अंधा प्रेम

01-04-2022

अंधा प्रेम

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“प्रिय! तुम दुनिया की सबसे सुंदर औरत हो! ईश ने तुम्हें, तुम्हारी देह को फ़ुरसत से गढ़ा है। तुम्हारा चेहरा, तुम्हारा माथा, तुम्हारे नाक, कान और ओंठ और तुम्हारे केश-सभी एक से बढ़कर एक।” 

वर्षों से वह रोज़ ऐसा कुछ अपने पति से सुनते आ रही थी। उसे भी यह यक़ीन हो चला था कि वह बेहद ख़ूबसूरत है। यह वक़्त का वह दौर था जब इंसान के पास स्वयं को निहारने के लिए दर्पण नहीं होते थे। हाँ, यह बात बड़े-बुज़ुर्ग तब भी कहते थे कि प्रेम अंधा होता है। 

बहरहाल, एक दिन किसी इंसान ने दुनिया का पहला दर्पण बनाया। फिर कुछ ही वर्षों में दर्पण आम लोगों तक पहुँच गए। एक दिन जब वह अपने मायके में थी, उसका भाई उसके लिए एक दर्पण ख़रीद लाया। उसने जब ख़ुद को दर्पण में निहारा तो वह हतप्रभ रह गई। इस सत्य को आज वह पहली बार समझी थी कि प्रेम सचमुच अंधा होता है। 

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