सबक़

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 222, फरवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

वर्षों पुरानी बात है। मुझे एक विज्ञान वार्ता की रिकॉर्डिंग के लिए आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण सेवा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, नई दिल्ली जाना था। घर से निकला तो बस स्टैंड के पास एक भिखारी टकरा गया। उसने “भगवान आपका भला करे” का जुमला उछालते हुए मेरे आगे हाथ फैलाया तो मैंने उसे झिड़कते हुए कहा, “तुम्हें इन हाथों से कुछ काम करना चाहिए। यूँ कब तक हाथ फैलाते रहोगे?” 

ख़ैर, तभी एक बस आई और मैं उस बस में सवार हो गया। उस बस से मुझे सफदरजंग एयरपोर्ट उतरना पड़ा और फिर वहाँ से मैंने जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, नई दिल्ली जाने के लिए सड़क पार कर एक “थ्री व्हीलर” पकड़ा। यही कोई 10 मिनट बाद जब मैं नेहरू स्टेडियम पहुँचा और मैंने थ्री व्हीलर के चालक को किराया चुकाने के लिए जेब में हाथ डाला तो मैं समझ गया कि बस यात्रा के दौरान मेरी जेब कट चुकी थी। 

मैंने उस थ्री व्हीलर के चालक को थोड़ी प्रतीक्षा करने के लिए कहा और फिर मैं तेज़ी से अंदर गया और मैंने वहाँ मौजूद अपने एक मित्र डॉ. रवीन्द्र त्यागी जी से दस रुपये देने का अनुरोध किया। बाहर आकर जब मैं उस थ्री व्हीलर के चालक को उसका किराया चुका रहा था तो उस वक़्त मुझे महसूस हुआ कि वक़्त पड़ने पर हम सभी को कभी न कभी हाथ फैलाने पड़ सकते हैं। आप किसी भिखारी को भीख दें या न दें, लेकिन नसीहत देने की ग़लती न करें। 

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