अब उजड़े मत गुलशन कोई
डॉ. शोभा श्रीवास्तव
जीवन की आपाधापी में शेष नहीं आलंबन कोई
बाहर-भीतर जकड़ रहा है जैसे सबको बंधन कोई
मुसकाते हैं लोग मगर अंदर इतनी ख़ामोशी क्यों है
कहने को बातें हैं बेहद, है मन में पर उलझन कोई
रीते-रीते गागर लेकर आ चल अब अपने घर जाएंँ
बस्ती का पनघट कहता है लूट गया है सावन कोई
मौसम तो आते-जाते हैं पतझड़ हों या मधुमय पल
दिख जाता है ख़ार कहीं और कहीं महके चंदन कोई
इतराती फिरती है गोरी अब नदिया के तट पर हरदम
पहनाया है जिस दिन से प्रिय ने हाथों में कंगन कोई
हाथ मिलाते रहना साथी इक दिन मन भी मिल जाएगा
इक-दूजे की ख़ातिर अब मन में रखना ना अनबन कोई
कौन कहाँ कब ले जाएगा सुन आँखों से काजल तेरे
बच के रहना तोड़ न पाए अब सपनों का दरपन कोई
सोच समझ कर सौंप ज़रा तू उन हाथों में जीवन-बग़िया
जिन हाथों से फिर ख़ुशियों का अब मत उजड़े गुलशन कोई
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