ठूँठ होती आस्था के पात सारे झर गये
डॉ. शोभा श्रीवास्तवठूँठ होती आस्था के पात सारे झर गये।
भावना की पोटली को कुछ लुटेरे हर गये॥
छेड़ती है ज़िंदगी अब बेसुरे से साज़ को,
क्यों दबा रखा है बोलो अनकही आवाज़ को।
पंछियों की जात तो उड़ने की ख़ातिर है बनी,
क्या मिलेगा छीन कर तुमको भला परवाज़ को।
क्यों भला कुछ लोग फिर भी काट उनके पर गये
भावना की पोटली को कुछ लुटेरे हर गये॥
छोड़ लम्हों की कहानी, तू सदी की बात कर,
आदमी था, आदमी है, आदमी की बात कर।
पोखरों में नीर निर्मल ढूँढ़ना बेकार है,
रेत से भीगी ज़मीं पर तू नदी की बात कर।
तर गए वो लोग जो ख़ुद को शिकारा कर गये।
भावना की पोटली को कुछ लुटेरे हर गये॥
अब बिसूरती चेतना को कोई संबल चाहिये,
आदमी की हर समस्या का कोई हल चाहिये।
जी रहे हैं लोग जैसे दिन गुज़रते जा रहे,
जीने के एहसास वाले कुछ मधुर पल चाहिए।
यूँ लगे जैसे थके राही फिर अपने घर गये,
भावना की पोटली को कुछ लुटेरे हर गये॥
ठूँठ होती आस्था के पात सारे झर गये।
भावना की पोटली को कुछ लुटेरे हर गये॥
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