मन का अपना दर्पण

15-09-2020

मन का अपना दर्पण

राजनन्दन सिंह (अंक: 164, सितम्बर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

वह शीशा
जिसमें हम स्वयं को देखते हैं
स्वयं को सँवारते हैं
वस्तुतः  उसमें 
हम स्वयं नहीं दिखते
हमारा मुखड़ा दिखता है
हम अपना मुख सँवारते हैं
 
एक दर्पण 
मन के भीतर है
मन की ऊँचाइयों पर
कोमल निर्मल स्वच्छ
कई नदी कई वन कई रेगिस्तान 
पार करने के बाद
कई पर्वतों के ऊपर
एक रहस्यमयी  
गुप्त शून्याकाश में 
 
पर्वतों की फिसलन भरी 
कठिन चढ़ाई
लाँघते हुए वहाँ पहुँचने पर
एक असीम सृष्टि है
सूक्ष्मातिसूक्ष्म
बहुआयामी 
पर वह 
किसी उपग्रह कैमरे का 
लेंस नहीं है 
 
वह दर्पण है
मन का भीतरी दर्पण
भौतिक सूक्ष्म सूक्ष्मातिसूक्ष्म
मन कण  अणु परमाणु
जहाँ सब दृष्टिगोचर हैं  
 
साँस थामे वहाँ ध्यान से 
चुपचाप एकाग्रचित बैठना
स्वयं को ढूँढना 
स्वयं को देखना
स्वयं को सँवारना
स्वयं को साधना
और एकाग्रता बनाए रखना 
सावधान 
स्वयं को देखना 
एक हर्षातिरेक है
एकाग्रता न टूटे 
ध्यान रहे
वरना अदृश्य हो जाएगा 
मन का दर्पण 
और पुनः उस हर्षातिरेक को
फिर से चढ़नी होगी
वही कठिन चढ़ाई 
फिर से करना होगा 
वही सब कुछ

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