चल संगी गाँव चलें
डॉ. शोभा श्रीवास्तवचल संगी गाँव चलें।
मन न लागे इस बिदेस में,
अब अपने ठाँव चलें।
चल संगी गाँव चलें।
गाँव की मिट्टी का टीला
अब मुझे याद आ रहा है।
माँ के हाथों वाला चीला
अब मुझे याद आ रहा है।
झूमता सावन का मौसम,
बारिशों की मस्त होली।
कच्ची सड़कों पर फिसलना,
दोस्तों की वो ठिठोली।
पोखरों में भर गया होगा,
सुनो बारिश का पानी।
आओ छेड़ें साथ मिलकर,
फिर वो बचपन की कहानी।
फिर सभी के रंग-बिरंगे
काग़ज़ों के नाव चलें।
चल संगी गाँव चलें।
दिख रहा जो दूर से बरगद,
वो मेरे गाँव का है।
लौट आऊँगा मैं एक दिन,
बात ये वह जानता है।
गोद को बरगद के अब तक,
एक पल भी मैं न भूला।
थाम कर इसकी जटाएँ,
झूलते थे ख़ूब झूला।
अब शहर के शोर से,
जाने क्यों मन घबरा रहा है।
चल चलें जहाँ बाँसुरी की धुन में
ग्वाला गा रहा है।
तक रही है राह कब से
बरगद की छाँव, चलें।
चल संगी गाँव चलें।
सच है अब गाँवों की रंगत
शहर सी होने लगी है।
जो थी क़ुदरत का करिश्मा
रंग कुछ खोने लगी है।
पर अभी भी है दिलों में,
प्यार ज़िन्दा आदमी के।
भूल नहीं पाया जहाँ कोई भी
जीने के सलीक़े।
मैं उपज उस माटी की हूँ
जिसकी गरिमा है निराली।
लहलहाती है फ़सल जहाँ,
झूमती है डाली-डाली।
उठ रहे हैं उस दिशा में
आज मेरे पाँव, चलें।
चल संगी गाँव चलें
मन न लागे इस बिदेस में
अब अपने ठाँव चलें
चल संगी गाँव चलें।
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