आवाज़
सुभाष चन्द्र लखेड़ादुष्यंत बाबू आजकल अस्वस्थ चल रहे हैं—यह ख़बर मुझे एक मित्र से मिली। इससे पहले कि मैं आपको आगे कुछ बताऊँ, यह बताना उचित होगा कि दुष्यंत बाबू सन् 2007 में निदेशक के पद से सेवा-निवृत्त हुए थे। मुझे भी कुछ वर्ष उनके साथ कार्य करने का मौक़ा मिला था लेकिन बाद में मैं किसी दूसरे संस्थान में ट्रांसफ़र हो गया था।
ख़ैर, उनके यहाँ मेरा तीज-त्यौहार पर आना–जाना होता रहा। हाँ, पिछले सवा दो साल के कोरोना काल में उनके यहाँ मैं कभी नहीं गया। इधर जब से क़ोरोना के संक्रमण दर में गिरावट हुई है और सरकारी पाबंदियाँ हटी हैं, मैं भी लोगों से मिलने-जुलने लगा हूँ।
बहरहाल, मित्र ने जैसे ही मुझे दुष्यंत बाबू के अस्वस्थ होने की ख़बर बताई, मैंने तय कर लिया कि मैं उनके हालचाल पूछने ज़रूर जाऊँगा।
कल मौक़ा मिला और मैं उनसे मिलने चला गया। उनका निवास स्थान मेरे फ़्लैट से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर यहीं द्वारका, दिल्ली में है। उनका बेटा विवाहित है और वह आजकल अपने परिवार के साथ गुरुग्राम में रहता है। हाँ, दुष्यंत बाबू के साथ आजकल उनकी पत्नी के अलावा उनके तीसरे भाई का बेटा रहता है जो आईएएस की तैयारी कर रहा है।
उनके यहाँ जाने से पहले मैंने उन्हें फ़ोन कर दिया था। मैं पहुँचा तो वे दरवाज़ा खोले मेरा इन्तज़ार कर रहे थे। मैंने उन्हें प्रणाम किया और फिर उनका इशारा मिलने पर उनके सामने के सोफ़े पर बैठ गया।
मैंने जैसे ही उनसे उनकी तबीयत के बारे में पूछा, वे बोले, “मामूली बुख़ार या बदन दर्द होना इस उम्र में स्वाभाविक है लेकिन मेरी तो आवाज़ ही चली गई?”
उनसे यह सुनते ही मैं उन्हें अचरज से देखने लगा। अच्छी भली आवाज़ है उनकी और वे कह रहे हैं कि मेरी आवाज़ चली गई। मेरे चेहरे पर उपजे सवाल को समझते हुए वे गंभीर स्वर में बोले, “पवन! तुमने तो वह वक़्त ख़ूब देखा है जब मेरी आवाज़ को सुनते ही घर या बाहर, सभी जगह लोग भागते हुए आते थे। सेवा निवृत्त होने के बाद सब कुछ बदल गया और अब तो ऊँची आवाज़ में बोलने पर भी मेरी कोई नहीं सुनता।”
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