खटमल

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 198, फरवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

चालीस वर्ष पहले हम दोनों दिल्ली में आजू-बाजू में किराये पर रहते थे। उसे पैसे वालों से सख़्त नफ़रत थी। उसका मानना था कि दूसरों का शोषण किये बिना कोई धनवान नहीं हो सकता है। यदा-कदा वह ग़ुस्से में कहता था, “ये सब साले खटमलों की औलाद हैं। ग़रीबों ख़ून चूसकर पैसा बनाते हैं।” 

ख़ैर, फिर हम बिछुड़ गए। मैं मुंबई चला गया। चालीस वर्ष बाद दिल्ली में एक विवाह समारोह में मुलाक़ात हुई तो बातों ही बातों में उसने बताया कि उसके पास तीन फ़्लैट और चार प्लॉट हैं; घर में तीन कारें हैं और ग्रामीण सेवा रूट पर उसकी 10 गाड़ियाँ हैं। 

मैं उसकी तरक़्क़ी से ख़ुश तो था पर न जाने क्यों मुझे उसके शरीर से खटमल की बू आने लगी थी? 

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