बाबू ग़रीबनाथ का कुत्ता

01-06-2022

बाबू ग़रीबनाथ का कुत्ता

राजनन्दन सिंह (अंक: 206, जून प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

बाबू ग़रीबनाथ के नाम का मतलब गाँव के सामान्य लोग निर्धन या ग़रीब होना समझते थे। लोग अपने साथ उनके ग्रामीण रिश्तों के हिसाब से उन्हें ग़रीब बाबू, ग़रीब चाचा, ग़रीब भाई ग़रीब दादा इत्यादि कहकर संबोधित करते थे, मगर वास्तव में वे न तो स्वयं ग़रीब थे और न ही उनके नाम का अर्थ ग़रीब था। उनका सम्बन्ध एक संपन्न किसान परिवार से था। पिताजी गाँव के पूर्व और वर्तमान दोनों ही मुखिया थे क्योंकि पहला कार्यकाल समाप्त हुए लगभग दो साल बीत गए थे और नया चुनाव होने की कोई चर्चा या सम्भावना नहींं थी। दो चाचा पुलिस में ऑफ़िसर थे। चाचा-ताऊ सब मिलकर भइयारी बड़ी थी। चार भाई भी अलग-अलग ज़िला मुख्यालयों में सरकारी नौकर थे। कुछ भाइयों की शहर में खाद और डीज़ल की एजेंसी थी। कुल मिलाकर परिवार का स्तर काफ़ी ऊँचा था। परिवार संयुक्त था नौकरी करनेवाले लोग अपनी नौकरी पर रहते थे मगर सभी की पत्नियाँ और सभी बच्चे गाँव में ही रहते थे। नौकरी लगने के बाद अपने बीबी-बच्चों को साथ ले जाना संयुक्त परिवार में अच्छा नहींं माना जाता था। परिवार में एक दो बच्चे मंदबुद्धि भी थे मगर फिर भी उनका स्तर गाँव के अन्य सामान्य अथवा तेज़-तर्रार बच्चों से कहीं ऊपर ही था। परिवार जब संयुक्त और एकजुट होता है तो परिवार का सामाजिक स्तर भी घर के सबसे समर्थ सदस्य के स्तर से तय होता है। बाबू ग़रीबनाथ के पिताजी मुखिया थे इसलिए परिवार के सभी लोगों का मनोबल एक मुखिया के स्तर का ही था। 

दरवाज़े पर गाय, भैंस, बैलों की संख्या दर्जन भर से ज़्यादा थी। दो तीन खुले कुत्ते भी थे। 

ग़रीब बाबू बिहार विश्वविद्यालय से स्नातक थे। उनको किरानी की नौकरी पसंद नहींं थी और परिवार की देख-रेख के लिए एक आदमी गाँव में भी ज़रूरी था। इसलिए वे खेतीबाड़ी, जन-मज़दूर एवं परिवार की देख-रेख के लिए गाँव में ही रह गये। परिवार का गार्जियन ग़रीब बाबू ही थे। 

अमीरी लाल, बाबू ग़रीबनाथ का हरवाहा था। विडंबना ही थी कि अमीरी लाल अपने नाम के विपरीत बहुत ही ग़रीब आदमी था। दिनभर चुपचाप अपने काम में लगे रहना। दिन दुनिया से कोई मतलब नहींं, कौन हँस रहा है, कौन रो रहा है, कौन क्या कर रहा है, गाँव देश में क्या हो रहा है—अमीरी को कुछ पता नहींं था। उसका एक ही धर्म था। सुबह उठकर अपने काम से फारिक होना, हाँथ-मुँह धोकर मालिक के दरवाज़े पर पहुँच जाना और बिना समय गँवाए सीधा काम में लग जाना। हल निकालने से पहले बैलों को खिलाना, पानी पिलाना, थड़ी साफ़ करना और हल जोतकर आने के बाद पुनः बैल, गाय भैंस के चारे का इंतज़ाम और उनका देखभाल उसके प्रतिदिन का काम था। 

उन दिनों कोई भी मज़दूर चाहे वह अपने काम में कितना भी निपुण हो, दक्ष हो, मेहनती हो अनाड़ी हो या कामचोर ही क्यों न हो अपनी मज़दूरी के लिए मालिक से मोलभाव नहींं कर सकता था। सभी के लिए एक ही बँधी हुई मज़दूरी तय थी। पारिश्रमिक के मामले में कुशल–अनाड़ी मेहनती–देहचोर मज़दूरों में कोई अंतर या भेदभाव नहींं था। सभी समान थे। यदि कोई अंतर था तो यही कि कुशल और मेहनती मज़दूर को हर कोई ढूँढ़ता था। 

मज़दूरी क्या थी दोपहर तक काम करने के ढाई सेर और दिनभर काम करने के पाँच सेर प्रतिदिन मालकिन की इच्छा और योजना के मुताबिक़ धान, गेंहू, मड़ूआ मकई, बँगला अथवा खेसारी में से कोई भी एक अनाज और दो पहर की पनपियाई (जलपान)। 

सरसों, राई, तीसी सामान्य रूप से अनाज की श्रेणी में नहींं आते ये तिलहन कहलाते हैं। मानने को मसुरी रहड़ी कुरथी मूँग इत्यादि को भी दलहन अनाज ही माना जाता है मगर बन (मज़दूरी) में ये अनाज कभी नहींं दिये जाते थे क्योंकि अपेक्षाकृत इन दलहन अनाजों की क़ीमत तथा उपयोगिता अन्य अनाजों से ज़्यादा होती थी। 

सुबह सूर्योदय से लेकर शाम के दो घंटे अँधेरा होने तक काम के बदले अमीरी लाल को भी उतना ही मिलता था जो बँधा हुआ और तय था। बन के रूप में प्रतिदिन पाँच सेर अनाज, और रात को जब वह घर जाने लगता तो मालिक के घर में यदि दिन का बचा खुचा कुछ खाना रहता था तो मालकिन उसे अमीरी लाल को खिला देती थी। जिस दिन क़िस्मत अच्छी होती अमीरी को भरपेट खाने को मिल जाता वरना प्रतिदिन जो कुछ भी मिलता अमीरी उसी से संतुष्ट हो जाता, घर जाकर वह दुबारा खाना नहींं खाता था। उसके हिसाब से महीने में उसके लिए यह एक बड़ी बचत थी। मालकिन की वह आधी-अधूरी दयालुता भी अमीरी के लिए बहुत बड़ी सहायता थी, अमीरी उसी में ख़ुश रहता था। उसे कहीं से भी कुछ आभास नहींं था कि उसका शोषण हो रहा है। या उसे दिनभर की कड़ी मेहनत के बदले कुछ और भी मिलना चाहिए। उसकी नज़र में जीवन का अर्थ वही था जो उसे प्राप्त था। उससे ज़्यादा न तो उसकी कोई चाहत थी और न ही उससे आगे उसका कोई सपना। 

बीसवीं सदी का वह शुरूआती आठवाँ दशक था। बड़े-बड़े धनी किसानों के कपड़े भी फटे-चिटे रहते थे, पाँव में चप्पल नहींं होती थी, पुरुषों के गोलगला (आधी बाजू और बिना कॅालर बटन का छोटा कुर्ता), बच्चों की क़मीज़ पैंट और महिलाओं की साड़ी में पेबन्द आम बात थी। 

गाँव में अख़बार शायद ही कभी-कभार कोई शहर से ले आता था। टीवी बड़े शहर में भी विरले किसी-किसी के पास होता था। जिसके पास होता था उसके छत पर टीवी का एंटिना एक कोस दूर से ही उसके घर का शान बढ़ाता हुआ खड़ा नज़र आता था। छत पर टीवी का एंटिना होना ही बहुत बड़ी प्रतिष्ठा थी। रेडियो या तो बाबू ग़रीबनाथ जैसे लोगों के पास होता था या फिर दिल्ली-पंजाब से पैसे कमाकर लौटे हुए मज़दूरों के पास। 

आम लोगों को चिट्ठी लिखवाने-पढ़वाने के लिए कई-कई दरवाज़े घूम-घूम कर पढ़े-लिखे लोगों से निहोरा करना पड़ता था। गाँव में किसी का कहीं से कोई कुटुम्ब (मेहमान) या मनिऑर्डर आता था तो पूरे गाँव को पता चलता था। फलाने का कुटुम्ब या मनिऑर्डर आया है। कॉलेजिया लड़के (शहर के कॉलेज में पढ़नेवाले बच्चे) जब गाँव लौटते थे तो बेल बॉटम पहने विनोद खन्ना जैसे शहरी दिखते थे। क़मीज़ की कॅालर ख़ूब लंबी, हाई हील के जूते, पतलून की कमर से ज़्यादा मोहरी, लंबे बाल, काला चश्मा और गाँव में अपने से बड़े लोगों को प्रणाम करना उन दिनों का फ़ैशन और बड़प्पन था। गाँव से बाहर कोई चार दिन भी रहकर वापस गाँव लौटता था तो अपने से बड़े समूचे गाँव के लोगों को प्रणाम कर-करके उसका आशीर्वाद कई दिनों तक लेता रहता था। 

सौभाग्य से उन दिनों उस गाँव में शिक्षा के प्रति बड़ी जागरुकता थी। धनी ग़रीब, बनिहार (दैनिक मज़दूर) सभी परिवारों के सभी बच्चे गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे। बनिहार से बनिहार परिवार का बच्चा भी बोरा-झोड़ा लेकर स्कूल ज़रूर जाता था। गाँव में ढूँढ़ने से भी कोई ऐसी बच्ची या बच्चा नहींं था जो स्कूल जाने से वंचित था। किसी दिन कोई बच्चा यदि स्कूल नहींं आता था तो मास्टर साहब चार बच्चों को उसके घर भेजकर टँगवाकर मँगवा लेते थे। 

अमीरी लाल के दो बेटे थे वो दोनों भी स्कूल जाते थे। बाबू ग़रीबनाथ और अमीरी लाल की आर्थिक सामाजिक स्तर में आकाश-पाताल मालिक-मज़दूर का अंतर था। मगर दोनों परिवारों के बच्चे पढ़ते गाँव की सरकारी स्कूल में ही थे। स्कूल भले ही एक था मगर परिवारिक स्थिति का अंतर बच्चों में बड़ा स्पष्ट दिखता था। धनी परिवारों के बच्चे नहा-धोकर साफ़-सुथरे बालों में तेल कंघी किये सफ़ेद शर्ट नीली पैंट का स्कूल ड्रेस पहनकर आते थे। वे शांत और शालीन दिखते थे। ग़रीब परिवारों के बच्चे फटे-पुराने कपड़ों में बेतरतीब बाल बिखराये स्कूल जाते थे, जैसे सोकर उठे और स्कूल आ गये हों। संपन्नता एवं ग़रीबी के बीच उस फटेहाली में भी एक मध्यम वर्ग था। उनके बच्चे नहा धोकर बालों में तेल कंघी तो कर लेते थे मगर उनके कपड़े फटे-पुराने एवं मैले ही रहते थे। नहाने और धोने का दो ही साबुन उन दिनों वहाँ के स्थानीय शहर बाज़ार में उपलब्ध था। नहाने का लाइफबॅाय और कपड़े धोने का सनलाइट। वह भी हर किसी को नहींं। लोग लाइफबॅाय साबुन ख़रीदते थे और उसी से नहाने धोने दोनों का काम कर लेते थे। ग़रीब तो ग़रीब धनी परिवारों की महिलाएँ भी गाँव की ही चिकनी मिट्टी से अपने बाल मींजती (धोती) थी। शैंपू तो था ही नहींं। 

प्राईमरी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे तो आख़िर बच्चे ही होते हैं। किसी धनी के हों या बनिहार के, मालिक के हों या मज़दूर के, अपनी परिवारिक दशा का उन्हें ख़ूब आभास होता है मगर मगर जब साथ पढ़ते हों तो कहीं न कहीं उनमें बराबरी और प्रतियोगिता का एहसास भी पनपने लगता है। ग़रीब दबे-कुचले परिवारों के बच्चों को ये अहसास हो जाता है कि वे धनिकों के बच्चों से सिर्फ़ सम्पत्ति के मामले में ही कम है वरना बुद्धि विद्या पढ़ाई-लिखाई खेल-कूद एवं अन्य कई मामलों में वे भी किसी धनिक के बच्चों से कम नहींं हैं वे उन्हें चुनौती दे सकते हैं। 

अँग्रेज़ी माध्यम प्राइवेट स्कूलों का चलन शायद इसीलिए हुआ होगा ताकि सामान्य ग़रीब बच्चे धनी परिवार के बच्चों को मानसिक बौद्धिक या शारीरिक चुनौती न दे सकें। महाभारत के रंगभूमि में भी शायद इसीलिए प्रतिभागी के लिए राजा या राजकुमार होना ज़रूरी था। उन दिनों गाँव देहातों में अँगरेज़ी माध्यम प्राईवेट स्कूलों का प्रचलन नहींं था। सरकारी स्कूलों में एबीसीडी छठी कक्षा में सिखाई जाती थी। 


परिवर्तन सृष्टि और समाज दोनोंं का नियम है। मगर इस बार जब समय बदला तो मात्र लगभग तीस वर्षों में ही स्थितियाँ और परिस्थितियाँ दोनों बड़ी तेज़ी से बदलीं। ऐसा लगा लगा जैसे कोई युग बदल गया हो। सूचना एवं संचार क्रांति में विप्लवी बदलाव हुआ। पोस्टकार्ड और अंतरदेशी पत्रों पर चिट्ठी लिखकर जवाब के लिए महीनों इंतज़ार करने वाली पीढ़ी के हाथ में पहले पेजर और फिर हरदम जेब में रहने वाला मोबाईल हथफ़ोन आ गया। हाथ में फ़ोन आना ही अपने आप में एक बहुत बड़ी क्रांति थी मगर यह क्रांति वहीं नहींं थमी, धीरे-धीरे यह स्मार्ट होती गई और इक्कीसवीं शताब्दि के प्रथम दशक पूरा होते-होते पूरी तरह स्मार्ट हो गई। मैसेज, ईमेल, व्हाट्सअप, फोटो विडियो चैट सबकुछ आम आदमी की मुट्ठी में आ गया। मन की गति से भी तेज़ अब सूचना और संचार की गति हो गई। 

कैमरा सुविधा अथवा पैसों के अभाव में जिनके दादाजी की तस्वीर और पिताजी की शादी की तस्वीर उपलब्ध नहींं थी वैसे करोड़ों लोगों के फ़ेसबुक स्टेटस बेफजूल कीड़े मकोड़े पशु-पक्षी बैगन-भिंडी की न सिर्फ़ तस्वीर बल्कि विडियो से भरी रहने लगी। 

ग़रीब बाबू परिवार के सभी बच्चे पढ़ लिखकर डॅाक्टर, इंजिनियर, छोटे-बड़े अफ़सर बनकर शहर में सेट हो गये। उनके दोनों चाचा रिटायर होकर शहरवासी हुए तो स्वर्गवासी भी वहीं से हुए। नौकरी करने वाले भाई भी अपने-अपने बच्चों के आस-पास ही कहीं रहने लगे वापस गाँव नहींं लौटे। दो भाई जो खाद डीज़ल की दुकान चलाते थे बंद करके दोनों दिल्ली चले गए। गाँव में ग़रीब बाबू एवं उनकी पत्नी की देखभाल के लिए शहर की प्रशिक्षित नर्स रहने लगी, जिसके पूरे परिवार को रहने के लिए दो रूम सेट का एक पूरा मकान मिला हुआ है। बाबू ग़रीबनाथ को पैसों की आज भी कमी नहींं है जितने चाहिए उससे ज़्यादा हर महीने आ जाते हैं। 

कमी थी तो सिर्फ़ उस बात की जो पीढ़ी दर पीढ़ी पता नहींं कई हज़ार वर्षों से सतत चली आ रही पपरंपरा और खेतीबाड़ी थी जो महज़ इन बीस-तीस वर्षों में ही जादुई रूप से अचानक बदल गई। 

दिनभर काम के बदले कुछ वर्षों तक पाँच सेर की जगह पाँच किलो की बनिहारी चली और समय के साथ धीरे-धीरे वह भी बंद हो गई। मज़दूरों का पलायन अचानक जो तेज़ हुआ तो बहुत तेज़ हो गया। खेत में काम करने के लिए मज़दूर मिलने बंद हुए तो खेती का काम भी लगभग बंद ही हो गया। ट्रैक्टर से खेत जुतने लगे हल-बैल विलुप्त हो गया। जिस दरवाज़े पर शाम को बीस-पच्चीस लोग बैठते थे वहाँ अब कौआ भी नहींं बैठता। फ़सल लहलहाने वाले खेतों में खरपतवार का साम्राज्य खड़ा हो गया। ग़रीब बाबू के दरवाज़े पर भी एक देशी गाय रह गई बाक़ी दर्जन भर बैल-भैंस जो दरवाज़े की शान बढाते थे अलोपित हो गये। कुत्ता भी अब एक ही रह गया था। जो हमेशा ग़रीब बाबू के साथ रहता था। वे कहीं जाते तो उनके साथ उनका कुत्ता भी जाता था और उनके साथ ही लौटता था। 

उधर अमीरी का बेटा जमीरी बहुत दिनों तक कठुआ, अमृतसर, लुधियाना, और न जाने कहाँ-कहाँ की फ़ैक्ट्रियों में मज़दूरी और ठेकेदारी करते-करते पैसा जमा किया और गाँव में घराड़ी का ढाई कट्टा ज़मीन ख़रीदकर उसमें दो मंज़िला पक्का मकान ठोक दिया। इस बीच बिहार के गाँव-गाँव तक सड़क एवं बिजली की स्थिति में सुधार हुआ तो शाम ढलते ही साइकिल मोटरसायकिलों की छीन-झपट, लूट-पाट और बदमाशी बंद हो गई। जमीरी शहर से पुरानी कार ख़रीद लाया और और गाँव में भाड़े पर चलाने लगा। इस धंधे में उसे नफ़ा हुआ तो हर साल एक-एक गाड़ी बढ़ाते-बढ़ाते छह कार और छह ऑटो का मालिक हो गया। कभी उसके पिता पाँच सेर धान के लिए ग़रीब बाबू के यहाँ बारह घंटे जान घिसता था। आज जमीरी के यहाँ बारह ड्राईवर हरदम उसके इशारे पर गाड़ी दौड़ाने के लिए स्टैंडबाई मोड़ में तैयार रहता है। शादी-ब्याह-गौना विदाई, पटना दरभंगा छपरा सीवान हर जगह उसकी गाड़ी जाती है। मगर उसका रहन-सहन बोल-चाल अभी भी वही मज़दूरी वाला ही है। चार बेटा है चारों शहर में नौकरी करता है। ख़र्च है नहींं। हर साल गाँव में ज़मीन लिखाने के किए बिकाऊ ज़मीन का पता करता रहता है। 

उधर ग़रीब बाबू का परिवार अब पहले जैसा संयुक्त और एकजुट नहींं रहा। चचेरे भाइयों के बच्चे गाँव की ज़मीन बेचकर गाँव छोड़ देना चाहते हैं। उन बिकने वाली ज़मीनों को ज़्यादातर ख़रीददार जमीरी या जमीरी के जैसे ही वे लोग होते हैं जिनके माता-पिता पहले भूमिहीन बंधुआ मज़दूर थे। जिनके पास खाने को नहींं था। गाँव के बड़े बुड्ढे इस बात से बड़े दुखी रहते हैं कि जिसके पास खाने को नहींं था उसके बच्चे हर साल ज़मीन ख़रीद रहे हैं और जिनके बाप-दादा ज़मींदार थे उनके बच्चे ज़मीन बेच रहे हैं। यही बात ग़रीब बाबू को भी बहुत सालती रहती थी। गाँव के लोग दो चेहरे नहींं रखते और शिष्टाचार में अपने मन की बातें नहींं दबाते। कहीं न कहीं बहाना ढूँढ़कर वे अपनी भड़ास बाहर कर ही देते हैं। 

अमीरी पुत्र जमीरी के हाथ में जब पैसा आया तो साथ में ख़ुराफ़ात भी आ गई। सोचने को वह ग़रीब बाबू का ऐहसान भी सोच सकता था जहाँ से उठकर वह यहाँ तक पहुँच सका मगर वह सोचता था ग़रीब बाबू ने उसके बाप का बहुत ख़ून चूसा है। अब समय आ गया है ग़रीब बाबू से उसका बदला लेना चाहिए। वह इस फ़िराक़ में रहता था कि कैसे ग़रीब बाबू का सब कुछ हथियाकर उसे ख़ाली हाथ कर दे जिस स्थिति में कभी उसका बाप अमीरी रहता था। हालाँकि अमीरी की दशा आज भी अच्छी नहींं थी, उसका छोटा बेटा कुछ तरक़्क़ी नहींं कर पाया इसलिए उसकी हमदर्दी छोटे बेटे के साथ थी जो जमीरी की घरवाली को पसंद नहींं था। बड़े बेटे की कमाई का अमीरी को कोई सुख नहींं था। छोटे बेटे के साथ पति-पत्नी आज भी अभाव की ज़िन्दगी ही जी रहे थे। 

अमीरी के साथ काम करने वाला ग़रीब बाबू का एक और जन था परना। वह काफ़ी निम्न दलित जाति का था। दलितों के नाम पहले ऐसे ही हुआ करते थे जिसका कोई अर्थ न हो और नाम से ही पता चल जाए कि उसका सामाजिक स्तर क्या है। सरकार ने इस पंचायत में मुखिया का पद बीस वर्षों तक अति निम्न दलितों के लिए सुरक्षित किया तो परना की पुतोह मुखिया का चुनाव जीत गई। जमीरी मैट्रिक पास था और देश भर के कई शहरों में घूम-घूम कर तेज़-तर्रार हो गया था। उसने परना के बेटे सुखारी से दोस्ती गाँठ ली और पर्दे के पीछे से मुखियाई करने लगा। उसने सुखारी को समझा दिया कि तू अनपढ़ आदमी है तू पैसे नहीं कमा पायेगा। इसलिए मेरे बताये हुए रास्ते से होने वाली कमाई में बीस मेरा अस्सी तेरा। 

जमीरी जो पहले कभी बाबू ग़रीबनाथ के दरवाज़े पर नहींं जाता था अब दिन में दो बार जाकर उन्हें प्रणाम करने लगा। ग़रीब बाबू को सुबह शाम प्रणाम करने के पीछे जमीरी का मक़सद उनका आदर नहींं बल्कि उन्हें चिढ़ाना था। वह जब तक वहाँ बैठता तबतक परना के बेटा और पुतोह का गुणगान करके ग़रीब बाबू को चिढ़ाता और उनका ख़ून जलाता रहता था। ग़रीब बाबू न चाहते हुए भी हाँ-हाँ करते रहते थे। परना आज भी ग़रीब बाबू को अपना मालिक ही समझता था मगर जमीरी ने सुखारी को ग़रीब बाबू के विरुद्ध भड़का दिया। भूले-भटके गाँव के लोग जो ग़रीब बाबू के दरवाज़े पर उनसे बातचीत करने चले जाते थे। एक-एक करके जमीरी ने सबको अपनी बातों में उलझाकर उससे ग़रीब बाबू का दरवाज़ा छुड़वा दिया। नर्स के कान भी भर दिए थे, वह भी नौकरी छोड़कर जाने की बात करने लगी अंततः अपना तनख़्वाह बढ़वाकर मानी। 

हर जगह दाँव लहाने के बाद अब जमीरी की कोशिश थी कि ग़रीब बाबू को अपने उन बच्चों के विरुद्ध भड़का देना जो उन्हें पैसे भेजते थे। 

“पैसे भेज देने मात्र से ही पुत्र का कर्तव्य थोड़ी न पूरा हो जाता है। छुट्टियों में गाँव आना और माँ-बाप को देखकर जाना भी ज़रूरी होता है।” 

“बात तो तुम सही कहते हो जमीरी।” 

शुरू-शुरू में जमीरी को कुछ सफलता भी मिली मगर ग़रीब बाबू भी अनुभवी आदमी थे। बात बिगड़ती उससे पहले सँभल गये। अब तोड़ने और भड़काने के लिए कुछ नहींं बचा तो उसकी नज़र ग़रीब बाबू के कुत्ते पर पड़ी जो ग़रीब बाबू का बड़ा वफ़ादार था, अकेलेपन का साथी और जीने का सहारा भी। आदमी कभी-कभी कितना दुष्ट और संकुचित बुद्धि का हो जाता है। यही जमीरी जब बच्चा था तो ग़रीब बाबू अपने बच्चों के छोड़े हुए कपड़े, किताबें, उसे दिलवा देते थे। मैट्रिक परीक्षा की फ़ीस और पहली बार कमाने जा रहा था तो टिकट के पैसे भी ग़रीब बाबू ने ही दिये थे जो उन्होंने वापस नहींं लिये। यह बात जमीरी को ख़ूब याद थी। मगर इसे वह ग़रीब बाबू की दयालुता या मदद नहींं मानता था। इसी गाँव में उसे किसी अन्य से कोई शिकायत नहींं थी मगर ग़रीब बाबू को वह अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता था और मन में पेंच इतना कि ऊपर से प्रणाम करने भी जाता था। गाँव में ऐसे लोगों को लोग दो मुँहा साँप कहते हैं वह सचमुच दो मुँहा था। 

जमीरी ने अपने ऑटो ड्राईवर से ग़रीब बाबू के कुत्ते के लिए शहर से बढ़िया बिस्कुट मँगवाया। दूसरी सुबह जब वह ग़रीब बाबू को प्रणाम करने गया था जेब में बिस्कुट भी लेता गया। कुत्ता उसे मुख्य गेट पर ही दिख गया। उसने खाने के लिए कुत्ते को बिस्कुट दिया। कुत्ते ने पता नहींं क्या सोचकर बिस्कुट को सूँघा और छोड़कर आगे भाग गया। जमीरिया को कुत्ते के इस व्यवहार पर बड़ा ग़ुस्सा आया। उसने कुत्ते के कई ख़ानदान को गरियाते हुए बोला, “साले यह स्पेशल बिस्कुट है तेरे ख़ानदान में किसी ने देखा नहींं होगा और तुझे यह महकता है सूँघकर छोड़ दिया? चलो देखता हूँ देख लूँगा तुझे।” उस दिन वह ग़रीब बाबू को प्रणाम किये बिना वहीं से लौट आया। दूसरे दिन वह कुत्ते के लिए कुछ हड्डियाँ लेकर गया। कुत्ता शाकाहरी तो था नहींं हड्डियों को सूँघा और चबाने लगा। अमीरी को लगा उसका दाँव लह गया है। बड़े-बड़े पुराने वफ़ादार पढ़े-लिखे आदमियों को जब उनके ख़ेमे से अपने ख़ेमे में ले लिया तो यह कुत्ता क्या चीज़ है। हड्डी फेंको तलवा चटवाओ। मगर हड्डियाँ निपटाने के बाद कुत्ता जमीरी से पहले जाकर ग़रीब बाबू की कुर्सी से सटकर बैठ गया। जैसे ही जमीरी वहाँ पहुँचा कुत्ता ज़ोर-ज़ोर से जमीरी पर भौंकने लगा जैसे वह ग़रीब बाबू से जमीरी की कोई नालिश कर रहा हो। कह रहा हो मालिक यह आदमी आपका शत्रु है, इससे सावधान रहना। ग़रीब बाबू आश्चर्य चकित थे आज उनके कुत्ते को क्या हो गया मगर वे इतने नासमझ भी नहींं थे उन्हें अनुमान हो गया कि कुत्ते के साथ जमीरी ने कुछ न कुछ किया है। 

जमीरी भी कुत्ते की भौंक से भीतर ही भीतर डर गया। वह जो कुछ भी सोचकर आया था सब कुछ भूल गया, चुपचाप वापस जाने लगा। कु्त्ता इतने पर भी शांत नहींं बैठा जमीरी के पीछे भौंकते हुए गेट के बाहर सड़क तक गया लगातार भौंकता रहा जैसे कह रहा हो दफा हो जा कमीने, मुझे बिना पेंदीवाला दलबदलू आदमी समझा है क्या? जो तेरी चुपड़ी बातें और हड्डियों के लालाच में अपने पुराने साथी का साथ छोड़कर नये लंपट का साथ पकड़ ले। या वैसा धूर्त, कुटिल और बर्बर आदमी समझा है जो किसी खल का गुणगान केवल इसलिए करता है जिससे किसी सभ्य भलेमानुष को चिढ़ाया या नीचा दिखाया जा सके। 

मैं कुत्ता हूँ वफ़ादारी मेरे गुणसूत्र में है। चल दफ़ा हो दुबारा यहाँ नज़र न आ जाना। 

जमीरी अपमानित होकर डर के मारे तेज़ क़दमों से भागा जा रहा था। कोई दो सौ मीटर जाकर उसने पीछे मुड़कर देखा। कुत्ता अभी भी वहीं खड़ा भौंक रहा था भौंकने की आवाज़ यहाँ तक आ रही थी। 

“भौंऽह् . . . भौंऽह् . . . भौंऽभौंऽभौंऽभौंऽ भौंऽह् . . .”

“भौंऽह् . . . भौंऽह् . . .” 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सम्पादकीय प्रतिक्रिया
कहानी
सांस्कृतिक आलेख
कविता
किशोर साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
दोहे
बाल साहित्य कविता
नज़्म
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में