मतलब के मित्र

01-01-2023

मतलब के मित्र

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 220, जनवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

कुछ लोगों का स्वभाव देखकर मुझे गाहे-बगाहे सन् 1969-1970 के दौरान घटी एक घटना याद आ जाती है। उस दौरान में देहरादून में श्री गुरु राम राय पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में एम.एससी. का छात्र था। मेरे जैसे अनेक छात्र जो रेलवे स्टेशन की दूसरी तरफ़ के इलाक़ों में रहते थे, वे कॉलेज में रेलवे के प्लैटफ़ॉर्म से होकर जाया करते थे। मैं भी ऐसे छात्रों में से था। 

रेलवे स्टेशन पर तैनात कर्मचारी ऐसे छात्रों को पहचानते थे। फलस्वरूप, हमें प्लैटफ़ॉर्म टिकट नहीं लेना पड़ता था। ख़ैर, एक दिन जब मैं प्लैटफ़ॉर्म से होकर गुज़र रहा था, मैंने देखा कि हरिद्वार में अध्ययन करने वाले मेरे दो स्कूली मित्र टिकट निरीक्षक और एक पुलिस के सिपाही की गिरफ़्त में हैं। मैं तुरंत उनके पास पहुँचा तो टिकट निरीक्षक ने बताया कि ये अभी दिल्ली मसूरी एक्सप्रेस से उतरे हैं और इनके पास टिकट नहीं हैं। 

मैंने टिकट निरीक्षक महोदय को किसी तरह से समझा-बुझाकर शांत किया और उन्हें लेकर वापस प्लैटफ़ॉर्म के उस दरवाज़े से बाहर निकला जहाँ से उन्हें विकास नगर के लिए बस पकड़नी थी। दरअसल, हम तीनों उस दौरान विकास नगर में रहते थे। 

बहरहाल, जैसे ही हम दरवाज़े से बाहर आए तो उनमें से एक दूसरे से बोला, “चलो, बस पकड़ते हैं; इसकी बातें तो कभी ख़त्म नहीं होंगी।” 

यह सुनकर मैंने तुरंत हँसते हुए कहा, “पुलिस वाले को बुलाऊँ?” तो वह खिसियाते हुए बोला, “नहीं, ज़रूरी काम है, इसलिए यह मुँह से निकल गया।” 

ख़ैर, उसके बाद भी ज़िंदगी में ऐसे लोग अक़्सर मिलते रहते हैं जो काम निकल जाने के बाद “मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं” गाने की याद दिलाते रहते हैं। 

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