अधरों की मौन पीर

01-08-2021

अधरों की मौन पीर

डॉ. शोभा श्रीवास्तव (अंक: 186, अगस्त प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

अधरों की मौन पीर
आँखों ने झेला है,
मन मेरा अकेला है।
दोपहरी, तेज धूप
निठुराई बेला है,
मन मेरा अकेला है।
 
अलसाई पाँखों की
आस अभी बाक़ी है
काया है जर्जर पर
साँस अभी बाक़ी है
 
जीवन ने तन-मन संग
खेल कैसा खेला है
मन मेरा अकेला है
 
अँधियारे को पीकर
सूर्य तो निकलता है
क्या जाने वो किसका
घर-आँगन जलता है
 
टूटी सी खटिया में
नींद का झमेला है
मन मेरा अकेला है
 
अँगनाई बोझिल सी
काँप रही शाखाएँ
जीवन रस सोख रहीं
पीड़ा की ज्वालाएँ
 
कहने को दुनिया में
ख़ुशियों का मेला है
मन मेरा अकेला है

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