धीरज मेरा डोल रहा है

01-12-2024

धीरज मेरा डोल रहा है

डॉ. शोभा श्रीवास्तव (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

सन्नाटा कुछ बोल रहा है। 
धीरज मेरा डोल रहा है। 
 
कोई रोको अँधियारे को, 
निगल रहा है उजियारे को। 
बस्ती-बस्ती ढूँढ़ रहे हो, 
आख़िर क्यों टूटे तारे को। 
 
चंदा देखो किरणें देकर, 
भेद नये कुछ खोल रहा है। 
धीरज मेरा डोल रहा है। 
 
जीवन की अब कथा अधूरी, 
कही-अनकही व्यथा अधूरी। 
राह सही जो दिखलाती थी, 
रह गई अब वह प्रथा अधूरी। 
 
छीन रहा है हमसे कोई, 
जो सबसे अनमोल रहा है। 
धीरज मेरा डोल रहा है। 
 
सूखी-सूखी अमराई है, 
बहकी-बहकी पुरवाई है। 
झीना-झीना चादर ओढ़े, 
बासंती ऋतु शरमाई है। 
 
नदियों में वह बात नहीं है, 
जिसमें मधुर किलोल रहा है। 
धीरज मेरा डोल रहा है। 

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