आज फिर शाम की फ़ुर्क़त ने ग़ज़ब कर डाला

01-02-2025

आज फिर शाम की फ़ुर्क़त ने ग़ज़ब कर डाला

डॉ. शोभा श्रीवास्तव (अंक: 270, फरवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

2122    1122    1122    22
 
आज फिर शाम की फ़ुर्क़त ने ग़ज़ब कर डाला
चांद को पाने की हसरत ने ग़ज़ब कर डाला
 
रोशनाई न कभी काम मेरे आ पाई
खूं से लिक्खे थे जो उस ख़त ने ग़ज़ब कर डाला
 
आप माने न कभी लाख मनाने पर भी,
आपकी बस इसी आदत ने ग़ज़ब कर डाला
 
थे जो गुमनाम तो राहत हमें मयस्सर थी, पर
जब मिला नाम तो शोहरत ने ग़ज़ब कर डाला
 
सर्द रातों में क़यामत सी कहर गुज़री थी
उस पे सुब्हा की हरारत ने ग़ज़ब कर डाला
 
सोने-चाँदी के खनकते रहे ज़ेवर लेकिन
आपकी शोख़ मोहब्बत ने ग़ज़ब कर डाला
 
बन के फ़ौलाद हमें कुछ नहीं हासिल ‘शोभा’
एक बच्चे की नज़ाक़त ने ग़ज़ब कर डाला

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