पैसा

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 187, अगस्त द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

सन् 1986 में उनसे तब मुलाक़ात हुई जब मेरे पिता जी मोतियाबिंद के ऑपरेशन के लिए नई दिल्ली के डॉ. राजेंद्र प्रसाद नेत्र विज्ञान केंद्र में भर्ती थे। वे भी वहाँ इसी सिलसिले में थे। उनकी उम्र यही कोई सत्तर वर्ष के आसपास रही होगी। वे अपनी आँखों का उपचार कराने आगरा से आए थे। उनको जो भी मिलने आता था, वह उनके लिए पुष्पगुच्छ लेकर आता था। उनके रहन-सहन, तौर-तरीक़ों और बातचीत से मैंने अंदाज़ा लगाया कि वे आर्थिक दृष्टि से संपन्न होंगे। 

ख़ैर, एक दिन मैंने बातचीत के दौरान अपने मन की बात उनसे कह दी। वे पहले तो हँसे और फिर सहज भाव से बोले, "बेटे, तुम्हारा सोचना सही है। जीवन में मुझे काफ़ी संघर्ष करना पड़ा किंतु अब मैं आर्थिक रूप से ख़ुद को संपन्न मानता हूँ। पैसा है लेकिन अब ये सब मुझे चिढ़ाता है।" 

मैंने सवालिया नज़र से उनको देखा तो वे मुस्कराते हुए बोले, "इंसान को मीठा और नमकीन, ये दोनों स्वाद आनंद देते हैं लेकिन मैं मीठा नहीं खा सकता क्योंकि मुझे मधुमेह है; नमक इसलिए नहीं खा सकता कि ब्लड प्रेशर है।”

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