मुखियापति
राजनन्दन सिंहस्कूल में पढ़ने वाला कौन बच्चा, आगे जाकर क्या बनेगा कोई नहीं जानता। मगर कुछ पूर्वाग्रही अथवा लाल बुझक्कड़ नस्ल के शिक्षक न जाने अपनी अज्ञानतावश अथवा द्वेषवश स्वयं को सर्वद्रष्टा समझकर कुछ बच्चों की, विशेषकर ग़रीब बच्चों की भविष्यवाणी करते रहते हैं। सुखारी माँझी एक दलित विद्यार्थी था। उसका स्कूल आना इनरदेव मास्टर साहब को बड़ा अखरता था।
वे दलित और विशेषकर मुसहर समुदाय के बच्चों को स्कूल में देखना नहीं चाहते थे। छुआछूत की भावना उनके मन में इतनी ज़्यादा थी कि दलित बच्चों की पिटाई करने के लिए वे छड़ी भी अलग रखते थे। जिस छड़ी से दलित बच्चों की पिटाई करते थे उस छड़ी से सामान्य बच्चों की पिटाई नहीं करते थे।
दलित बच्चों का स्कूल आना वे उनकी धृष्टता समझते थे। उन्हेंं लगता था कि कि दलित बच्चों का जन्म पढ़ाई लिखाई के लिए नहीं बल्कि भूखे नंगे इधर-उधर भटकने, खेतों में छोटी-मोटी चोरियाँ करने, गाली सीखने और फटेहाली का अभ्यस्त होना सीखने के लिए हुआ है। उनकी धारणा थी कि स्कूल जो कि सभ्य परिवार के बच्चों के लिए है, वहाँ ये दलित बच्चे पता नहीं क्या सीखने चले आते हैं? आख़िर पढ़-लिखकर वे करेंगे क्या? करना तो वही मज़दूरी ही है तो फिर वे वही सीखें जो उन्हें करना है यहाँ क्यों चले आते हैं।
इनरदेव मास्टर के अलावे स्कूल में और भी नौ शिक्षक थे। सुखारी का स्कूल आना उनमें से भी आधे को पसंद नहीं था मगर वे कभी भी अपनी किसी बातों से कुछ ज़ाहिर नहीं होने देते थे।
इनरदेव मास्टर ही एक मात्र अध्यापक थे जिन्हें सबसे ज़्यादा परेशानी थी। उस दिन सुखारी टिफ़िन के बाद स्कूल आया। मास्टर साहब ने दूर से देख लिया। छड़ी लेकर क्लास में आ गये। सुखारी को बुला लिया। मास्टर साहब सभी बच्चों का नाम जानते थे मगर जिस बच्चे को अपमानित करने का ध्येय होता था उससे उसका नाम, बाप का नाम ऐसे पूछते थे जैसे कोई थानेदार किसी संदिग्ध अपराधी से। अथवा संभवतः वे यह ज़ाहिर करना चाहते थे कि महत्वहीन लोगों का नाम उन्हें याद नहीं रहता।
“क्या नाम है रे?”
“माहटर साहेब ‘सुखारी’”
मास्टर सहब ने तीन-चार छड़ी सटासट जमाते हुए पूछा, “माहटर साहेब सुखारी? कि सीधा सुखारी?”
“सीधा सुखारी माहटर साहेब।”
दाँत पीसकर दो छड़ी और जमाते हुए बोले, “फिर माहटर साहेब।”
“जी सुखारी, जी सुखारी।”
“बाप का क्या नाम है?”
“पारन माँझी।”
“अभी क्यों आ रहा है?”
“जी सवेरे जामा पैंट भींज गिया था। पहनने के लिए दुसरा जामा नहीं था।”
“अब सूख गया?”
“जी सूख गया तब आ गये।”
मास्टर साहब अपने हर प्रश्न के साथ एक छड़ी खींच लेते थे। उन्हें इस बात का कोई ध्यान नहीं रहता था कि उसे कितनी पिटाई लगा चुके हैं। उन दिनों सरकारी स्कूलों में छुट्टी के समय बच्चों को फुलाये हुए चने बँटते थे। इनरदेव मास्टर साहब का घर स्कूल के पास ही था इसलिए बचे हुए चने वे ही अपने घर ले जाते थे। उन्होंने सुखारी को डपटते हुए फटकार लगाई, “जामा सूख गया तब आ गया या सरकारी ख़ैरात का चना पाने आ गया? बोल . . .”
“नहीं माहटर साहेब।”
“नहीं माहटर साहेब क्या? पढ़ना लिखना कुछ है नहीं चले आते हैं ख़ैरात खाने, कलक्टर बनने। चल निकाल हाथ।”
सुखारी ने हाथ बढ़ाया और मास्टर साहब नें अपनी निर्दयता की चार छड़ी पूरी क़ाबू से जमा दीं।
यह माहटरी जो वे सुखारी पर दिखा रहे थे, किसी और बच्चे पर दिखाने का साहस उनमें नहीं था। मास्टर साहब का सुखारी के प्रति यह दुर्व्यवहार क्लास के ज़्यादातर बच्चों को पसंद नहीं था। मगर बच्चों में मास्टर साहब को टोकने का साहस नहीं था। दुसरे शिक्षक उदासीन थे। कोई पीट रहा है तो पिटे। उन्हें उससे क्या मतलब। वे डरते थे कहीं इनरदेव मास्टर उन्हें कोई उल्टा जवाब न दे दे। क्योंकि उन्हेंं टोकने के लिए वे अधिकृत नहीं थे। हेडमास्टर साहब को संभवतः इस पिटाई के बारे में पता ही नहीं था। किसे ग़रज़ थी कौन किसी की शिकायत करे। विशेषकर उस समाज में जहाँ ग़रीब के बच्चा ‘भुखे टऊआए लोग कहे खयले इतराए’ (ग़रीब का बच्चा भूख से भी डगमगाता है तो लोग कहते हैं खाकर इतरा रहा है)।
सुखारी के लिए किसी के मन में कोई हमदर्दी, कोई न्याय, कोई दया, कुछ नहीं थी। सुखारी के लिए उन्हें रोकने-टोकने वाला कोई नहीं था।
अंततः एक दिन सुखारी ने स्कूल छोड़ने का निर्णय लिया और स्कूल आना बंद कर दिया। इनरदेव मास्टर साहब की जैसे कोई बरसों की मन्नत या साध पूरी हो गई थी ख़ुश रहने लगे। साध यदि पूरी होती है तो वही पूरी होती है जो आदमी पालता है। मास्टर साहब की साध सुखारी को स्कूल से वंचित रखने की थी, जो पूरी हो गई। ईश्वर ने उनकी एक साध पूरी करने का मन बनाया था, काश उन्होंने अपने लाभ के लिए कोई साध पाली होती तो शायद वह भी पूरा हो जाती। मगर व्यक्ति की सोच पर उसका अपना नियंत्रण नहीं होता। वंशानुगत गुणसूत्र और परिवार में मिले कुल संस्कारों से ही आदमी की सोच बनती-बिगड़ती है।
स्कूल आठवीं कक्षा तक था। पहली से लेकर पाँचवीं तक सभी कक्षाओं में इनरदेव मास्टर साहब के कम से कम एक बेटे की उपस्थिति थी। उनके पाँच बेटे थे। पाँचों एक जैसे कपड़े पहनकर एक साथ ही स्कूल आते थे। एक बार परीक्षण सिंह मास्टर साहब ने उनके बच्चों को पांडव कह दिया था तो इनरदेव मास्टर साहब ने उन्हें बहुत भला-बुरा कहा था और पंचायत बुलाने की धमकी भी दे दी थी। उनका रोष था कि उनके पाँचों बच्चे का जन्म पूर्ण प्राकृतिक तरीक़े से हुआ है। किसी ओझा गुणी या देवता का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रसाद नहीं है। परीक्षण सिंह ने उनके बच्चों को पांडव कहकर उन्हें गाली दी है। परीक्षण सिंह ने ईश्वर की शपथ लेकर उन्हें विश्वास दिलाया कि उनकी मंशा ग़लत नहीं थी, तब जाकर मामला शांत हुआ था और कई महीनों तक दोनोंं की बोलचाल, ताका-ताकी, साथ उठना-बैठना बंद रहा। उसके बाद से उनके बच्चों को पांडव कहने की किसी में हिम्मत नहीं हुई। हालाँकि आंशिक ग़लती सचमुच परीक्षण सिंह की ही थी। बच्चों के झगड़े में एक दिन इनरदेव मास्टर साहब का सबसे बड़ा लड़का कोई झूठ बोल रहा था तो परीक्षण सिंह ने उससे सच बुलवाने के लिए उसे धर्मराज का पुत्र कह कर झूठ बोलने से मना किया था। घर जाकर उसने शायद अपने पिता को बता दिया होगा।
समय के साथ सबसे बड़े बेटे ने मैट्रिक में फ़ेल किया तो दुबारा पढ़ने का नाम नहीं लिया। बस की ड्राइवरी सीखने के लिए उसी मालिक की गाड़ी पर खलासी हो गया जिस मालिक की गाड़ी पर सुखारी भी खलासी था।
गाँव में एक कहावत है “जइसन अगिला हर ओइसन पिछला हर” (जैसा अगला हल वैसा पिछला हल)। अगले चार वर्षों में मास्टर साहब के शेष चार बेटों ने भी बड़े भाई का अनुसरण किया। मगर इन चारों ने पढ़ाई नहीं छोड़ी एक एक साल के अंतर पर खींच-खांच कर मैट्रिक पास करते और आगे बढ़ते रहे।
बस का मालिक विधायक के साले का साला और पंचायत का मुखियापति था। मुखियापति वह आदमी कहलाता है जो अपनी पत्नी के बदले मुखिया की कुर्सी पर बैठकर मुखिया का काम करता है मगर महिला सशक्तिकरण एवं महिला आरक्षण के तहत संवैधानिक रूप से चुनाव उसकी पत्नी लड़ती है तथा चुनी हुई मुखिया भी उसकी पत्नी ही होती है। किसी ज़माने में मुखिया की पत्नी मुखियाईन कहलाती थी। अब समय बदला मुखियाईन सचमुच का मुखिया बनी तो उसका पद हथियाकर उसका पति न सिर्फ़ मुखियापति कहलाने लगा। मुखिया का काम भी सँभालने लगा।
सुखारी का मन खलासीगिरी में नहीं लगता था क्योंकि वहाँ उसे हर कोई ज़लील करता रहता था। एक ड्राइवर परमोध के अलावे न तो कोई उसे अपने साथ बैठने देता था और न ही उसके हाथ का पानी पीता था। उसकी शादी हो चुकी थी हर रोज़ घर भी नहीं जा पाता था। उसने मालिक से कहकर दरवाज़े पर बैल-भैंस गोबर करसी का काम ले लिया और काम समाप्त करके हर रोज़ अपने घर में रहने लगा। उसकी पत्नी थोड़ी बहुत पढ़ी-लिखी थी। मालिक के दरवाज़े पर आज क्या-क्या हुआ मुखियापति ने कैसे लोगों के सामने कुछ और पीछे से कुछ और बोला यह सब वह अपनी पत्नी को सुनाता था। पति की बातें सुन-सुन कर सुखारी की पत्नी मुखियागिरी के लगभग आधे से ज़्यादा दाँव-पेंच याद कर चुकी थी।
सरकार ने पंचायत चुनावों में बीस वर्षों के लिए उस पंचायत को दलित महिला के लिए आरक्षित किया तो सुखारी के मन में भी मुखियापति होने का सपना जग गया। उसे जब पता चला कि वह भी नेता बन सकता है तो उसने अपनी पत्नी से बात की और मालिक की नौकरी छोड़कर नेता हो गया। ड्राइवर परमोध से रुपये उधार लिए कुछ इधर-उधर से चुनाव लड़ने के लिए चंदा जमा किया। अपने लिए खादी भंडार से दो सेट सफ़ेद कुरता पैजामा गमछा चप्पल ख़रीदा। पत्नी के लिए भी नेताइन जैसी दिखने वाली साड़ी ख़रीदी और दो चार साथियों को लेकर पंचायत के सभी गाँवों में घर-घर व्यक्ति-व्यक्ति से हाथ जोड़कर संपर्क करने लगा।
तीन महीने के बाद चुनाव हुआ और दस दिन के भीतर ही वोटों की गिनती। सुखारी बहू चुनाव जीत गई। सुखारी मुखियापति हो गया। चुनाव जीतते ही पता नहीं कहाँ से नई मोटरसाइकिल मिल गई और पूरे पंचायत में धन्यवाद के पोस्टर लगवाने और विजय जुलूस निकालने के पैसे भी। विजय जुलूस इनरदेव मास्टर के दरवाज़े पर भी पहुँचा। उम्मीद थी कि मास्टर साहब ईर्ष्या से जलभुन कर मुँह फेर लेंगे। मगर यह क्या मास्टर साहब ने सुखारी को गले लगाकर आशीर्वाद दिया। उसकी पीठ ठोकी और उसका गुरु होने पर गर्व का प्रदर्शन किया। सुखारी ने भी मास्टर साहब का पाँव छुआ। और अपनी सफलता में उनकी शिक्षा और योगदान को स्वीकार किया।
स्कूल के दिनों में सुखारी के लिए उसका भला सोचने वाला कोई नहीं था। मगर मुखियापति बनने के बाद कई शिक्षकों ने उसके घर जाकर आशीर्वाद दिया। परीक्षण सिंह रिटायर्ड हो गये थे। सुखारी उनसे भी आशीर्वाद लेने उनके घर गया। परीक्षण सिंह ने पूछा, “क्यों रे सुखारी मैंने सुना है इनरजीत मास्टर तेरा बहुत बड़ा समर्थक प्रशंसक हो गया है। पहले तो वह तुझे फूटी आँखों भी देखना नहीं चाहता था।”
“हाँ मास्टर साहब वह तो है। अब बहुत से लोग मुझे कुर्सी देने लगे हैं जो पहले मुझे अपने सामने खड़े भी नहीं होने देना चाहते थे।”
“अब तुम्हारे हाथ में ताक़त है। जिस-जिस ने तुझे सताया है सबसे गिनगिन कर बदला लेना।”
“एक मन तो हमारा भी यही कहता है मास्टर साहब लेकिन यह जनसेवा है। एक बार नाम खराप हो गया न तो फिर अगली बार हमको कोई वोट नहीं देगा।”
परीक्षण सिंह दंग थे। मन ही मन सोच रहे थे। यह अनपढ़ सुखरिया मुखियापति बनते ही कितना समझदार हो गया है। वोट का व्यवसाय आदमी को कितनी जल्दी कूटनीति सीखा देता है? परीक्षण सिंह उसके मन में दो-चार लोगों के प्रति द्वेष भरना चाहते थे। उसे समझाते हुए बोले, “फिर भी सुखारी जिसने तुझे सताया है उसे कुछ न कुछ तो आभास तो करवाना चाहिए। उससे कम से कम एक काम के लिए चार चक्कर तो लगवा ही सकते हो।”
सुखारी संभवतः परीक्षण सिंह की बातों में आकर अपने मन के पत्ते नहीं खोलना चाहता था। उसने तुरंत जवाब दिया, “इतना सोंचेंगे त समाज में कइसे जियेंगे। हमको त पैदा हुए तभी से लोग गारिये देता है त हम किस किस को याद रखे किस किस से मुँह फुलाएँ किस किससे बदला लें। समाज में त ई सब चलबे करता है किसी का मुँह बड़ा होता है किसी का कान बड़ा होता है। हर तरह के लोग होते हैं जो जैसा करता है वैसा भरता है। सब भगवान का लीला है कल लात खिलावाता था आज इज़्ज़त दिलवाता है। हमलोग आदमी हैं इहे सब करते-करते एक दिन चले जाएँगे खिस्सा ख़त्म।
“वैसे भी मास्टर साहब, सिर्फ पाँच साल के लिए ही हमको यह शक्ति मिली है, हम कोई राजा प्रभु थोड़े ही हो गए हैं। राजनीति में और आगे जाना हो तो पिछली बातें भूलकर बुद्धिमानी से काम करना पड़ता है। सुना है आने वाले विधानसभा चुनाव में भी अपना क्षेत्र दलित के लिए सुरक्षित सीट घोषित होने वाला है।”
मास्टर साहब को अंदाज़ा हो गया था कि सुखरिया अब किसी की बात में आनेवाला नहीं है। वह बहुत परिपक्व और कूटनितिक हो चुका है। उन्होंने सुखारी को बधाई देते हुए आशीर्वाद दिया, “ठीक है सुखारी मैं तो तुम्हारा मन टोह रहा था। इसी तरह तुम ईमानदारी से काम करो और इससे भी आगे बढ़ो।”
सुखारी प्रणाम करके वापस चला गया। मास्टर साहब सोच रहे थे। स्कूल में पढ़ने वाला कौन बच्चा सचमुच आगे जाकर क्या बनेगा कोई नहीं जानता। और दुष्ट व्यक्ति भी कब अपना चरित्र बदलकर किसे अपना आदर्श बना ले यह भी कोई नहीं जानता।
आजकल सुखारी का सबसे बड़ा समर्थक या कहिए कि ख़ुशामदी इनरदेव मास्टर ही है। परीक्षण गुरु जी की आँखों के सामने इनरदेव मास्टर के दोनों चेहरे बारी-बारी से चित्र पटल की तरह घूम रहे थे। पहला स्कूल में कसाई की तरह सुखारी की धुनाई करता हुआ वह खूँखार चेहरा और दूसरा समुचे गाँव में घूम-घूमकर उसी सुखारी का गुणगान करता हुआ गऊमुखी आत्ममुग्ध चेहरा।
सुखारी को मुखियापति बने तीन साल हो गए थे। घर बन गया था और चारपहिया गाड़ी भी आ चुकी थी। इनरजीत मास्टर का बड़ा लड़का अमरदेव उस गाड़ी पर ड्राइवर था। वही अमरदेव जब सुखारी के साथ खलासी बना था तो वह सुखारी के हाथ का पानी नहीं पीता था। अब वह सुखारी के लिए पानी की बोतलें गाड़ी में रखता है। उसे कोई शिकायत नहीं है। सुखारी ने अमरदेव से वादा किया है विधायक बनने के बाद भी उसका ड्राइवर अमरदेव ही रहेगा।
1 टिप्पणियाँ
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काज परे कछु और है, काज सरे कछु और। रहिमन भांवरि के.,भए नदी सेरावत मौर। तकदीर धरावै तीन नांव,परसू,पुरसोतम,परशुराम अल्ला मेहरबान तो गधा पहलवान, आदि मुहावरे ऐसे ही नहीं बने
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