जब से बुद्धि आई है

01-03-2021

जब से बुद्धि आई है

राजनन्दन सिंह (अंक: 176, मार्च प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

आज जहाँ 
जंगल के बाघ शेर चीते 
पराजित पड़े पिंजरे में 
पालतू होने के अभ्यस्त हैं
हाथी घोड़े बंदर भालू 
सवारी शौक़ीन नबाबों
तमाशबीनों के
शौक़ से त्रस्त हैं
जंगल भक्ति का दंभ
अब लक्करबग्घे भरते हैं
भेड़िये गीदड़ लोमड़ी
अपनी-अपनी क़ाबू भर
दाँत निपोरने तलवे चाटने
और दुम हिलाने में व्यस्त हैं
कुछ गीदड़
विचरते हैं गुरु का चोला ओढ़े
मैदानों पर अपना 
जाल फैलाये मस्त हैं
शाकाहारी पशु भय से 
चरने भी नहीं निकलता
जंगल का घास 
यूँ ही पकठा रहा है 
जब से बुद्धि आई है
प्रकृति की व्यवस्था ध्वस्त है
धनी धनपशुओं का जाता ही क्या है
कौन भूखे मरा
कौन बेरोज़गार है
कौन अभावग्रस्त है

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
सांस्कृतिक आलेख
कविता
किशोर साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
दोहे
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
बाल साहित्य कविता
नज़्म
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में