगा था। अब वह आराम से धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। गुरुद्वारे के अंदर का दृश्य बहुत आकर्षक था। परिक्रमा की दीवारों  पर सोने की पत्तियों  से नक़्क़ाशी की गई थी। सभी सिक्ख गुरुओं के सुन्दर चित्र व कलाकृति बनी हुई थीं।  मुग़लों तथा मुसलमानों द्वारा उन पर किये अत्याचारों के दृश्य अंकित थे। गुरु गोविंद सिंह जी के बेटों को ज़िंदा दीवार में चुनवाने के चित्र ने तो रोंगटे ही  खड़े कर दिये। (गुरु गोविंदसिंह  के दो बेटों जोरावर सिंह और फतेहसिंह को इस्लाम धर्म क़ुबूल न करने पर सरहिंद के नवाब ने ज़िंदा दीवार में चुनवा दिया था)  इसी तरह के दिल दहलाने वाले कई चित्र भी थे। इस तरह स्वर्ण मंदिर से जुड़ी सारी घटनायें और उनका पूरा इतिहास लिखा हुआ था। उन सबको देखते हुए मुख्य दरबार हॉल में पहुँच गये, जहाँ  मख़मल के कपड़े से ढँका गुरु ग्रंथ साहिब रखा था। गुरुग्रंथ छह गुरुओं सहित ३० भगतों की बानी है। इस ग्रंथ की रचना इसी मन्दिर में हुई थी। वहाँ अरदास करके डॉ. जसराज दम्पति कुछ देर दरबार हॉल में बैठे। 

गुरुद्वारे के बाहर बने अकाल तख़्त को देखते हुए वह मंदिर के बाहर आये। मंदिर बहुत ख़ूबसूरत था, और व्यवस्था भी बहुत अच्छी थी। मंदिर के सेवादार सहायता के लिये सदैव तत्पर मिले। डॉक्टर जसराज को मंदिर बहुत सुंदर लगा। 

 डॉक्टर जसराज ने मंदिर से बाहर आकर पलट कर बाहर से भी प्रणाम किया।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
सांस्कृतिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
हास्य-व्यंग्य कविता
स्मृति लेख
कविता
ललित निबन्ध
कहानी
यात्रा-संस्मरण
शोध निबन्ध
रेखाचित्र
बाल साहित्य कहानी
लघुकथा
आप-बीती
वृत्तांत
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
बच्चों के मुख से
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में