स्वारथ लागि
सुभाष चन्द्र लखेड़ाशुक्ल जी से मुलाक़ात यही कोई दो महीने पहले हुई। वे बालकनी में धूप सेक रहे थे और मुझे अपने फ़्लैट के लिए उधर से जाना पड़ता है। सन् 1933 में जन्मे शुक्ल जी इधर अपने बेटे-बहू के साथ रहते हैं। शुरूआत में तो मुलाक़ात दुआ-सलाम तक रही लेकिन बाद में जब मुझे पता चला कि वे बीते वक़्त में गीत भी लिखते रहे तो मेरी उनमें दिलचस्पी बढ़ती गई। ख़ैर, अभी सप्ताह पहले वे मुझे फिर बालकनी में मिले तो मैं उनसे बतियाने लगा। वहीं रेलिंग के सहारे खड़े-खड़े मैंने उनसे उनके एक गीत के कुछ छंद सुने। उस दिन मैंने उनसे आग्रह किया कि वे कभी शाम को आ सकें तो मुझे अच्छा लगेगा। सौभाग्यवश, कल वे हमारे फ़्लैट में आए तो यही कोई दो घंटे तक हम पति-पत्नी उनके गीतों का आनंद लेते रहे। बहरहाल, बाद में वे बातचीत के दौरान अपनी स्वर्गीय पत्नी की बात करने लगे जिनका देहांत 4 वर्ष पूर्व हुआ था। उनका कहना था कि पत्नी के स्वर्गवास के बाद उनकी जीने की चाह समाप्त सी हो गई है। मुझे उनके पत्नी-प्रेम को जानकर बेहद सुखद अनुभूति हो रही थी लेकिन जब उन्होंने इस चर्चा को आगे बढ़ाया तो मुझे "सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥" का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया। उन्होंने बताया कि अपने वैवाहिक जीवन के दौरान उन्होंने नौकरी करने और गीत लिखने के अलावा कभी कुछ नहीं किया। उनकी गृहस्थी का सारा भार उनकी पत्नी उठाती रही। खाना बनाना, कपड़े धोना, घर की सफाई, बच्चों की देखभाल, मेहमाननवाज़ी, और घरेलू सामान की ख़रीद आदि सभी कुछ उनकी पत्नी किया करती थी। अफ़सोस तो मुझे तब हुआ जब वे सगर्व यह बता रहे थे कि उनके जूतों पर पॉलिश करने का कार्य भी उनकी पत्नी किया करती थी। इसके बाद वे जो कुछ बोले, मैं उसे सुन न सका क्योंकि मैं सोचने लगा कि उनकी जो तस्वीर कुछ देर पहले तक मेरे मन में थी, उसे वे अब गंदला करते जा रहे हैं।
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