हुस्न पर यूँ शबाब फिरते हैं

01-03-2025

हुस्न पर यूँ शबाब फिरते हैं

डॉ. शोभा श्रीवास्तव (अंक: 272, मार्च प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

बहर: ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून महज़ूफ़ मक़तू
अरकान: फ़ाएलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
तक़्ती'‌अ: 2122    1212    22
 
हुस्न पर यूँ शबाब फिरते हैं
जैसे लब पे गुलाब फिरते हैं
 
वक्त यकसाँ कभी नहीं होता
अब गली में नवाब फिरते हैं
 
आप उलझे रहे सवालों में
हम तो लेकर जवाब फिरते हैं
 
शहर का है बदल गया मौसम
क्यों अकेले जनाब फिरते हैं
 
नेक राहों पे चलने वालों के
दरमियाँ ही सबाब फिरते हैं
 
कुछ तो है आपकी निगाहों में
आपके ही हुबाब फिरते हैं 
 
पीते हैं ग़म को लोग कुछ अक्सर
थाम कर जो शराब फिरते हैं
 
पन्नों में हर्फ़ हों मोहब्बत के
हम वो लेकर किताब फिरते हैं
 
वो अँधेरे से क्यों डरे ‘शोभा’
ले के जो माहताब फिरते हैं 

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