चूड़ी वाले हाथ
राजनन्दन सिंहअस्सी के अंतिम और नब्बे की शुरूआती दशक में देश भर के लोग रोज़गार की तलाश में दिल्ली पहुँच रहे थे। यूपी, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, गढ़वाल से आनेवाले लोगों में ज़्यादातर ग़रीब मज़दूर थे। उन दिनों झाड़खंड बिहार से अलग नहीं हुआ था और गढ़वाल भी देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का ही अंग था। फरीदाबाद, ओखला, नोएडा, नारायणा, मायापुरी के साथ-साथ और भी कई औद्योगिक क्षेत्र स्थापित हो चुके थे। गुड़गाँव का विकास भी शुरू हो रहा था। हर जगह फैक्ट्रियाँ लग रहीं थीं। स्थानीय मज़दूर पर्याप्त रूप से या तो उपलब्ध नहीं थे या इस योग्य नहीं थे कि उन्हें काम पर रखा जाए। देश के अन्य हिस्सों से भूलता-भटकता कोई एक मज़दूर आता था तो उसे अपने जैसे दस-बीस और लाने को कहा जा रहा था। इसलिए रोज़गार की आस में देशभर से मज़दूरों का दिल्ली में जमा होना स्वाभाविक था। जिससे यहाँ पहले से स्थापित मज़दूरों को बड़ा कष्ट हो रहा था। उनके मन में उस स्त्री के जैसी डाह उत्पन्न हो रही थी जैसे किसी स्त्री के घर में हर दिन उसकी सौतें घुस रहीं हों और वह उनमें से किसी को भी रोकने या भगाने में असमर्थ हो। ऐसी परिस्थितियों में स्त्रियाँ अक़्सर ईर्ष्या और जलन से जली-भुनी रहती है और ताने भरे शब्दों से सौतन को नीचा दिखाने अथवा चिढ़ाने का प्रयास करती है। उन दिनों दिल्ली आनेवाले नये मज़दूरों के साथ भी यही हो रहा था। ज़्यादातर मज़दूर चूँकि पूर्वी यूपी और बिहार से होते थे। इसलिए उनके प्रति उपहास का भाव थोड़ा, ज़्यादा ही था। उपहास के लिए वैसे नेपाली, गढ़वाली, बंगाली, मद्रासी इत्यादि शब्द भी प्रयोग हो रहे थे। मगर सबसे ज़्यादा जो शब्द प्रचलित हुआ, वह था बिहारी, पुरुबिया, और भइया।
कुछ वाक्य बड़े प्रचलित थे “एक बिहारी सौ बीमारी” वस्तुतः ऐसा कहने वालों के स्वयं की स्थिति भी बिहारी मज़दूरों से ज़्यादा अच्छी नहीं थी। मगर वे अपनी कुंठित क्षोभ प्रदर्शित करने तथा बिहारियों को नीचा दिखाने के लिए ऐसा कहते थे। सम्भवतः उन्हें ऐसा कहना पड़ता था।
“बिहारी सूटकेस ज़रूर खरीदेगा।” वस्तुतः ख़रीदते वे भी थे जो ऐसा कहते थे। अभावग्रस्तों की ज़िन्दगी, सोच और सपने लगभग एक जैसे ही होते हैं चाहे वे बिहार हों या कश्मीर के।
“एक बार जो बिहारी दिल्ली आ जाता है, वापस नहीं जाता।” वस्तुतः जो संघर्षशील थे उनमें से वापस कोई भी नहीं जाता था चाहे वे कहीं से भी आये हों। बहुत से बिहारी जो काम और परिश्रम से मुँह चुराने वाले होते थे वे वापस भाग भी जाते थे। परन्तु कहने वालों को इस बात का पता या उनके पास इसका कोई डाटा उपलब्ध नहीं था। उनके पास मुँह था इसलिए वे बोल रहे थे।
“एक बिहारी बिहार जाता है अपने जैसे दस और ले आता है।” वस्तुतः अन्य राज्यों के लोग यहाँ तक कि कहने वाले स्वयं भी यही करते थे।
“एक कमरे में चार बिहारी रहते हैं और चार स्टोव जलाते हैं।” वस्तुतः यह विवशता सभी नवागंतुक मज़दूरों की थी। ऐसा कहने वालों के घर भी सम्भवतः स्टोव भले एक ही जलते रहे हों। मगर रहते वे स्वयं भी एक कमरे में चार या पाँच ही थे।
“बिहारी भात बना लेंगे और चार आलू दाल में ही रखकर उसके चोखा से काम चला लेंगे।” वस्तुतः पाँच पकवान वे भी नहीं खा पाते थे जो ऐसा बोलते थे। बिहारियों में डीबीसी (दाल भात चोखा) की खोज शहरों में रहकर पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों ने की थी। इस विधि से कम ख़र्च, कम समय में सादा और स्वादिष्ट भोजन तैयार हो जाता था जिससे वे अपनी पढ़ाई-लिखाई के लिए समय की बचत कर पाते थे। अकेले रहने वाले वाले मज़दूर भी समय और धन बचाने के लिए ऐसा करते थे। एक से अधिक स्टोव अक़्सर तभी चलते थे जब साथ रहने वाले सभी शाकाहारी नहीं होते थे।
“बिहारियों ने आकर मज़दूरी की रेट पीट दी। कम पैसे में काम करने को तैयार हो जाते हैं।” बहुत हद तक इस बात में सच्चाई थी। पर यदि ग़ौर किया जाए तो इसका वास्तविक दोषी किसी की मजबूरियों से लाभ उठाने वाले मालिक लोग थे। मज़दूरों की ग़लती नहीं विवशता थी।
“पंजाबी को पंजाबी, हरियाणवी को हरियाणवी कहो बुरा नहीं मानता मगर बिहारी को बिहारी कह दो तो चिढ़ जाता है।” वस्तुतः यह उन संवेदनहीन जाहिलों का प्रिय और कुटिल धारणा थी, जिन्हें लगता था कि कुछ भी कहने के पीछे जो एक भाव-कुभाव, मंशा-कुमंशा होती है, उसका गुप्त ज्ञान सिर्फ़ उसी के पास है। उसके अलावे किसी और को कुछ नहीं पता। बिहारियों का उपहास उड़ाने के लिए विष भरा यह प्रश्न अथवा वाक्य भी अपने आप में एक व्यंगात्मक हथियार था। जिससे एक ही वार में दो प्रहार किये जाते थे। वे भली-भाँति जानते थे कि जिस भाव से किसी को बिहारी कह देते हैं उसी भाव से यदि किसी को पंजाबी या हरियाणवी कह देने पर सम्भव है कि उनकी बत्तीसी सिर्फ़ बीसी रह जाएगी।
मगर कुटिलता और विशेषकर क्षुद्रता ही जहाँ किसी का मूल कु्स्वभाव हो, वे लोग समर्थ से समर्थ समाज के उपहास का भी कोई न कोई बहाना ढूँढ़ ही लेते हैं।
उन्हीं दिनों पंजाब में आतंकी गतिविधियाँ ज़ोरों पर थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद पगड़ी पहनने वाले सिक्ख सरदारों के प्रति भी लोगों के मन में कुछ भाव अच्छे नहीं थे। इसलिए जहाँ-तहाँ सरदारों को भी हँसी-हँसी में आतंकवादी कहकर मज़ाक उड़ाया जा रहा था। यूपी के पुरुबिये तथा गढ़वालियों के प्रति भी हेय नज़रिया था मगर बिहारियों की विशेषकर बड़ी ज़िल्लत थी। क्या पढ़े-लिखे, क्या गँवार, क्या अमीर, क्या मध्यम क्या फटेहाल? किसी में कोई अंतर नहीं था बिहारियों के प्रति सभी की मानसिकता, संस्कार एवं भाव-व्यवहार बिलकुल एक जैसे थे। किसी से किसी में कहीं तिल भर का भी कोई अंतर नहीं। जैसे सभी एक ही माँ-बाप की कोख से पैदा हुए हों अथवा एक ही स्कूल में एक ही गुरुजी से पढ़े हों।
बिहार से दिल्ली आनेवाले लोगों में जैसे कोई अपराध बोध डाला जा रहा था कि बिहारी होना पहले से ही उसका अपराध है और बिहारी होकर दिल्ली आ जाना उनका दूसरा अपराध। क़दम-क़दम पर बिहारियों को ज़िल्लत व अपमान का घूँट पीना पड़ता था। दिल्ली में रहनेवाले ग़ैर बिहारी लोगों के मन में चोर-उचक्कों पॅाकेटमार, गिरहकटों के लिए भी वह रोष, आक्रोश या अपमान का ज़हर नहीं था जो बिहारियों के प्रति था।
अचरज की बात थी कि बिहारियों के प्रति होनेवाली इस ज़्यादती से सभी अवगत थे मगर इसके विरोध अथवा बिहारियों की मदद के लिए कोई नहीं था। न कोई बिहार का नेता, न स्थानीय नेता, न कोई मानवाधिकार समाजसेवी, न कोई बुद्धिजीवी, न पुलिस, न थाना . . . कोई नहीं। अपने ही देश की राजधानी में बिहार के लोग तीसरे दर्जे की नागरिकता का अपमानजनक दंश झेल रहे थे। प्रत्येक बिहारी इस गीत की पंक्ति का एहसास कर रहा था।
अपने ही देशवा में हमनीं बाऽनी वीरान
लोगवा बिहारी पुरुबिया कहि-कहि करे अपमान
पड़ोसी देश नेपाली नागरिकों के साथ भी उतना बुरा सलूक नहीं हो रहा था जितना बिहारियों के साथ। दशा यह हो गई कि बिहार के बहुत से हीन मनस्यक लोगों ने स्वयं को बिहारी बतलाना छोड़ दिया। कुछ लोग हास्यप्रद हरियाणवी बोलने और अपनी पहचान छुपाने का प्रयास करने लगे तो कुछ लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि वे बिहार के नहीं उपी (यूपी) के हैं।
बिहार के लोगों का यह आहत अपमान ऐसा नहीं कि सिर्फ़ दिल्ली में ही था। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र जहाँ कहीं भी बिहार के लोग थे, कहीं कम कहीं ज़्यादा बिहारियों का अपमान हर जगह था। इसका मतलब था कि ग़लती कहीं न कहीं निश्चित रूप से ही बिहार की छवि गढ़ने वालों की थी। राज्य के नेता राज्य की छवि ग़लत गढ़ रहे थे। केन्द्र की सरकार जो सभी राज्यों के मान स्वाभिमान की रक्षा के लिए उत्तरदायी है ईमानदारी से अपना काम नहीं कर रही थी। उपहास उड़ानेवालों में जो अकुलीन अनपढ़ जाहिल गँवार थे उनकी कोई ग़लती नहीं थी क्योंकि उनसे सभ्यता की भी कोई अपेक्षा नहीं थी मगर शिक्षित कुलीन एवं सभ्य लोगों की निश्चित रूप से ही ग़लती थी। क्योंकि उनसे उनके पारिवारिक संस्कार, व्यक्तिगत शिष्टाचार, और राष्ट्रीय एकता के लिए देश के प्रति उनके मूल कर्तव्यों सहित एक शिक्षित राष्ट्र की सभ्यता, सभी चीज़ों की अपेक्षा थी।
कुछ ग़लती अपमानित हो रहे लोगों की भी थी। बुरे लोग चाहे कही भी चले जाएँ अपनी बुराइयों से बाज़ नहीं आते। प्रवासी बिहारियों की तीन प्रमुख ग़लती थी। लाला की दुकानों से उधार खाना पैसे भी चुकाना मगर आदतवश कभी-कभार दस बीस चालीस पचास रुपये उधार लेके बिना बताये ग़ायब हो जाना, उन दिनों पचास रुपये बड़ी रक़म थी क्योंकि ज़्यादातर मज़दूरों की मासिक तनख़्वाह ही पाँच सौ रुपये मात्र या उससे भी कम होती थी। जहाँ काम कर रहे होते वहाँ से बिना छुट्टी मंज़ूरी अथवा बिना बताये लंबी छुट्टी मारकर गाँव चले जाना और छुट्टियाँ पूरी करके पुनः उसी लाला, उसी मालिक के पास सर झुकाए वापस आकर डाँट खाना, अपनी विवशता बताना। कभी-कभी झूठ-साँच बोलकर अच्छे परिवारों की लड़कियों को बहला फुसलाकर भगा ले जाना पर साथ न निभाना। और एक दिन उसे कहीं छोड़कर ख़ुद भी लापता हो जाना। मगर ऐसे उबारु लोग बहत कम थे। लगभग न के बराबर परन्तु तालाब गंदा करने के लिए तो कुछ ही सड़ी हुई मछलियाँ पर्याप्त होती हैं। अपमानित होने वाले लोगों में ज़्यादातर वे लोग थे जो दुसरों की ग़लतियों का हर्जाना भुगत रहे थे।
मगर हर बात की एक अति होती है, और हर जीवित प्राणियों की तरह हर उत्पन्न परिस्थितियों की भी एक निश्चित उम्र अथवा समय सीमा। समय के साथ पीड़ितों का साहस बढ़ा तो परिस्थितियाँ बदलने लगी।
बिहार से दिल्ली आनेवाला हर कोई विवश संकोची मज़दूर ही नहीं था। बिहार के विश्वविद्यालयों में स्नातक का सेशन तीन-तीन साल देर से चल रहा था। इसलिए बहुत से छात्र भी दिल्ली यूनिवर्सिटी में नामांकन करवाकर आगे कंपीटिशन की तैयारी अथवा सीए की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ चुके थे। उनका अपना ग्रुप था। कुछ समय उन्हें यहाँ के वातावरण को समझने में लगा। और जब समझ गये तो परिस्थितियाँ और बदलीं। वे अपनी बिहारी पहचान न तो खोना चाहते थे न ही छुपाना। बिहारी थोड़े ढीठ हुए तो बिहारी थप्पड़ों से दिल्ली की डीटीसी बसों में घूमने वाले अनगिनत नवाबों के गाल लाल और कानों के पर्दे फट गये। जहाँ अवसर मिला लातों मुक्के खान दिये गये। समझदारों ने स्वयं अपनी ज़ुबान पर लगाम लगा ली और डरपोकों की ज़ुबान डर से बंद हो गयी। और जो समझदार नहीं थे उन्हें समझाने का सिलसिला जहाँ-तहाँ शुरू हो गया।
उन दिनों गुड़गाँव बस स्टेशन से कापसहेड़ा बॅार्डर के लिए तिपहिया सवारी ऑटो रिक्शा चलती थी। सवारियाँ ज़्यादा थीं और ऑटो कम। स्टैंड में एक ऑटो आते ही सवारियाँ उस पर टूट पड़तीं थीं। ऑटो में बैठने के लिए किसी लाईन अथवा नंबर की व्यवस्था थी ही नहीं। पहले से खड़े लोगों की कोई परवाह न करते हुए अपनी बेसब्री में जो कूद-झपट के पहले बैठ गया, वो बैठ गया। इसलिए कई बार सभ्य एवं धैर्यशील लोगों को कई-कई गाड़ियाँ छूटने के बाद ऑटो मिलती थी।
एक स्थानीय ताई बहुत देर से ऑटो की प्रतीक्षा कर रही थी। कई गाड़ियाँ छोड़ने के बाद जब एक ऑटो पर वह बैठने में सफल हुई तो एक बिहारी महिला भी कहीं से आकर झटपट उसकी बग़ल में आ बैठी। ताई चाहती थी उसके साथ वह स्कूल की लड़की बैठे जो बड़ी देर से किसी लड़के से बातचीत में मशग़ूल कई ऑटो छोड़ चुकी थी। मगर उस स्कूली कन्या को अपने लिए शायद इतनी जल्दी नहीं थी जितनी कि उसके लिए ताई के मन में हमदर्दी। ऑटो चल पड़ा ताई उस महिला पर भुनभुनाती रही।
“चले आते हैं भूखे देश बिहार से यहाँ आकर बन जाते हैं शेर। ना उठण बैठण के ढंग ना बोलणे के।“
ऑटो में ज़्यादातर बिहारी ही बैठे थे। उस महिला को आभास नहीं था कि ताई उसी पर भुनभुना रही है। उसने सोचा किसी ने कुछ कह दिया होगा उसी पर भनभना रही है। महिला की चुप्पी ताई को अखर रही थी। वह उसे कुछ और भला-बुरा बोलना चाहती थी मगर अच्छी भड़ास निकालने के लिए शब्दबाण दोनोंं तरफ़ से चलने चाहिएँ तभी ज़्यादा से ज़्यादा तीखे शब्द आसानी से मिलने शुरू होते हैं और ग़ुस्से को भी सही आँच मिलती है। वरना एक तरफ़ से चुप्पी या अनदेखी हो तो दूसरी तरफ़ से अकेले कोई कितना बोले? बैठने को ताई स्वयं ही पूरी जगह लेकर फैलकर बैठी थी मगर ग़ुस्से में एक ज़ोरदार कहुनी माहिला को लगाते हुए बोली,
“ओए बिहारण चल ठीक से बैठ जा पसर के बैठी है दूसरे को भी ज़रा आराम ते बैठण दे।”
इतनी देर से ताई बिहार को कोस रही थी। उस महिला को कोई परवाह नहीं थी न ही ऑटो में बैठे किसी अन्य बिहारी को। मगर अपने लिए अपमान भरे बिहारण शब्द सुनकर वह आग-बबूली हो गई। वह महिला सम्भवतः उच्च रक्तचाप से पीड़ित थी। चेताती हुई ताई से बोली, “पसर के तू बैठी है ताई चुपचाप बैठी रह वरना मुझसे बुरा कोई न होगा।”
ताई इसी बात का तो इंतज़ार कर रही थी पुरे आक्रोस में बोली, “वरना के कर लेगी? बिहारण कहीं की।”
“चुप हो जा ताई मैं तुझसे लड़ना नहीं चाहती, हाथ जोड़ती हूँ।”
“एक औरत है तो आजा लड़ मैं मुँह न नोच लूँ तेरा?”
महिला ग़ुस्सैल थी और अपेक्षाकृत युवती भी। उसने ताई की बातों का कोई जवाब नहीं दिया मगर उसके बाल पकड़कर उसे लसारने लगी। लाख कोशिश के बाद भी ताई अपने बाल छुड़ा न सकी और “मार दिया रे . . . बिहारण ने मुझे . . . मार दिया रे . . . राम . . .” चिल्लाने लगी।
ऑटो वाले ने गाड़ी रोक दी सवारियों ने मुश्किल से दोनोंं को अलग किया। ताई उस महिला से छूटी तो सवारियों को गाली बोलने लगी धिक्कार है तुम लोगों को तमाशा देख रहे हो और ये डायन मुझे मार रही है। एक सवारी ने ताई को चुप कराते हुए कहा, ”चुप हो जा ताई ग़लती तेरी ही है। नहीं मानती तो वह भी बता, अभी टेलीफोन बूथ से सौ नंबर पर फोन कर देता हूँ।” दूसरे तीसरे सवारी ने भी ताई की ही ग़लती ठहराई।
अब ताई ने ऑटो ड्राईवर को धिक्कारा, “देख ये बिहारी-बिहारी सब एक हो गये। तू शरम से डूब के मर जा, ये दिन आ गये हैं। बिहारियों को जितने भी लात मारो बोलते नहीं थे। अब हमारे ही गाँव में हमें ही पीट रहे हैं। और तू गाँव वाला चुप तमाशा देख रहा है मर जा शरम से।”
ऑटोवाला झेंप रहा था। आदमी-आदमी के बीच की बात होती तो शायद वह स्थानीय आदमी का ही पक्ष लेता। बिहारी को कुछ उल्टा-सीधा बोलने का प्रयास करता मगर यहाँ बात स्त्री और स्त्री के बीच थी। और सभी सवारी एक स्त्री के पक्ष में थी। वह चाहकर भी ताई की कोई मदद नहीं कर सकता था। उसने अपनी विवशता ज़ाहिर करते हुए कहा, “अब क्या करूँ ताई जब सभी कह रहे हैं ग़लती तेरी ही है।”
“लोग बुला, पुलिस बुला।”
“पुलिस भी आकर तुझे ही समझायेगी। अब चुपचाप बैठ जा।”
“तो क्या अपने घर में बिहारियों से पिटती रहूँ? तुझे शरम नहीं आती?”
“शरम तो आती है ताई पर अपने गाँव में किसी को खा थोड़े न जाएगी। इंसान की इज़्ज़त अपने हाथ होती है। सोच समझ के नहीं चलेगी तो अपने ही घर में ऐसे ही बिहारियों से पिटेगी।”
ताई का ग़ुस्सा शांत हो चुका था। वह चुपचाप नज़र झुकाकर शांत बैठ गई। वह महिला भी विजयी भाव से ताई के बग़ल में ही बैठ गई। इस बार महिला फैली हुई थी और ताई सिकुड़ी हुई। ऑटो चली अगले स्टैंड पर पहले वह महिला उतर गई और उसके लगभग दो किमी बाद ताई भी उतर गई। ताई ने किराया देने के लिए अपना बटुआ खोला ऑटोवाले ने मना कर दिया। ”कोई नहीं रहने दे ताई” और उसने बिना पैसे लिये ऑटो आगे बढ़ा दिया।
कापसहेड़ा बॅार्डर तक जाने वाली तीन सभ्य सवारियाँ अभी भी ऑटो में सवार थीं। हाथ में बैग और पहनावों से लगता था वे किसी ऑफ़िस में शायद एग्ज़िक्युटिव स्तर पर काम करते थे। एक दूसरे को जानते नहीं थे। उनके चेहरे पर संतुष्टि के भाव बता रहे थे कि वे तीनों ही बिहारी थे; उस महिला की प्रशंसा करना चाहते थे। मगर तीनों के तीनों चुप थे और शायद भीतर से शर्मिंदा भी। अनुमान लगाना थोड़ा कठिन था उस महिला की प्रशंसा में इन्हें शब्द नहीं मिल रहे थे या इस अजमंजस में थे कि किस मुँह से प्रशंसा की जाए। उनमें से किसी एक ने अपनी कलाइयों की तरफ़ देखते हुए चुप्पी तोड़ी और दार्शनिक अंदाज़ में बोला, “घड़ी और कलेवा बाँधने वाले हाथों से चूड़ी पहनने वाले हाथ कहीं ज़्यादा मज़बूत है।”
ऑटो वाले ने तुरत उसकी बातों की हिन्दी में सरल व्याख्या कर दी।
“बिहारियों के लिए यह बात तो बिलकुल सही है भैया। मैंने तो कॉलोनियों में भी देखा है बिहारी ही दब्बू और मुँहचोर होते हैं। जहाँ उनकी कोई ग़लती न हो वहाँ भी चुप रह जाते हैं, गालियाँ सुन लेते हैं। मगर बिहारिनें नहीं मानतीं वो लड़ पड़ती हैं। चाहे सामने गली का परधान ही क्यों न हो।”
3 टिप्पणियाँ
-
आदरणीय बसंत जी, आपकी उत्साह वर्धक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार। कृप्या अपना स्नेह बनाये रखें। सादर राजनन्दन सिंह
-
प्रस्तावना बहुत लम्बी हो गई, कथानक की तुलना में।
-
अत्यंत सुंदर,रोचक और विश्लेषणात्मक रचना.कहानी में इतिहास ,समाज और भविष्य एक साथ मौजूद है।लेखक को बधाई
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- सम्पादकीय प्रतिक्रिया
- कहानी
- सांस्कृतिक आलेख
- कविता
-
- अंकल
- अंतराल
- अंधभक्ति के दरवाज़े
- अदृश्य शत्रु कोरोना
- अबला नहीं है स्त्री
- अव्यवस्था की बहती गंगा
- अहिंसा का उपदेश
- आज और बीता हुआ कल
- आत्मसंघर्ष
- आहत होती सच्चाई
- ईश्वर अल्लाह
- उत्पादन, अर्जन और सृजन
- उत्सर्जन में आनन्द
- उपेक्षा
- एक शब्द : नारी
- कर्तव्यनिष्ठता
- कविता और मैं
- कोरोना की तरह
- क्षेत्रियता की सीमा
- गंदी बस्ती की अधेड़ औरतें
- गेहूँ का जीवन मूल्य
- गौ पालकों से
- घर का नक़्शा
- घोंसला और घर
- घोंसलों से उँचा गाँव
- चिड़ियों की भाषा
- चुप क्यूँ हो
- जगह की कमी
- जब कोई दल बदलता है
- जब से बुद्धि आई है
- जाते-जाते हे वर्ष बीस
- जीवन का उद्देश्य
- ज्ञान जो अमृत है
- झूठ का प्रमेय
- टॉवर में गाँव
- तरक्क़ी समय ने पायी है
- तवायफ़ें
- तुम कौन हो?
- तुम्हारी ईमानदारी
- तुम्हारी चले तो
- दिशा
- दीये की लौ पर
- देश का दर्द
- नमन प्रार्थना
- नारी (राजनन्दन सिंह)
- पत्थर में विश्वास
- पुत्र माँगती माँ
- पूर्वधारणाएँ
- प्रजातंत्र में
- प्रतीक्षा हिन्दी नववर्ष की
- प्राकृतिक आपदाएँ
- प्रार्थना
- फागुन आया होगा
- फूल का सौदा
- फेरी बाज़ार
- बक्सवाहा की छाती
- बदबू की धौंस
- बिल्ली को देखकर
- बोलने की होड़ है
- बोलो पामरियो
- भारतीयों के नाम
- मक्कारों की सूची
- मन का अपना दर्पण
- महल और झोपड़ी
- महा अफ़सोस
- माँग और पूर्ति का नियम
- मुफ़्त सेवा का अर्थशास्त्र
- मूर्खता और मुग्धता
- मूर्ति विसर्जन
- मेरा गाँव
- मेरा घर
- मेरा मन
- मेरे गाँव की नासी
- मैं और तुम
- मैं और मेरा मैं
- मैली नदी के ऊपर
- यह कोरोना विषाणु
- यह ज़िंदगी
- राजकोष है खुला हुआ
- रावण का पुतला
- लुटेरे
- शत्रु है अदृश्य निहत्था
- शब्दों का व्यापार
- सचेतक का धर्म
- सच्चाई और चतुराई
- सत्ता और विपक्ष
- समभाव का यथार्थ
- सरदी रानी आई है
- सामर्थ्य
- साहित्यहीन हिन्दी
- सीमाएँ (राजनन्दन सिंह)
- सुख आत्मा लेती है
- सुविधामंडल
- स्मृतिकरण
- हमारी क्षणभंगुर चाह
- हमारी नियति
- हर कोई जीता है
- ग़रीब सोचता है
- ज़िंदगी (राजनन्दन सिंह)
- ज़िंदगी के रंग
- ज़िंदगी बिकती है
- किशोर साहित्य कविता
- हास्य-व्यंग्य कविता
- दोहे
- बाल साहित्य कविता
- नज़्म
- विडियो
-
- ऑडियो
-