बरगद की छाँव

15-04-2022

बरगद की छाँव

डॉ. शोभा श्रीवास्तव (अंक: 203, अप्रैल द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

पथराए रस्ते हैं, झुलस रहे पाँव। 
अकुलाया मन ढूँढ़े बरगद की छाँव॥
 
सन्नाटा बोल रहा, गलियाँ है मौन। 
बासंती रुत लेकिन कलियाँ है मौन॥
सूना-सूना पनघट, चुप है पायल, 
हिय की गगरी रीति, मनवा बेकल॥
 
शहरों की जकड़न में दिखते हैं गाँव
अकुलाया मन ढूँढ़े बरगद की छाँव॥
 
कागा संग डोल रही बगुलों की पाँत। 
दीपक किलोल करें, अब तम के साथ॥
दोहरेपन में उलझा जीने का ढंग, 
पग-पग तेवर बदले इंसानी रंग॥
 
भावों के जंगल में सूझे न ठाँव। 
अकुलाया मन ढूँढ़े बरगद की छाँव॥
 
मासूम मन की अब परछाइयाँ। 
लेती हैं रह-रहकर अँगड़ाइयाँ॥
गीतों में गुंजित हों करुणा के स्वर, 
बिखरेंगी जग में फिर रानाइयाँ॥
 
चल कर देखें अब नया कोई दाँव। 
अकुलाया मन ढूँढ़े बरगद की छाँव॥

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