अपना ख़ून
राजनन्दन सिंहसगा भाई जब अपना अधिकार लेकर अलग हो जाता है तो वह पट्टीदार बन जाता है। पट्टीदार का देशी अर्थ होता है हिस्सेदार। ख़ानदानी या खतियानी जायदाद जब तक सम्मिलित होती है तब तक देशी भाषा में सामिलात कहलाती है और बँटवाारा हो जाने के बाद फरीक। इसी तरह भाई जब तक सम्मिलित रहते हैं तब तक सगे अथवा चचेरे कहलाते हैं और जब अपना-अपना हिस्सा लेकर अलग हो जाते हैं तब पट्टीदार, देयाद अथवा गोतिया कहलाने लगते हैं। आम तौर पर भाइयों के बीच सम्पत्ति का बँटवाारा होता है, कुछ दिनों तक स्वाभाविक मनमुटाव चलता है परन्तु प्यार बना रहता है और समय के साथ एक दिन सब कुछ ठीक हो जाता है।
लेकिन कई बार भाइयों के बीच सामिलाती में जितना ज़्यादा प्यार होता है अलगौझा के बाद उतनी ही ज़्यादा ईर्ष्या-द्वेष अथवा एक दूसरे से घृणा हो जाती है। पूर्वांचल में एक कहावत भी है “भाई सन हीत न, भाई सन मुद्दई न।” यानी जब तक मन मिला हो तो भाई जैसा कोई हीत नहीं होता और एक बार मन टूटने के बाद भाई जैसा कोई शत्रु भी नहीं होता। टूटा हुआ भाई अक़्सर सुग्रीव की तरह न सिर्फ़ अपने भाई की मृत्यु अथवा बर्बादी का कारण बनता है बल्कि विभीषण की तरह कई बार अपने कुल के विनाश का कारण भी बन जाता है।
पिरथी पाल सिंह का परिवार किसी ज़माने में अपने इलाक़े का ज़मींदार हुआ करता था। सामांग (पुत्र) के धनी थे इसलिए जब ज़मींदारी प्रथा समाप्त भी हुई, तो हो गई, मगर वे ज़मीन बचाने में क़ामयाब हो गये। उनके दादा के पास हज़ार बिगहे से ज़्यादा ज़मीन थी। उनके पिता चार भाई थे और उन चारों भाइयों के भी चार-चार पाँच-पाँच लड़के। यानी कुल सगे चचेरे भाई मिलाकर पिरथी पाल सिंह स्वयं अठारह भाई और एक दर्जन बहनें थीं। बहनें सभी-अपने-अपने घर चली गईं थीं।
चचेरे भाइयों के साथ बँटवारा हो चुका था मगर स्वयं के चारों सगे भाई सामिलात ही रहते थे। चार भाइयों में कुल बारह भतीजे और छह भतीजियाँ थीं। सभी मिल-जुलकर रहते थे। सम्मिलित परिवारों में अक़्सर बड़े भाई तथा उसके पत्नी की ज़िम्मेवारी सबसे अधिक होती है। पिरथी पाल सिंह सबसे बड़े थे इस नाते वे परिवार के गार्जियन थे और उनकी ज़िम्मेवारी सभी भाइयों से अधिक थी। ऐसी परिस्थितियों में यदि अपने बच्चे भाइयों के बच्चों पर बीस हों फिर तो बहुत अच्छा, वरना भाइयों के बच्चे यदि बीस निकलने लगते हैं तो बड़ी दंपती के लिए सहज रह पाना कठिन होने लगता है। पिरथी पाल सिंह इस नियम से अछूते नहीं थे।
पिरथी पाल सिंह सभी भाइयों से बड़े ज़रूर थे मगर उनके बच्चे काफ़ी देर से हुए इसलिए उनके अपने बच्चे उनके कई भतीजे-भतीजियों से छोटे थे। देर से पैदा हुए बच्चे अक़्सर ज़्यादा लाड़ प्यार पाते हैं और उनके ज़िद्दी होने की सम्भावना ज़्यादा रहती है। इसलिए उनके अपने बच्चे लाड़ से माथे पर चढ़ रहे थे। भाइयों के बच्चे डाँट-फटकार से पढ़ाई-लिखाई एवं अन्य कामों में बीस पड़ने लगे तो सबसे पहले परेशानी उनकी पत्नी को हुई। और जैसा कि होता है बिना जड़ फुनगी की दूसरी बातों का बहाना लेकर भाइयों में बँटवाारा हो गया। पिरथी पाल सिंह पत्नी की हठ के आगे विवश थे। चाह कर भी उसे समझा-बुझा नहीं पाये और बँटवाारा नहीं टाल पाये।
दयादिनें (देवरानी एवं जेठानियाँ) आपस में कटी-कटी-सी रहने लगीं। भाइयों में बोलचाल कम हो गई। बच्चे अपने-अपने माता-पिता की नज़रों के सामने चचेरे भाई-बहनों के साथ आँखें मिलाने से कतराने लगे। धीरे-धीरे सब सामान्य हुआ तो तीन फरीक में मेल-मिलाप स्थापित हो गया। बच्चों की बड़ी ताई यानी पिरथी पाल सिंह की पत्नी कुसुमा देवी कुछ अलग स्वभाव की थी। उनका मायका ससुराल से थोड़ा ज़्यादा धनी था। हरदम अपने मैके की धौंस जमाती थी, मैके के रोब में रहती थी। इसलिए बड़ी ताई यहाँ अपने देवर देवरानियों को अपने से नीचा समझती थी बात-बात पर नीचा दिखाने के बहाने ढूँढ़ती रहती थी। मिलकर रहना दूसरों की भावनाओं को समझना उन्हें आता नहीं था।
परिवार सम्मिलित था तो पिरथी पाल सिंह को खेती-बाड़ी की चिन्ता नहीं थी। जन मज़दूरों को लेकर खेती का काम तीनों छोटे भाई सँभाल रहे थे। इसलिए अलग होने का बाद तीनों छोटे भाइयों की खेती तो वैसे ही चलती रही पर पिरथी पाल सिंह की खेती लड़खड़ाने लगी। और एक बार खेती लड़खड़ाने लगी तो आमदनी का साधन भी डगमगा गया। छोटे भाइयों ने उनकी मदद करनी चाही तो बड़ी ताई को छोटों का एहसान लेना मंज़ूर नहीं हुआ। ज़मीनें बिकनी शुरू हो गईं।
बिना पर्याप्त कारण के यदि किसान की ज़मीन बिकनी शुरू हो जाए तो फिर गाँव में उसका वज़न भी उसी अनुपात से गिरना शुरू हो जाता है। हितैषियों की बातें उसे बुरी लगने लगती हैं। छद्म हितैषी उसे बरबादी का ज्ञान देने लगता है। शत्रु ख़ुश हो जाते हैं और गाँव का गया से गया गुज़रा भी उससे मुँह फेरकर उल्टा आँख दिखाने लगता है।
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गणेसी राम के चार लड़के गुजरात के सूरत शहर में बेलदारी करते थे। सूरत में कहते हैं कि रुपये का नोट उड़ता रहता है, पकड़ने वाला चाहिए। घंटा देखकर दिहाड़ी करने वालों के अलावे अपने निजी काम में वहाँ हर कोई अच्छी कमाई करता है।
गत्ते से डब्बा बनाने वाले, डब्बे में साड़ियाँ पैक करने वाले, कपड़े के थान की पैकिंग तथा गाँठ सिलाई करने वालों के लिए सूरत में काम की कभी कमी नहीं होती। इसी तरह टेम्पो, ट्रकों पर बेल चढ़ाने उतारने वाले बेलदारी मज़दूरों को भी कभी काम ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती। परिश्रम वाले कामों में मेहनत के हिसाब से मज़दूरी अक़्सर कम होती है, मगर काम जब विकेन्द्रित हो तो इन्हीं कामों के उचित पैसे मिलने लग जाते हैं। केन्द्रित काम का मतलब हुआ कि काम यदि एक ही सेठ या कंपनी के पास हो तो लोडिंग अनलोडिंग के लिए सैलरी पर मज़दूर रख लेगा फिर वह दिन भर में चाहे एक बेल उतारे चढ़ाये या एक हज़ार, पैसे वही मिलेंगे जो तय है।
मगर काम जब विकेन्द्रित हो, यानी अलग-अलग सेठ या कंपनी के पास थोड़े-थोड़े बँटे हुए काम हों तो मज़दूरी महीने या रोज़ पर रखने का औचित्य नहीं बनता इसलिए मज़दूरी प्रति नग पर निर्धारित होती है। यानी जितना काम उतना दाम। इसमें सेठ और मज़दूर दोनों को लाभ होता है। सेठ को यह चिंता नहीं होती कि लोडर बैठा हुआ है और मज़दूर को भी कभी यह निराशा या विवशता नहीं होती कि वह चाहे जितना भी शरीर तोड़ ले, जान धुन ले, पैसे तो उतने ही मिलेंगे।
गनेसी के दो लड़के पहले बड़ोदरा के कपड़ा रंगाई-छपाई मिलों में हेल्परी करते थे। जब उन्हें बेलदारी में पैसों के बारे में पता चला तो हेल्परी छोड़कर बेलदारी करने लगे। चस्का लगा तो दो भाई गाँव में थे उन्हें भी बुला लिया और चारों मिलकर पैसा कमाने लगे। मन के टूटे हुए लोग तथा ग़रीबों की आमदनी अचानक बढ़ जाए तो सामान्य लोगों की तरह अचानक उसका ख़र्च नहीं बढ़ता। ख़र्चा बढ़ने के बजाय उसकी बचत बढ़नी शुरू हो जाती है। और एक बार जब बचत शुरू हो जाती है तो सबसे पहले उसका उद्देश्य होता है वह वस्तु प्राप्त करना जो बचपन से उस व्यक्ति या परिवार का सपना हो या जिसके अभाव में वह स्वयं को कमज़ोर महसूस करता आया हो। गनेसी राम के लिए वह वस्तु थी गाँव में ज़मीन।
पिरथी पाल सिंह के जैसे और भी कई, कभी समर्थ रहे किसान थे जिनकी ज़मीनें बिक रहीं थीं। जिसे गनेसी राम जैसे सदियों से भूमिहीन रहे लोग ख़रीद रहे थे। सदियों से भूमिहीन रहे गनेसी राम को जब चार या पाँच बीघे ज़मीन हो गये तो ख़ुद को ज़मीन वाला समझने लगा। उसमें भी ज़मीन वालों जैसी अकड़ आ गई। तेवर बदल गये उसके लड़के भी अब हम किसी से कम नहीं वाली तड़ंग में रहने लगे।
पिछले महीने पिरथी पाल सिंह के लड़कों का किसी बात पर अपने चचेरे भाइयों से लड़ाई-झगड़ा हो गया। जिसमें पिरथी पाल सिंह के दोनों लड़के सुरेन्दर और महेन्दर चचेरे भाई वीरेन्दर के हाथों बुरी तरह पिट गये। बड़ी ताई का ख़ून खौल गया। उसके वश की होती तो वीरेन्दर का हाथ-पैर तोड़कर बैठा देती। ग़ुस्से पर क़ाबू नहीं था। करती तो क्या करती मन को समझाने के लिए सौ-पचास गालियाँ और श्राप देकर मन को शांत किया।
गनेसी के चारों बेटे छुट्टी में गाँव आए हुए थे। और अपने खेत में काम कर रहे हे उस खेत की आड़ी से पिरथी पाल सिंह का खेत लगता था। पिरथी पाल सिंह को लगा गनेसी के लड़के आड़ी काटकर उनके खेत की ओर बढ़ा रहे हैं। उन्होंने अपने लड़के सुरेन्दर को देखने के लिए भेज दिया। गनेसी के लड़के सचमुच आड़ी काट रहे थे। तू-तू मैं–मैं हुई, विवाद बढ़ा तो सुरेन्दर ने उसे दो-चार थप्पड़ खींच लिया।
गनेसी तथा उसके लड़के जो पहले कितनी बात गाली सुनने के बाद भी सर झुकाकर बड़े भैया कहकर बातें किया करते थे इस बार अकड़ गए। बदला लेने के लिए सुरेन्दर सिंह का हाथ पकड़ लिया और चारों भाइयों ने चारों तरफ़ से घेर लिया। सुरेन्दर को ऐसा अनुमान बिल्कुल ही नहीं था। अब वह पछता रहा था; ओह कहाँ गोबर पर लात मार दी। वह डर गया। उसने सोचा आज तो वह इन चारों भाइयों के हाथों पिट जाएगा। गाँव में उसकी क्या इज़्ज़त रह जायेगी? उसका साथ देने वाला तो दूर कोई बचाने वाला भी नहीं है। गनेसी के बेटों के इस बदले हुए हौसले व तेवर के तीन कारण थे। पहला तो वह मालिक नौकर अथवा दमन-लिहाज वाला समय समाप्त हो गया था। अब कोई भूखा से भूखा भी किसी बड़े से बड़े धनी की बात नहीं सुनता। दूसरा थोड़ा ही सही मगर ज़मीन ख़रीदकर वह अपने आप को ज़मीनवाला समझने लगा था। और तीसरा सबसे बड़ा कारण पिरथी पाल सिंह का अपने ही भाइयों से अनबन तथा अलग-थलग पड़ जाना था।
गनेसी के बेटों को लगा अभी कुछ दिनों पहले ही तो यह अपने भाइयों से पिटा है कोई नहीं आया बचाने। इसलिए वे यदि इसकी पिटाई कर भी देते हैं तो कोई बोलने नहीं आयेगा। इसके अपने चचेरे भाई भी इसकी बेइज़्ज़ती अथवा इसके पीटने पर उल्टे ख़ुश ही होंगे मगर कोई कुछ बोलगा नहीं। थोड़ी देर के लिए कुत्ते भी जब हृष्ट-पुष्ट और संख्या में ज़्यादा होते हैं तो अकेले में किसी कमज़ोर शेर को देख कर उसे भौंककर भगाने का साहस जुटा लेते हैं।
मगर गनेसी के बेटों का यह वहम था कि सुरेन्दर को बचाने वाला कोई नहीं है। वीरेन्दर अपने घर की छत पर टहल रहा था अचानक उसकी नज़र गनेसी के बेटों पर पड़ गई कि वह सुरेन्दर का हाथ पकड़ रहे हैं। उसका ख़ून खौल उठा। अभी कुछ ही महीने पहले उसने सुरेन्दर और उसके भाई महेन्दर दोनों की दुश्मनों की तरह धुनाई की थी। मगर अब उसी दुश्मन भाई को कोई दूसरा, ख़ासकर गनेसी के लौंडे कैसे आँख दिखा देंगे। साली मुट्ठी भर ज़मीन क्या ख़रीद ली मेरे ख़ानदान को हाथ लगा देंगे। इनकी इतनी औक़ात अभी कहाँ हुई है? जितना वो साल भर कमाते हैं उतना तो हमारा साल का सिर्फ़ जेब ख़र्चा है। उससे कहीं चार गुना ख़र्च तो हम अपने बच्चों के जनम दिन पर कर देते हैं। इसकी इतनी हिम्मत। भाई का अपमान उससे सहा नहीं गया। आख़िर अपना ख़ून था। सुरेन्दर के अपमान का मतलब था पूरे ख़ानदान का अपमान! उसने वहीं से आवाज़ लगाई, “ओए सुनो! ख़बरदार जो सुरेन्दर को किसी ने हाथ लगाया। साले हाथ काट लेंगे, ठहर जा मुझे आने दे।”
गनेसी के लड़के डर के मारे ठिठक गये। उन्हें अचरज हो रहा था वीरेन्दर बाबू को क्या हो गया? हम तो उनके दुश्मन की बेइज़्ज़ती करना चाह रहे थे।
तब तक वीरेन्दर अपने दो-तीन चचेरे भाइयों के साथ वहाँ पहुँचा। जाते ही उसने कड़कते हुए पूछा, “किसने हाथ पकड़ा था रे मेरे भाई का?”
कोई जवाब न मिलने पर पुनः गाली देते हुए उसने पूछा, “मैं पूछता हूँ किसने हाथ पकड़ा था मेरे भाई का मेरे सामने आ।”
गनेसी के बेटों की हवा ख़राब थी, फिर कोई जवाब नहीं। इस बार वीरेन्दर ने सुरेन्दर से पूछा, “सुरेन्दर तू बता किसने पकड़ा था तेरा हाथ?”
सुरेन्दर ने गनेसी के बड़े लड़के की तरफ़ इशारा किया। तड़ातड़ वीरेन्दर ने चार-पाँच ज़ोरदार झापड़ उसके कान पर जमा दिया। वह कान सहलाता हुआ बोला, “लेकिन भइया आप सुरेन्दर से पूछो पहले उसी ने हम चारों भाइयों को मारा है।”
“उसने बिल्कुल सही मारा है तुझे। तू मेड़ क्यों काट रहा है? दो कट्ठा खेत क्या ख़रीद लिया पचास बीघे वालों को आँख दिखाने लगा,” कहकर वीरेन्दर ने एक ज़ोरदार थप्पड़ उसके गाल पर और जड़ दिया।
“माफ़ कर दो भइया ग़लती हो गई पाँव पड़ता हूँ,” चारों भाइयों ने हाथ जोड़ लिए।
“तुझे सूरत के पैसों की गरमी है न दो-चार साल कोट-कचहरी के चक्कर लगायेगा सब निकल जाएगी।
“ये मेड़ तू ने काटा है न अब इसे ऐसे ही रहने दे। ख़बरदार जो इसे दुरुस्त किया। सरपंच देखेगा, पुलिस आएगी अमीन आएगा मुक़दमा होगा तभी आगे कुछ होगा।”
गनेसी के लड़के जानते थे कि वे सचमुच आड़ी काट रहे थे। पुलिस थाने में ग़लती उन्हीं की साबित होगी। लगे गिड़गिड़ाने हाथ जोड़ने पाँव पड़ने माफ़ी माँगने। वे हर हाल में थाने पुलिस से बचना चाहते थे। वीरेन्दर का सगा मामा ज़िले के पुलिस मुख्यालय में बड़ा पुलिस अधिकारी था।
पिछले महीने वीरेन्दर और सुरेन्दर की जो लड़ाई हुई थी उसमें ग़लती सुरेन्दर की ही थी। सुरेन्दर के अपने खेत ख़ाली पड़े रहते थे और चाचा के खेतों में फ़सल लहलहाती थी। इसलिए ईर्ष्यावश वह जान-बूझकर वनों में घूमती शमिया के झुंड को (नीलगाय की एक प्रजाति जो किसानों की फ़सल का नुक़्सान करती है) वीरेन्दर के खेतों की तरफ़ हड़का आता था। एक-दो बार वीरेन्दर ने अपनी आँखों से सुरेन्दर की हरकतों को देख भी लिया था। वीरेन्दर ने यह बात जब सुरेन्दर से पूछी थी तो वह भड़क उठा। बात बढ़ी तो रेकार-तोकार और तू-तू मैं-मैं से आगे पहुँच गई। इसी बात पर वीरेन्दर ने उन दोनों भाइयों को पकड़ कर कूट दिया था।
सुरेन्दर हालाँकि वीरेन्दर के हाथों मार खा चुका था मगर फिर भी अब वह लज्जित हो रहा था।
मैं कैसा भाई हूँ जो उसके खेतों का नुक़्सान कराने के लिए शमिया का झुंड ढूँढ़ता रहता था। और एक यह भाई है जिसका इतना नुक़्सान पहुँचाने के बाद भी आज बाप-दादे का नाम पिटने से बचाया। वह चाहता तो मेरे पिटने का तमाशा देखकर मन ही मन ख़ुश भी हो सकता था। बाद में बीच-बचाव करने के बाहाने मुझे और भी ज़लील कर सकता था मगर नहीं वह मेरे जैसे तुच्छ विचारों का नहीं है। सुरेन्दर का मन कर रहा था भाई के पाँव पकड़कर ख़ूब रोए। भाई के प्रति उसके मन का सारा द्वेष और मैल छँट चुका था। भाई न होता और गनेसी के लड़के उस पर हाथ छोड़ देते तो आज उसके इज़्ज़त की हमेशा-हमेशा के लिए थू-थू हो जाती। जीवन भर वह गाँव में सर उठाकर नहीं चल पाता।
रात को उसने अपने मन की सारी बातें अपने माता-पिता को बतायीं कि जिसे हम अपना दुश्मन समझते हैं कैसे आज उसी अपने ख़ून ने ही ख़ून को पहचाना है वरना आज अजात (दूसरी जाति) के लड़के उसपर हाथ छोड़ देते।
बड़ी ताई को महसूस हुआ उसका असली बेटा तो सचमुच वीरेन्दर ही है। बचपन से जिसे वह देखना नहीं चाहती थी। ईर्ष्या से जलती-भुनती रहती थी। आज उसी ने परिवार की इज़्ज़त बचायी है। खेती और धन का जो नुक़्सान हुआ है, हो रहा है उसकी तो आज न कल भारपाई सम्भव है, हो ही जायगी। मगर एक बार गाँव के मज़दूरों के हाथों पिट जाने से कई पीढ़ियों के नाम पर धब्बा लग जाता। धन्य है मेरा वीरेन्दर मैं कल सवेरे मैं उससे माफ़ी माँगूँगी और उसने यदि मुझे माफ़ कर दिया तो उसे अपने गले से लगाऊँगी। पिरथी पाल सिंह मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दे रहे थे। भगवान का शुक्र है उनकी पत्नी को सदबुद्धि आ गई है।
कुसुमा देवी को अपने पिछले सभी किये पर बड़ा दुख और पश्चाताप हो रहा था। बेटी तो आख़िर वह भी बड़े परिवार की ही थी। मन की ईर्ष्या और द्वेष ने उसकी जिस बुद्धि विवेक को दबा दिया था। उस ईर्ष्या का अंत हो चुका था। उसे आभास हो चुका था कि वह जो कर रही थी वह ग़लत था। अब वह अच्छा करके दिखायेगी। अब तक उसने जितना तोड़ा है उससे ज़्यादा जोड़ के दिखायेगी।
अगली सुबह वह वीरेन्दर और उसकी माँ से माफ़ी माँगने पहुँची। बड़ी ताई छोटी दयादिन के पाँव छूना चाहती थी। वीरेन्दर की माँ ने उसे तेज़ी से लपक कर उठाया और उसके गले से लगकर रोने लगी, “नहीं दीदी मुझे इस पाप का भागी मत बनाओ। जब से यह घर बना है पहली बार तो आप चौखट के भीतर आई हो और मेरे पाँव छूकर मुझे नरक में ढकेलना चाहती हो। हमने तो सदा से ही आपको अपना बड़ा माना है। बड़ों के पाँव छूने का अधिकार मेरा है। मुझे आशीर्वाद दो बच्चों को आशीर्वाद दो। घर सँभालो परिवार सँभालो।”
तीन महीने बाद जब दिवाली आई तो चारों भाइयों के मकान एक ही रंग से रँगे थे। एक ही प्रकार की बिजली बत्तियों से चारों घर सजे थे। एक ही चारदिवारी के भीतर चारों घर बड़े सुंदर दिख रहे थे जिनका एक ही बड़ा सा मुख्य दरवाज़ा था। और दरवाज़े पर एक काले ग्रेनाईट का नाम पट्ट लगा था जिसपर सुनहरे अक्षरों में लिखा गया था “चौधरी पृथ्वीपाल सिंह निवास” ऐसा लग रहा था जैसे चारों मकान प्रेम और भाईचारे की छत के चार स्तंभ हों।
3 टिप्पणियाँ
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आदरणीया सरोजनी पाण्डेय जी एवं पाण्डेय सरिता जी, आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणियों से बहुत बल मिला। बहुत-बहुत सादर आभार
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बहु बढ़िया, प्रेमचंद की याद आगयी ।
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शानदार और जबरदस्त कहानी
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