दोस्त, शब्दों के अन्दर हो!

15-02-2017

दोस्त, शब्दों के अन्दर हो!

महेश रौतेला

दोस्त, शब्दों के अन्दर हो
या शब्दों के बाहर हो,
हमारी मुलाक़ातों में
कितनी अब रौनक़ है?
खिड़की कहाँ खुलती है
दरवाज़ा कब लगता है?
हमारी मुलाक़ातों के
क़िस्से कब कहे जाते हैं?
धूप भी ओढ़ी जाती है क्या
ठंड कैसे बिछायी जाती है?
पर्यावरण की बातों में
पेड़ कितने उगाये जाते हैं?
घंटी हर विद्यालय की
पढ़ने को बजती है क्या?
खेत किसान का हर वर्ष
उपजाऊ रह पाता है क्या?
मुट्ठी में जनता है या
मुट्ठी से बाहर है,
धरती, ग़रीबी को
कहाँ तक बिछाया करती है?
कान सुनते हैं क्या
कहानी टूटे पंखों की,
या केवल उड़ानों का जिगर
जमा होता है कानों पर?

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
कहानी
ललित निबन्ध
स्मृति लेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में