एक ही सवाल

15-08-2022

एक ही सवाल

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

उनकी इस सोच वाले लोग आपको कहीं भी, किसी भी देश के गाँव, क़स्बे, नगर और महानगर में मिल सकते हैं बशर्ते आप उनमें दिलचस्पी रखते हों और आप उस भाषा को जानते हों जिसमें वे अपनी बात बता सकते हैं। वे आपको नयी दिल्ली से लेकर वाशिंगटन डी सी में तक दिखते हैं लेकिन आप उन्हें सामने देखते ही कन्नी काट लेते हैं। आप उनसे मिलकर अपना वक़्त भला क्यों जाया करना चाहेंगे? आपको तो बहुत से काम हैं। आपको तो वक़्त पर ऑफ़िस पहुँचना है। आपको आज ही अपनी अधूरी कहानी पूरी करनी है। आपको तो किसी बड़े जलसे में ख़ुद बोलना है या दूसरे को बोलते सुनना है। आपको तो किसी संतरी या मंत्री से मिलना है। आपको तो एक ऐसा ज़रूरी काम करना है जिससे आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित और साफ़-सुथरा भविष्य मिल सके। 

ख़ैर, मुझे लगा कि मुझे इनसे मिलना चाहिए। अपने स्वार्थ के लिए ही सही, मैं एक बार समझ तो लूँ कि ये सब क्या सोचते हैं? लेखक हूँ, मुझे लिखने के लिए मसाला मिल जायेगा और इन्हें अपनी बात सुनाने का मौक़ा मिल जाएगा। मैं इनसे दिल्ली से लेकर वाशिंगटन डी सी तक, बहुत सी जगहों पर मिला हूँ। इनके मज़हब अलग-अलग है और ये अलग-अलग भाषा बोलते हैं किन्तु इन सभी का एक ही सवाल है, “दुनिया के ऐसे सभी लोग जिनके पेट भरे हुए हैं, वे सदियों से कभी ज़मीन के एक टुकड़े के बहाने तो कभी मज़हब के बहाने तो कभी अपनी विवादास्पद सीमा को तय करने के बहाने एक दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ते चले आ रहे हैं। आज भी एक, दूसरे पर फ़तह हासिल करने के लिए वे अरबों-खरबों रुपया पानी की तरह बहा रहे हैं। वे एक दूसरे का विनाश करने के लिए नए-नए हथियार और तरीक़े अपना रहे हैं। 

"अगर इन सभी को अपने हमवतन लोगों की इतनी ही परवाह है तो ये भूख, बीमारी और ग़रीबी के ख़िलाफ़ मिलकर जंग क्यों नहीं लड़ते हैं? हमारे जैसे लोग तो दुनिया के सभी मुल्कों और सभी मज़हबों में भारी संख्या में मौजूद हैं।” 

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