महा अफ़सोस

01-12-2020

महा अफ़सोस

राजनन्दन सिंह (अंक: 170, दिसंबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

सो रही है
ब्राह्मणों की विद्वता
विप्रों के धर्म
कर्तव्य और ज्ञान
 
सो रही है
क्षत्रियों की तलवारें
क्षात्र धर्म है मंद 
नही उबलते ख़ून 
नहीं रही अब आन
 
जाग रही है तो सिर्फ़ 
वैश्यों की तिजोरी
खरीदने को
पनपती नैतिकता
अभिमन्यु की वीरता
 
जाग रहा है शूद्र
ब्राह्मणों से विक्षुब्ध
अभी तक वंचित
अभी तक अधीर
बेचने को अपना मत
बिकने को बन भीड़
 
जाग रहे कुछ कुत्ते
कुछ नील सियार
जाग रही है कुटिल 
अनैतिक क्षुद्र दुष्प्रवृतियाँ
अफ़सोस!
कि सो रही है हमारी
रौद्र प्रवृतियाँ
 
महा अफ़सोस
अभी तक नींद में है हमारा साहित्य
सो रहे हैं हमारे साहित्यकार
अभी तक जगे नहीं हैं
ब्राह्मरत बुद्धिजीवियों के
प्रबुद्ध विचार
अभी तक जगा नही है
मानव का धर्म
शिव का रुद्र और 
शैव की  हुंकार

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
सांस्कृतिक आलेख
कविता
किशोर साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
दोहे
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
बाल साहित्य कविता
नज़्म
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में