अपने-अपने मंदिर  

01-11-2021

अपने-अपने मंदिर  

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 192, नवम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

ऑस्ट्रेलिया की  'द यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिडनी' से इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद जब कुंदन शाह का बेटा अर्जुन शाह पाँच वर्ष बाद स्वदेश लौटा तो महीना बीतते-बीतते  कुंदन शाह को उसके रंग-ढंग अखरने लगे। ऑस्ट्रेलिया जाने से पहले जो अर्जुन रोज़ सुबह अपनी सोसाइटी के मंदिर जाता था, इधर पिछले तीस दिनों में वह कभी सोसाइटी के मंदिर में नहीं गया। उन्हें यह देख भी अचरज होता था कि अब उनका बेटा ग़रीब लोगों के प्रति बहुत अधिक मेहरबान हो गया था। ऑस्ट्रेलिया से लौटने के बाद उसने अपनी सोसाइटी के सफ़ाई कर्मियों को समझाया कि झाड़ू लगाते समय उन्हें अपने मुँह और नाक को महीन सूती कपड़े से ज़रूर ढकना चाहिए अन्यथा उन्हें साँस की तकलीफ़ होगी। चार-पांच बार वे उसके साथ बाज़ार गए तो वह लोगों को वहाँ भी स्वच्छता का पाठ पढ़ाने लगा। 

तीन दिन पहले वह पास के एक अंध विद्यालय में गया और पूरे पाँच हज़ार रुपये ख़र्च कर आया। ख़ैर, आज सुबह उसे कुंदन शाह ने पूछा, "तुम ऑस्ट्रेलिया से आने के बाद एक दिन भी मंदिर नहीं गए। क्या तुम अपनी संस्कृति को विदेश जाकर भूल चुके हो?"

अपने पापा के सवाल को सुनकर अर्जुन मुस्कुराते हुए बोला, "नहीं पापा, मैं वहाँ जाकर कुछ भी नहीं भूला। दरअसल, मैं सिडनी में जिस जगह रहता था, उसके पास कोई मंदिर नहीं था। मैंने मनन किया कि ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? मेरे दिमाग़ में यकायक ख़्याल आया कि क्यों न मैं अपने दिल को ही अपना मंदिर बना लूँ। उसी वक़्त मैंने उसमें अपने आराध्यदेव को प्रतिष्ठित कर दिया। उसके बाद मुझे कभी मंदिर जाने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई क्योंकि मेरा मंदिर तो अब हमेशा मेरे साथ रहता है।"

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