लोक प्रथम या राष्ट्र प्रथम? 

01-08-2024

लोक प्रथम या राष्ट्र प्रथम? 

राजनन्दन सिंह (अंक: 258, अगस्त प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

साहित्यकुञ्ज २०२४ जुलाई द्वितीय अंक का संपादकीय पढ़ा। इस अंक का संपादकीय केन्द्र बिन्दु “राष्ट्रवाद” वास्तव में एक अत्यंत ही जटिल शब्द है, विशेषकर मेंरे लिए, राष्ट्रवाद को समझना या परिभाषित करना, इतना आसान कार्य नहीं है। इसके लिए मुझे एक गहन अध्ययन एवं शोध की ज़रूरत है। अतः एक सामान्य एवं अनिर्णित टिप्पणी लिखने में भी मुझे लगभग बारह दिनों से ज़्यादा का समय लग गया। 

राष्ट्रवाद जो देखने व सुनने में प्रथम दृष्टया राष्ट्रसेवा तथा राष्ट्रप्रेम जैसे शब्दों का भावात्मक पर्याय दिखता है। परन्तु यह राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रसेवा, राष्ट्रभक्ति अथवा राष्ट्रप्रेम इत्यादि शब्दों का प्रत्यक्ष समानार्थी अथवा पर्यायवाची नहीं है। 

यहाँ ग़ौर करने की ज़रूरत है कि राष्ट्रप्रेम जहाँ एक भावना है, देश एवं राष्ट्र के प्रति एक हितनिष्ठा है जिसका सीधा सम्बन्ध उस देश के प्रत्येक नागरिक से है। सभी नागरिकों में यह भावना होनी चाहिए। और किसी कारणवश यदि नहीं है या कहीं कुछ कमी है तो सरकार द्वारा जन-जन में यह भावना भरी जानी चाहिए। भरे जाने की ज़रूरत है। 

वही दूसरी तरफ़ राष्ट्रवाद एक शासन नीति है जिसका सीधा सम्बन्ध प्रशासन से है। आम लोगों से इसका सीधा अथवा अप्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि आम नागरिकों के लिए यह कोई नागरिक अथवा लोक कर्त्तव्य न होकर सरकार द्वारा निर्धारित एक विकल्प है। आम लोगों से इसका सम्बन्ध द्वितियक है कि यदि वह चाहें तो अपने विवेक से इसका समर्थन करें अथवा समर्थन न करें। यहाँ कोई ज़रूरी नहीं है कि सभी नागरिक इससे सहमत ही हों तथा इसका समर्थन ही करें अथवा सभी इसका विरोध ही करें। एक प्रकार से यह वैसा ही है जैसे हम किसी राजनीतिक दल तथा उसकी नीतियों से कभी सहमत होते हैं, और कभी सहमत नहीं होते हैं। 

आज विश्व के देशों में, चाहे वह लोकतंत्र हो, या राजतंत्र मुख्यरूप से दो विचारधाराएँ हैं। “राष्ट्रवाद” और “जनवाद”। इसे हम क्रमशः पूँजीवाद और साम्यवाद के समानांतर भी मान सकते हैं। हालाँकि वास्तव में यह हू-ब-हू समान नहीं है। 

राष्ट्रवाद में “राष्ट्र प्रथम” की नीति होती है इसलिए राष्ट्र के नाम पर व्यक्ति, समाज, समुदाय व संस्था इत्यादि का शोषण, दमन, वंचन, विक्रय, व विस्थापन इत्यादि सम्भव है। इस नीति में राष्ट्रहित हेतु कुछ समय के लिए लोकहितों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। 

तो दूसरी तरफ़ जनवाद में “लोक प्रथम” की नीति होती है इसलिए व्यक्ति, समाज, संस्था व समुदाय इत्यादि के नाम पर राष्ट्र की प्रगति अवरोधित अथवा प्रतिरोधित हो सकती है। इस नीति में लोकहितों को प्राथमिकता देते हुए कुछ समय के लिए राष्ट्र के लाभों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। 

विश्व के कुछ देशों में राष्ट्रवादी विचारधारा सफल है, तो कुछ देशों में जनवादी। 

इसलिए कौन-सी विचारधारा उत्तम है यह कहना भी एक मुश्किल कार्य है। लोक प्रथम या राष्ट्र प्रथम? इसका निर्धारण किसी भी देश काल तथा वहाँ की कई परिस्थितियों पर निर्भर करता है। लोक से राष्ट्र है या राष्ट्र से लोक है यह एक बड़ा प्रश्न है और इसी के आधार पर किसी भी देश में “राष्ट्र प्रथम” की नीति रखनी है या “लोक प्रथम” की, यह उस देश की सरकार तथा उस देश के लोगों का अपना निजी विशेषाधिकार एवं निजी पसंद होता है। 

सम्भव है कोई देश अपने शुरूआती तथा संघर्ष के दिनों में राष्ट्र प्रथम की नीति पर चले और जब उसके राष्ट्र की दशा सँभल जाए तो वह लोकप्रथम की नीति अपना ले। क्योंकि लोक एवं राष्ट्र के बीच भी एक अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है। लोक समृद्धि का लाभ राष्ट्र को मिलना चाहिए और राष्ट्र समृद्धि का लाभ लोक को। वास्तविकता यह भी है कि लोक से ही राष्ट्र है और राष्ट्र ही लोक की पहचान है। 

भारत में अब तक मिश्रित व्यवस्था के तहत दोनों व्यवस्थाओं का लाभ लेने के लिए लोक एवं राष्ट्र दोनों के बीच संतुलन बनाये रखने का प्रयास जारी था। इस बात में कोई संदेह नहीं कि १९९१ में आर्थिक उदार नीति अपनाने के बाद, लाख राजनैतिक अस्थिरता एवं उथल-पुथल के बावजूद भी भारत एक तीव्र आर्थिक समृद्धि की तरफ़ अग्रसर है। परन्तु वास्तव में इसका कितना व्यवहारिक लाभ या हानि हुई, यह कहना किसी राजनीतिक विवाद या पक्षपात के आक्षेप को जन्म दे सकता है। इसलिए सही-सही कहा नहीं जा सकता। और यदि कोई व्यक्ति विशेष इस पर अपना निजी विचार रखना भी चाहे, तो आज देश में ऐसा विचार रखने की परिस्थितियाँ नहीं है। क्योंकि आज का भारत अपनी सारी सहिष्णुता विविधता में एकता का भाव भुलाकर, दो बड़े एवं दो अलग-अलग कट्टर पूर्वाग्रही ध्रुवों में बँटा हुआ है। आज का भारत पक्ष-विपक्ष, समर्थन-विरोध बस दो ही बातों को समझता है, या समझना चाहता है। स्वतंत्र व निजी विचारों की किसी तीसरी अभिव्यक्ति का आज कोई सम्मान अथवा लिहाज़ नहीं है। 

आगे भारत के भविष्य के लिए कौन-सा मार्ग (राष्ट्रवाद, जनवाद, या मिश्रित को ही जारी रखना) सही होगा यह विशेषज्ञों की सहमति एवं फ़ैसले का विषय है। इसलिए राष्ट्रवाद भारत के लिए, अनुकूल है या प्रतिकूल? यह हमारे देश की जनता, हमारे चुने हुए कर्णधारों की नीतियाँ, विशेषज्ञों की दूरदर्शिता व आनेवाला समय ही बतायेगा। 

मगर इतना तो तय है कि झूठ झाँसा व अँधेरे में गुमराह रखने वाली ढुलमुल नीतियाँ अब भारत में ज़्यादा दिनों तक नहीं चलेंगी। अब ज़्यादा दिनों तक असमंजस अथवा अनिर्णय की स्थिति को पाला नहीं जा सकता, क्योंकि भारत के लोग अब पहले की भाँति निरक्षर अथवा मूढ़ नहीं हैं। वह जहाँ भी हैं बिना किसी डर, भय, लालच, दबाब अथवा मूर्खता के, अपने पूरे होश-ओ-हवास में हैं। इसलिए निश्चित रूप से ही कोई न कोई एक ध्रुव विजयी होगा ही। 

या तो पाँच सौ रुपये प्रति लीटर पेट्रोल ख़रीदने का ताल ठोकने वाला ध्रुव, एक दिन सचमुच पाँच सौ रुपये लीटर पेट्रोल ख़रीदने में सफल होगा। या फिर कथित महँगाई व बेरोज़गारी के विरुद्घ आवाज़ उठाने वाला आंदोलन-जीवी विरोधी ध्रुव, एक दिन रोज़गार सृजन व क्रय शक्ति के अनुसार, सचमुच बेरोज़गारी व महँगाई पर नियंत्रण करने में सफल रहेगा। 

फ़ैसला समय व भविष्य के हाथों में है। आग्रिम रूप से कुछ भी कहना या दावा करना वर्तमान भारत के किसी न किसी एक पूर्वाग्रही ध्रुव को नाराज़ करने के समान होगा। जो कि येन केन प्राकारेण किसी भी तरह से उचित नहीं है। मुझे अच्छी तरह याद है, चुनावी शोरों में सैकड़ों सुर सुनने वाली इसी भारत देश की जनता जब आज की तरह अपना-अपना पूर्वाग्रह लिये अलग-अलग दो कट्टर ध्रुवों में नहीं बँटी थी, तो चुनावों से पहले बेशक कोई कितने भी सुर सुना जाए, चुनावों के बाद बस एक ही सुर में बोलती थी। सही को सही और ग़लत को ग़लत। उचित को उचित, अनुचित को अनुचित . . .! 

मुझे आशा है देर सवेर भारत फिर से एक सुर में बोलेगा और तब हमें देर नहीं लगेगी यह तय करने में कि लोक प्रथम या राष्ट्र प्रथम? 

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