ढूँढ़ रही हूँ अपना बचपन
डॉ. शोभा श्रीवास्तव
ढूँढ़ रही हूँ अपना बचपन गलियों में, चौबारों में।
तिरते हैं जो आँखों में, उन सपनों के गलियारों में।
माँ की लोरी, गोद पिता की, इठलाती अठखेली थी।
बचपन की हर बात निराली, बिल्कुल नई नवेली थी।
छम-छम करती पायल मेरे मन को बहुत लुभाती थी।
माँ कहती थी थिरकन मेरी, सबका मन हर्षाती थी।
बहता रहता वक़्त निरंतर, लाड़-प्यार के धारों में।
तिरते हैं जो आँखों में, उन सपनों के गलियारों में।
संगी साथी, खेल तमाशा, गुड्डा-गुड़िया वाले दिन।
त्योहारों के रंग में भीगे, वो मस्ती भरे निराले दिन।
पापा की थी राजदुलारी, माँ की आँखों का थी नूर।
समय का झोंका कर देता है पर क्यों इन ख़ुशियों से दूर।
ढूँढ़ रही है नज़रें उन लम्हों को आज नज़ारों में।
तिरते हैं जो आँखों में, उन सपनों के गलियारों में।
ओ आषाढ़ की पहली बारिश, लौटा दो बचपन मेरा।
काग़ज़ की वो किश्ती वाला, भीगा सा आँगन मेरा।
जीवन के संघर्षों से कुछ पल तो राहत मिल जाए।
मन बग़िया में नन्हे-नन्हे फूल ज़रा फिर खिल जाएँ।
आज भिगो दो बचपन की यादों वाली बौछारों में।
तिरते हैं जो आँखों में, उन सपनों के गलियारों में।
ढूँढ़ रही हूँ अपना बचपन गलियों में चौबारों में।
तिरते हैं जो आँखों में, उन सपनों के गलियारों में।
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