जागते रहो
सुभाष चन्द्र लखेड़ाबचपन से चौकीदारों के 'जागते रहो' का नारा सुनने के बावजूद कुछ लोग ताउम्र इसका अर्थ नहीं समझ पाते हैं। अगर समझ पाते तो तेजेन्द्र जी की आज यह हालत न होती।
दरअसल, तेजेन्द्र जी अक़्सर अपने मित्रों से मज़ाक में कहा करते थे कि अगर रात में भी जागते रहेंगे तो भला सोयेंगे कब? काश उन्होंने सन् 1956 में बनी फ़िल्म 'जागते रहो' देखी होती तो वे किशोरावस्था में ही समझ जाते कि 'जागते रहो' का मतलब "सतर्क रहो" है। ख़ैर, क़िस्से को यूँ ही बेमतलब लंबा क्यों खींचा जाये जब सभी की दिलचस्पी यह जानने में हो कि तेजेन्द्र जी के साथ क्या हुआ?
दरअसल, कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए पिछले 25 मार्च से देश में जो लॉकडाउन शुरू हुआ था, एक सप्ताह पहले तक तेजेन्द्र जी उसका पूरी तरह से पालन करते रहे। वे बहुधा घर में ही रहते थे और यदि कभी बाहर गए भी तो मास्क पहना करते थे और सभी लोगों से, सड़क हो या दुकान, सभी जगह 2 मीटर की दूरी बनाए रखते थे। बहरहाल, मई के दूसरे हफ़्ते के दौरान उन्हें लगा कि यह सब बेफजूल है और कोरोना से बचने के लिए मास्क पहनना या एक दूसरे से दो मीटर की दूरी बनाए रखने का कोई लाभ नहीं। फलस्वरूप, उम्र के आठवें दशक में पहुँचे तेजेन्द्र जी ने एक झटके में लॉकडाउन के सारे बंधन तोड़ दिए और वे लापरवाही से सड़कों पर चहलक़दमी का लुत्फ़ उठाने लगे।
यह सब कल उनके बेटे ने बताया। उसने यह भी बताया कि इस वक़्त उसके पापा क्वारंटाइन में हैं लेकिन बीतते वक़्त के साथ उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही है।
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