रात इठला के ढलने लगी है

01-08-2022

रात इठला के ढलने लगी है

डॉ. शोभा श्रीवास्तव (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

हमसफ़र जब से चंदा हुआ है, रात इठला के ढलने लगी है। 
भर के दामन में तारों के मोती, हौले हौले से चलने लगी है॥
 
हो रहा है मिलन चाँदनी से, सूर्य की पीतवसना किरण का। 
हट गया झीना झीना सा बादल साँझ के सुरमई आवरण का। 
जैसे अल्हड़ कुँवारे नयन में अनछुई प्रीत पलने लगी है। 
भर के दामन में तारों के मोती, हौले हौले से चलने लगी है॥
 
रात इठला रही है भला क्यों रातरानी भी महकी हुई है। 
जुगनुओं की चमक बढ़ रही है, रजनीगंधा भी बहकी हुई है। 
किसकी जादू का इतना असर है साँस की लय मचलने लगी है
भर के दामन में तारों के मोती, हौले हौले से चलने लगी है॥
 
हर तरफ़ रोशनी का सफ़र है मुँह अँधेरे का काला हुआ है। 
तुम हो छाए सनम जो हृदय में ज़िन्दगी में उजाला हुआ है। 
कसमसाती हुई याद अक़्सर अब तो करवट बदलने लगी है। 
भर के दामन में तारों के मोती, हौले हौले से चलने लगी है॥
 
हमसफ़र जब से चंदा हुआ है, रात इठला के ढलने लगी है। 
भर के दामन में तारों के मोती, हौले हौले से चलने लगी है॥

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ग़ज़ल
गीत-नवगीत
कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
नज़्म
कविता-मुक्तक
दोहे
सामाजिक आलेख
रचना समीक्षा
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में