डॉगेनियल
राजनन्दन सिंह
चौधरी साहब स्वयं अपने घर में कोई डॉग या डॉगी नहीं पालते थे, मगर गली के कुत्तों का बड़ा ध्यान रखते थे। उनका मानना था कि गली का कुत्ता घर के पालतू कुत्तों से कहीं ज़्यादा उपयोगी होता है। पालतू डॉग मालिक के साथ एसी कमरे में आराम से सोता है। रात को कोई चोर संदिग्ध या अजनबी मालिक की बाहर खड़ी स्कूटी चुरा भी ले जाए तो बेचारे गृह-डॉग को क्या पता? मगर गली के कुत्ते दूर से ही संदिग्ध अजनबियों को सूँघ लेते हैं और उसके ऊपर कम से कम तीन-चार दर्जन भौंक की दुत्कार लगाकर हरदम फ़ोन में व्यस्त रहने वाले हाथ अथवा कान में हेडफ़ोन लगाये हुए लोगों को भी जता देता है कि गली में कोई अजनबी या संदिग्ध घुस गया है।
कभी-कभी अपवाद स्वरूप कोई-कोई शातिर चोर गली के इन कुत्तों से भी बड़ा कुत्ता निकल आए तो अलग बात है कि वे इन्हें चकमा देने में शायद सफल हो जाएँ वरना साधाराण चोर उच्चके बदमाशों की तो उस गली में घुसने की हिम्मत ही नहीं होती जिस गली में स्ट्रीट डॉग की रिहायश होती है।
मुहल्ले की गली में एक बहुत सुंदर कुतिया थी चौधरी साहब ने उसका नाम किसी विश्वसुंदरी के नाम पर रखा था। मगर यहाँ वह असली नाम बताने से कहानी की मर्यादा बिगड़ सकती है। तथा असली नाम बताना उचित भी नहीं है। इसलिए आगे बढ़ने से पहले चीनी भाषा में उसका एक काल्पनिक नाम रख लेते हैं “हुइली” (回礼)। हाथ की हाथ इस हुइली शब्द का अर्थ भी जान ही लेते हैं ताकि इसी बहाने कम से कम चीनी भाषा के इस शब्द से परिचय भी हो जाए। चीनी भाषा में वैसे तो उच्चारण की भिन्नता एवं उतार-चढाव से एक ही शब्द के कई-कई अर्थ निकलते हैं इसलिए ज़्यादा गहराई में न जाते हुए सामान्य उच्चारण में “हुइली” शब्द का एक अर्थ है ’रिटर्न गिफ़्ट’। इस गली के लिए हुइली भी एक रिटर्न गिफ़्ट ही थी।
हुइली की माँ किसी और गली की स्ट्रीट डॉगी थी। जब उसके दिन पूरे हुए थे तो उसने इसी मोहल्ले के पार्क में आठ पिल्लों को जन्म दे दिया था। भारतीय ग़ैर पालतू कुत्तों के बच्चे बचपन में बहुत प्यारे मासूम और सुंदर होते हैं। इतने प्यारे कि कई बार बच्चों को कुत्तों से दूर रहने की सीख देने वाले बड़े लोग भी पिल्ले को गोद में लेने से अपने आप को रोक नहीं पाते। हुइली की माँ खाने की तलाश में इधर-उधर घूमती थी तब तक लोग उसके बच्चे चुरा लेते थे। गली के ही किसी पिल्ला प्रेमी ने, हुइली की सुंदरता पर मोहित होकर, उसे भी पालने के लिए चुरा लिया। इसी तरह पार्क में घूमने आनेवाले कुछ अन्य मुहल्ले के लोगों ने भी हुइली के कई भाई बहनों को चुरा लिया था। हुइली की माँ को ख़ूब मालूम था कि उसके बच्चे चोरी हो रहे हैं मगर अपनी पीड़ा वह किससे कहे? किस थाने में जाए? पशुओं की शिकायत सुनने के लिए न तो कोई थाना होता है और न ही मूक पशुओं की समस्याओं को समझने अथवा निवारण के लिए व्यक्तिगत मानवीय संवेदना के अलावे कोई व्यवस्था अथवा व्यवस्था के किसी योजना की कोई आशा। वह अपने बच्चों को छुपाने के लिए सुरक्षित ठिकाने की तलाश में जगह-जगह गड्ढे व सुरंगें खोदती थी जहाँ उसके बच्चे सुरक्षित रहें मगर मानव बस्तियों में विशेषकर सार्वजनिक पार्कों में सुरंगें कहाँ सुरक्षित होती हैं। हारकर एक रात बच्चे जब कुछ टनमन हुए तो हुइली की माँ अपने बचे हुए बच्चों के साथ शायद अपने पुराने ठिकाने पर वापस चली गई।
इधर कुछ ही दिनों में हुइली से उसका मन भर गया जिसने उसे पालने के लिए चुराया था। उसने हुइली को फिर से पार्क में छोड़ दिया। बिना माँ की अकेली हुइली कई दिनों तक इधर-उधर भूखे-प्यासे टुअर बनी फिरती रही।
गली में रहनेवाले झा जी सप्ताह में तीन दिन मछली खाते थे, इसलिए उसके घर से मछली के पर्याप्त काँटे और जूठन कुत्तों को भी खाने को मिलती रहती थी। किसी तरह सूँघते-सूँघते हुइली एक दिन वहाँ पहुँच गई और उसके खाने की समस्या का हमेशा के लिए स्थायी समाधान हो गया। अब वह अक़्सर पार्क में खेल रहे बच्चों के साथ खेलती रहती थी। कभी-कभी बंदरों के झुंड पार्क में आकर एक या दो दिन डेरा जमा लेते थे। ऐसे में बच्चों का पार्क में आना मुश्किल हो जाता था तो हुइली बंदरों के बच्चों के साथ भी खेलती थी। भारत में बंदरों की भी अपनी एक अलग समस्या है। जंगल समाप्त होने के बाद सरकार ने कुछ वन्य पशुओं के लिए अभयारण्य बनवाये मगर बंदरों के लिए ऐसा कुछ नहीं किया। संरक्षित वन्य क्षेत्रों में चूँकि फलदार वृक्ष नहीं है अतः बंदरों के झुंड किसी मंदिर, पर्यटन स्थल, सड़क किनारे, फ़ैक्ट्री अथवा कार्यालय परिसरों पर आश्रित हो गये या फिर झुंड बनाकर गली मुहल्लों में घूमने के लिए विवश हो गये। मंदिर पर्यटन स्थल या सड़क किनारे तो लोग फिर भी बंदरों को खाने के लिए कुछ न कुछ दे देते हैं मगर कार्यालय परिसर अथवा गली मुहल्लों में लोग बंदरों को कुछ नहीं देते। डंडा दिखाकर खदेड़ते हैं या उन्हें भगाने के लिए सैलरी पर लंगूर रख लेते हैं।
आमतौर पर कु्त्ते और बंदरों की आपस में बनती नहीं है मगर हुइली जब बंदर के बच्चों के साथ खेलती थी तो देखने वाले स्तब्ध होकर तमाशा देखते थे। स्मार्ट फ़ोन से विडियो बनाते थे।
झा जी के यहाँ खाना खाने के बाद बड़े कुत्तों के डर से हुइली वहाँ ठहरती नहीं थी। चौधरी साहब अपने घर के आगे मिट्टी के बर्तन में, खुला घूमने वाली गायों के लिए पानी रखते थे, वहाँ वह पानी पीती और शर्मा जी के कार के नीचे जाकर सो जाती थी। धीरे-धीरे चौधरी साहब भी उसके खाने-पीने का ध्यान रखने लगे। और उसे एक सुंदर सा नाम भी दे दिया जिस नाम के बदले हमने उसका चाइनीज़ काल्पनिक नाम हुइली रखा है।
मनुष्यों की तरह ही कुत्तों का भी अपना अधिकार क्षेत्र होता है। अपने एरिये में एक कुता अपने दल के कुत्तों के अलावे किसी बाहरी कुत्ते को नहीं घुसने देता और अनाधिकृत घुसपैठ पर उसे खदेड़ देता है। इस एरिये का प्रधान कुत्ता पंडित जी के घर के सामने रहने वाला झबरा था वह कहीं से भी खा-पीकर या भौंक कर आने के बाद अक़्सर पंडित जी के घर के सामने ही आराम करता था।
समय के साथ हुइली बड़ी हुई तो उसने कई खेप पिल्लों को जन्म दिया। हर बार सात-आठ, सात-आठ मगर अंततः जीवित कोई एक या दो ही बचते थे। कुछ पिल्ले चोरी चले जाते थे, कुछ किसी ख़ूनी चारपहिये के नीचे आ जाते, कुछ किसी दुष्टा स्त्री के टोटमे इत्यादि का शिकार हो जाते थे। कुछ बच्चों को एकांत में पाकर दूसरे दल के कुत्ते भी मार डालते थे।
इस बार हुइली जब गाभिन हुई तो उसके साथ कोई समस्या हो गई। शायद वह निछा (गर्भपात हो जाना) गई थी और पिल्लों को जन्म नहीं दे पाई, मगर जब समय पूरा हुआ तो पार्क में पहले की तरह जगह-जगह उसने सुरंगें बना ली थीं। उसके दिमाग़ में शायद यह बात चल रही थी कि उसने बच्चों को जन्म दे दिया है और पागलों की तरह इधर से उधर यहाँ से वहाँ अपने उन बच्चों को ढूँढ़ती रहती थी जिसे वास्तव में उसने जन्म ही नहीं दिया था।
बच्चे होते तब मिलते, जब बच्चे थे ही नहीं तो मिलते कहाँ से? हुइली ने खाना-पीना छोड़ दिया, कई लोगों को काट भी लिया। हर समय चौकन्नी रण्ण रण्ण करती, दौड़ती ही रहती थी। मुहल्ले के लोग जो उसे खिलाते थे वे भी, जो नहीं खिलाते थे वे भी, हुइली की दशा देखकर परेशान हो गये। नगर निगम को फ़ोन किया गया चुनावी व्यस्तता के बहाने उन्होंने कुत्ते को पकड़ने से मना कर दिया। बहुत पूछताछ के बाद पता चला कि आवारा कुतों की देख-रेख करनेवाली एक एनजीओ है। उसे फ़ोन किया गया और उसकी टीम के लोग हुइली को इलाज के लिए पकड़कर ले गये।
उसकी अंतिम खेप के दो बच्चे बचे हुए थे। दोनों ही पिल्ले थे। बड़े पिल्ले का रंग लाल, ऊँचा क़द और अँग्रेज़ों की तरह भूरी-भूरी आँखें थीं दिखने में बड़ा भयावना लगता था। आवाज़ भी इतनी दमदार कि जब वह भौंकता था तो लगता था जैसे वह किसी अच्छे बेस वाली महँगे माइक से लाउडस्पीकर पर भौंक रहा हो। गली के बच्चों में से न जाने किसी ने उसका नाम डॉगेनियल रख दिया था। आश्चर्य की बात यह थी कि डॉगेनियल कहकर बुलाने पर वह सुनता था और आता भी था।
दूसरा पिल्ला गली का सामान्य चितकबरा कुत्ता था उसमें कहने लायक़ ऐसी कोई ख़ास बात नहीं थी मगर उसमें भी एक विशेषता थी। गली की स्त्री एवं बच्चे जो मुख्य सड़क तक पैदल बस या ऑाटो पकड़ने जाते थे उन्हें वह घर से लेकर मुख्य सड़क तक छोड़ने जाता था। और उधर से भी यदि कोई स्त्री बच्चे के साथ आती हुई दिख गई तो वह उसके साथ उसके घर तक जाता था। लोग उसे चितकबरा ही कहते थे।
कुत्तों के दल में अभी तक इस क्षेत्र का मुखिया झबरा था। कुत्तों के दल में मुखिया का अपना एक रौब होता है। मुखिया की पहचान होती है कि यदि किसी घर से खाना मिला और मुखिया कुत्ता वहाँ पहुँच गया तो दल के बाक़ी कुत्ते चाहे कितने भी भूखे क्यों न हो मुखिया के लिए वह खाना छोड़ दें वरना ऐसा नहीं करने पर उसे मुखिया के ग़ुस्से अथवा आक्रमण का शिकार होना पड़ सकता है। इस क्रम में दूसरे नंबर पर डॉगेनियल, तीसरे पर चितकबरा, चौथे पर हुइली, पाचवें पर कनहा (एक काना कुत्ता जो किसी दूसरे दल से आकर इस दल में दाँत निपोरकर शामिल हो गया था) था। इस इलाक़े में जब कभी भी किसी दूसरे कुत्ते के घुसपैठ की आहट होने पर भौंकने की ज़रूरत पड़ती थी तो कनहा सबसे जूनिअर मेंबर होते हुए भी भौंकने में इन चारों कुत्तों से आगे रहता था। वह प्रथम पंक्ति का भौंक्ता (वक्ता नहीं, वक्ता का भावार्थी) था।
कुकुर दल के मुखिया का कोई निश्चित या तय शासन काल नहीं होता। वह पूर्ण रूप से उसकी शक्ति पर निर्भर रहता है कि वह दल के सदस्यों को कब तक अपनी ताक़त से दबाये रख सकता है।
समय के साथ झबरा बूढ़ा और कमज़ोर हो रहा था इधर डॉगेनियल युवा और दिन पर दिन ताक़तवर। कभी-कभी वह झबरे के पहुँचने पर भी खाना नहीं छोड़ता और यदि छोड़ भी देता तो साथ में दुबारा खाने लग जाता। झबरे के विरोध को चुनौती भी देने लगा था। यह इस बात का संकेत था कि झबरे की मुखियाई का अब जल्द ही अंत होने वाला है और दल का नया मुखिया डॉगेनियल होगा। एक दिन डॉगेनियल ने सचमुच झबरा को परास्त करके दल के मुखिया पद पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया। झबरा अब थोड़ा सहमा-सहमा निराश शर्मिंदा और दबा-दबा सा रहने लगा। अब वह भौंकने जाने में भी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाता था। पंडित जी के घर के सामने खड़े-खड़े ही भौंकने की खानापूर्ति करके ग़ुस्से में दो-तीन फेरे नाचता और वहीं कहीं बैठ जाता था।
हुइली का इलाज एनजीओ में चल रहा था। झबरा कमज़ोर पड़ गया। चितकबरा बख़ूबी अपना काम करता था। कनहा का हिसाब जग में निराला था। खाने में पीछे और भौंकने में आगे। आमतौर पर इस स्वभाव का कुत्ता तो कुत्ता आदमी भी बड़ी मुश्किल से देखने को मिलता है।
अपने दल का मुखिया बनने के बाद डॉगेनियल एक दिन अचानक कहीं ग़ायब हो गया। बिना मुखिया के कुता दल के क्षेत्र का भी वही हाल हो जाता है जो बिना राजा के देश या राज्यों का होता है।
दूसरी गली के तीन-चार विस्तारवादी कुत्ते इस क्षेत्र में सुबह की सैर और शाम की गश्त लगाने लगे। कनहा बड़ा परेशान था। वह आँखें बंद कर सीधे उन तीन-चार कुत्तों से अकेला ही भिड़ने पहुँच जाता और उनसे कटवाने के बाद घायल होकर ही वापस आता। अकेला चितकबरा उसकी कोई मदद नहीं कर पा रहा था और झबरा पंडित जी का दरवाज़ा छोड़कर हिलना नहीं चाहता था।
वे तीनो-चारों विस्तारवादी कुत्ते हर सुबह अपनी सीमा विस्तार के ख़्याल से झबरा के इलाक़े में जगह-जगह पेशाब करके अपनी सीमा बढ़ा जाते थे। और चितकबरा उन अतिक्रमणवादी कुत्तों के पेशाब मार्किंग पर अपना पेशाब करके पुनः अपनी सीमा बहाल कर देता था। कनहा आँखें बंद करके सीधा लाठी निकालने वाले एक मानव समुदाय विशेष के स्वभाव का था। शत्रुओं से जब भी सामना होता वह दौड़कर सीधा शत्रु ख़ेमे में पहुँच जाता और हर बार घायल होकर लौटता। वह क्रोधी ज़्यादा मगर बुद्धि से थोड़ा मंद था।
ये तीनों कुत्ते कमज़ोर पड़ रहे थे मगर अच्छी बात यह थी कि इनके क्षेत्र की जनता उन नये कुत्तों को डंडा दिखाकर भगा देती थी और कभी-कभार मौक़ा मिलने पर एक-दो ज़ोरदार डंडे रसीद भी कर देती थी। इससे उन सीमा विस्तारवादी कुत्तों का हौसला बहुत पस्त हो गया। अब उनका इस क्षेत्र में गश्त लगाना कुछ कम हो गया।
इधर बार-बार मात खाने और कमज़ोर पड़ने के बाद चितकबरा, कनहा और झबरा का भी अपने क्षेत्र में आना-जाना कम हो गया। कुछ महीनें, लगभग सात-आठ महीनों तक ऐसा लगा जैसे यह क्षेत्र कु्त्ता विहीन हो गया है। वैसे मुहल्ले को इस कुत्ता विहीनता काल की क़ीमत चुकानी पड़ी। एक महीने के भीतर गली से दो नई बाइक चोरी हो गईं। रात्रि प्रहरी गार्ड बहादुर से पूछा गया तो उसने साफ़ मना कर दिया कि उसकी क्या ज़िम्मेदारी है? वह तो अकेला इतने बड़े सेक्टर में पहरा देता है। वह कहाँ-कहाँ बैठा रहेगा।
लगभग सात-आठ महीने बाद एक दिन सुबह-सुबह अचानक ही हुइली बड़ी दुबली-पतली कमज़ोर दशा में कहीं से वापस आ गई। उसकी दशा पर लोगों को बड़ी दया आई, गली वालों की हमदर्दी उसके साथ थी। महीने भर के भीतर ही खिला-पिला कर उसे पहले जैसा हृष्ट-पुष्ट और सुंदर बना दिया। हुइली के लौटते ही उसका दल फिर से सक्रिय हो गया। घुसपैठिये कुत्ते भी अब इधर आना भूल गये। हुइली का कायाकल्प हो चुका था। मगर अब वह बच्चे पैदा नहीं कर सकती थी क्योंकि एनजीओ वालों ने उसका परिवार नियोजन कर दिया था।
हुइली ठीक होकर आ गई तो एक दिन किसी सिरफिरे ने झबरा के कमर पर अपनी मारुती अल्टो का अगला पहिया चढ़ा दिया। ग़लती झबरे की नहीं उस गाड़ी वाले की थी। ओछी मानसिकता का आदमी विशेषकर जब सस्ती चारपहिया गाड़ी में बैठता है तो मुहल्ले की सँकरी गली को ही स्टेट हाइवे समझ लेता है। झबरे के केंकियाने की आवाज़ सुनकर जब तक पंडिताईन बाहर आई तब तक वह अल्टो वाला भाग गया था। झबरा दिन भर कराहता रहा। भगवान भला करे उस एनजीओ संचालक मंडली का जो आवारा कुत्तों के लिए काम करता है। फ़ोन गया तो घंटे भर के भीतर एनजीओ की गाड़ी झबरा को उठाकर इलाज के लिए ले गई।
समय अपने हिसाब से बीतता रहा नये पिल्ले पैदा नहीं होते। चितकबरा और हुइली दल में अब दो ही कुत्ते शेष थे। पिछले लगभग डेढ़ वर्षों से दल का मुखिया भी हुइली ही थी।
एक दिन पार्क में एक नया अजनबी कुत्ता दिखा। सहमा सा एक कोने में छुपकर बैठा हुआ। लेकिन उसपर कोई भौंक नहीं रहा था झबरा तो पहले ही एनजीओ में इलाज के लिए भर्ती हो गया था। कनहा भी अब दिखता नहीं था शायद कहीं भाग गया। चितकबरा और हुइली भी उसकी अनदेखी कर रहे थे।
इधर अजनबी कुत्ता अपनी दुम दबाये ऐसे सहमा बैठा रहता था जैसे वह दूसरे कुत्तों की नज़रों से स्वयं को बचाना चाहता हो। कई दिनों तक किसी ने उस अजनबी कुत्ते पर कोई ध्यान नहीं दिया। एक दिन वह दुम दबाये छुपते-छुपाते चौधरी साहब के घर के सामने उस जगह पर पहुँच गया जहाँ इस दल को अक़्सर खाना मिलता था। उसी जगह पर कभी डॉगेनियल ने झबरा के हाथ से सत्ता अपने हाथ में ले लिया था। मैंने उसे ग़ौर से देखा और अपनी याद्दाश्त पर ज़ोर देने लगा। यह तो डॉगेनियल जैसा दिखता है कहीं यह वही तो नहीं?
मगर डॉगेनियल तो शेर था! यह दुम छुपाये डरा सहमा, नहीं यह डॉगेनियल नहीं हो सकता।
मैं उसे ही देख रहा था कि पत्नी ने पूछा, “आप इसे पहचानते हैं यह कौन है?”
“नहीं तो”
“यह डॉगेनियल है।”
“अरे नहीं कहाँ वह डॉगेनियल और कहाँ ये मरियल! रंग लाल और भूरी आँखें होने मात्र से ही हर कुत्ता डॉगेनियल थोड़े न हो जायेगा?”
“विश्वास न हो तो किसी और से भी पूछ लीजिए यह डॉगेनियल ही है।”
बाद में पता चला कि सचमुच वह डॉगेनियल ही था। गली के लोगों ने भी उसके डॉगेनियल होने की पुष्टि कर दी थी। फिर यह इतना डरा सहमा हुआ डरपोक और इतना मरियल कैसे हुआ?
उसके गले में पड़ा हुआ महँगा पट्टा यह बता रहा था कि किसी ने इसे पकड़कर पालतू बना लिया था। मुफ़्त की सुख-सुविधाओं में लगातार लगभग दो साल रहने के बाद वह अपनी सारी शक्तियाँ गँवा बैठा था। यहाँ तक कि वह लाउडस्पीकर-सी लगने वाली अपनी वह दमदार भौंक भी भूल गया था। वह भूल गया कि उसमें सरदी-गरमी बरसात, कीड़े-मकोड़े, और विषम परिस्थितियों में जीने की एक प्रकृति प्रदत्त मज़बूत शक्ति थी। अपने दल का मुखिया तो हो ही गया था। बाहरी कुत्तों को खदेड़कर भगा देना इसके बाएँ पाँव का खेल था जो अब वह गँवा चुका था।
जब गली के लोगों ने डॉगेनियल को पहचान लिया तो चितकबरा और हुइली ने भी उसे अवश्य ही पहचाना होगा। मगर गली का कुत्ता लंबे समय तक पालतू रहकर लौटने के बाद विजातीय हो जाता है। मैंने सुना है कि बंदरों के झुंड में भी जो बंदर ग़लती से किसी पेड़ या ऊँचाई से गिर जाता है तो बंदर झुंड उसे अपने दल से बाहर कर देता है। फिर वह छँटुआ बंदर बनकर झुंड के आस-पास ही मँडराता है मगर झुंड में नहीं मिल पाता। संभवतः हुइली ने इसीलिए डॉगेनियल को अपने एरिये से तो नहीं भगाया मगर दल में भी नहीं मिलाया। अब डॅगेनियल उसके काम का नहीं रहा।
उसे देखकर बहुत दुख हुआ। वही डॉगेनियल जो कभी अपने दल और इस गली का शान था। आज डरा-सहमा दुम दबाये चुपचाप असहाय स्वयं को छुपाता हुआ सा दबे पाँव आता है और छुपते हुए दबे पाँव ही भाग जाता है। वास्तव में डॅगेनियल के सिर्फ़ शरीर को पाल पोसकर ज़िन्दा रखा गया था मगर उसके भीतर के डॉगेनियल को जान से मार दिया गया था। ठीक उसी तरह जैसे कभी-कभी किसी की दानवीरता किसी अच्छे ख़ासे हृष्ट-पुष्ट मेहनत करने योग्य जवान आदमी को भीख दान अथवा मुफ़्त सहायता दे देकर मुफ़्तखोर याचक कमज़ोर और जीवन भर के लिए निकम्मा बना देती है। वैसे तो समय किसी के लिए भी हरदम एक जैसा नहीं रहता मगर डॉगेनियल की यह दुर्दशा शायद कभी भी नहीं होती यदि उसके गले में पट्टा डालकर लगातार कई वर्षों तक उसे पालतू न बनाया गया होता।
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