चकोर की व्यथा 

01-12-2025

चकोर की व्यथा 

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

चकोर अक्सर इस बात को दोहराते रहते हैं कि इंसान को उदारता से ग़रीब लोगों की यथासंभव मदद करनी चाहिए। एक लेखक होने के नाते भी वे अक्सर कवि रहीम के इस दोहे का जब तब उल्लेख करते रहते हैं कि 
“जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम।”

बहरहाल, कल शाम चकोर सैर के दौरान पार्क में मिला तो कुछ उखड़ा-उखड़ा सा लग रहा था। दरअसल, लंबी मित्रता के चलते मैं चकोर के मनोभावों को कुछ कुछ समझने लगा हूँ। 

ख़ैर, कुशल क्षेम पूछने के दौरान जैसे ही मैंने कहा “और सब ठीक” तो चकोर नाराज़गी भरे स्वर में बोला, “ख़ाक ठीक होगा जब औलाद ही समझदार न हो।”

चकोर को चुप होते देख मैंने कहा, “ऐसा मत बोलो। तुम्हारे बच्चों जैसे बच्चे होना तो ईश्वर की बहुत बड़ी कृपा है।”

मेरी बात सुनकर चकोर बोला, “अरे जो बच्चे दुनियादारी न समझते हों, उन्हें तुम ईश्वर की कृपा कहते हो। बेटा कल मूक-बधिर बच्चों के एक आश्रम के लिए पाँच हज़ार रुपये दे आया तो बेटी ने सुना है किसी ग़रीब बच्चे की एक साल की पढ़ाई का ख़र्चा उठाने की ज़िम्मेदारी ली है। माना कि उन दोनों को वेतन अधिक हैं लेकिन कम से कम ऐसा करने से पहले मुझसे सलाह-मशवरा तो कर लेते।”

चकोर की बात सुनकर मैंने चुप रहना उचित समझा। मैं जानता हूँ कि चकोर जैसे लोग जैसा कहते हैं, वैसा करते नहीं। ये बात तो देश पर क़ुर्बान होने की करते हैं लेकिन अपने बच्चों को फ़ौज में जाने से रोकते हैं। 

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