अगर तुम मिल जाओ 

01-02-2022

अगर तुम मिल जाओ 

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 198, फरवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

अख़बार में छपा यह समाचार हृदय विदाकर था। मेरे ही क्षेत्र के युवक और युवती ने कल आत्महत्या कर अपने प्यार की क़ीमत चुका दी थी। सोच रहा हूँ कि यूँ आत्महत्या करना तो कोई बहादुरी नहीं है। वे चाहते तो ज़माने से लड़ कर अपने प्यार को शादी के पवित्र बंधन में बाँध सकते थे। फिर ख़्याल आया उन खाप पंचायतों का जिन्होंने बीते वर्षों में कई ऐसे प्रेमी जोड़ों को मौत के घाट उतारा है। 

मेरे जैसे लोग अख़बार पढ़ते समय थोड़ा-बहुत झुँझलाते तो ज़रूर हैं किन्तु इस स्थिति को बदलने के लिए हम कभी आगे नहीं आते। मैं अपनी रीढ़ की हड्डी के बारे में सोच रहा था और उधर पड़ोसी का युवा बेटा घर से निकलते हुए गुनगुना रहा था—’अगर तुम मिल जाओ, ज़माना छोड़ देंगे हम . . .’ 

सोच रहा हूँ कि उसे आत्महत्या करने से कैसे रोका जाए? 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु
स्मृति लेख
लघुकथा
चिन्तन
आप-बीती
सांस्कृतिक कथा
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
व्यक्ति चित्र
कविता-मुक्तक
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में