सिले होंठ

15-09-2022

सिले होंठ

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 213, सितम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

संयोगवश उसका नाम भी पन्ना था लेकिन काम था अपनी झुग्गी-बस्ती के पास की कोठियों में झाड़ू-बर्तन करने से लेकर साहब लोगों के बच्चों की देखभाल करना। उसके पास पति नाम का एक जीव था लेकिन वह सवेरे निकल जाता था और देर रात दारू पीकर लौटता था। उसका सबसे बड़ा धन उसका चार साल का बेटा था जो आजकल निमोनिया की गिरफ़्त में था और वह उसकी पसलियों पर शहद लगाकर उसके ठीक होने की उम्मीद पाले थी। आजकल उसे पास की एक कोठी में झाड़ू-बर्तन के अलावा कभी-कभी मालकिन के डेढ़ वर्षीय बच्चे की देखभाल भी करनी पड़ती थी। विशेषकर तब, जब मालकिन तीन-चार घंटों के लिए किसी काम से बाहर जाती थी। आज भी उसे इसी वजह से रुकना पड़ा था। 

वह मालकिन से यह न कह सकी कि उसके बेटे की तबीयत ख़राब है। उसने सोचा मालकिन के लौटने पर वह आज उनसे सौ रुपये लेगी और बच्चे को किसी सस्ते डॉक्टर को दिखा देगी। मालकिन लौटी तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। 

उसने झिझकते हुए जो सौ रुपये माँगे थे, वे भी उसे मिल गए। तेज़ क़दमों से वह घर पहुँची तो देखा कि उसका बेटा उसकी मजबूरी को समझते हुए उसके घर से हमेशा के लिए चला गया था। उसके सिले हुए होंठ अब खुल गए थे और वह दीवार पर सर पटक-पटक कर रो रही थी। 

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