धीरज मेरा डोल रहा है
डॉ. शोभा श्रीवास्तव
सन्नाटा कुछ बोल रहा है।
धीरज मेरा डोल रहा है।
कोई रोको अँधियारे को,
निगल रहा है उजियारे को।
बस्ती-बस्ती ढूँढ़ रहे हो,
आख़िर क्यों टूटे तारे को।
चंदा देखो किरणें देकर,
भेद नये कुछ खोल रहा है।
धीरज मेरा डोल रहा है।
जीवन की अब कथा अधूरी,
कही-अनकही व्यथा अधूरी।
राह सही जो दिखलाती थी,
रह गई अब वह प्रथा अधूरी।
छीन रहा है हमसे कोई,
जो सबसे अनमोल रहा है।
धीरज मेरा डोल रहा है।
सूखी-सूखी अमराई है,
बहकी-बहकी पुरवाई है।
झीना-झीना चादर ओढ़े,
बासंती ऋतु शरमाई है।
नदियों में वह बात नहीं है,
जिसमें मधुर किलोल रहा है।
धीरज मेरा डोल रहा है।
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