कैसा होता है,समझ से बहुत दूर की बात है,
जब बच्चे थे तो टॉफ़ी, आईसक्रीम,
खिलौने, घूमने और न जाने कितनी बातों के,
स्वप्न बुनते थे।
क्या क्या खाने को ललचाते थे?
हलुआ,रसोगुल्ला, जलेबी आदि के नाम से–
ही लार टपकने लगती थी।
जाने कितने क्यों, किसे किसके लिये
फटी सी जेब में लिये घूमते थे,
हर बात को जानने, समझने की उत्सुकता,
कितने कितने कौतुहल दबाये फिरते थे।
जाने क्या हो गया? सारे सवाल,
जवान हुए चंद रुपये कमाने लगे
तो ज़िम्मेदारियों के चलते
स्वप्न स्वप्न ही रह गये।
सोचते रहे जब चार पैसे बचा लेंगे
तो
कभी जी भर कर केक, पेस्ट्री, पनीर खायेंगे,
होटल जायेगे, घूमेंगे, फिरेंगे –
वक़्त बदला
रुपये तो हाथ में आ गये,
पर ये क्या?
अब कुछ रुचिकर लगता ही नहीं,
जाने घूमने के सपने,
कौन सी आँधी उड़ा ले गई,
खाने का शौक़ जाने कहाँ हवा हो गया।
ये जो ’जी’ नाम का जीव है–
कहीं लगाने से भी नहीं लगता ।
सब खाना–सोना भी,
एक रस्म अदायगी सा हो गया