मार्ग-श्रान्त

01-10-2022

मार्ग-श्रान्त

दीपक शर्मा (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

विद्यावती निझावन किस विभ्रंश घाटी में विचर रही थी? कहाँ थी वह? ये पर्दे उसने पहले कहाँ देखे रहे? कब देखे रहे? बयालीस साल पहले? या फिर पैंतालीस साल पहले? 

वह दरवाज़ा ढूँढ़ने लगी। सामने की दीवार में खिड़कियाँ थीं। पिछली दीवार से पलंग सटा था। दाईं दीवार में आलमारियाँ बनी थीं और बाईं दीवार में दो दरवाज़े थे। 

वह पहले आलमारियों की ओर बढ़ ली। उन्हें खोलना चाहा तो वे खुली नहीं। फिर उसने दरवाज़े़ का रुख़ किया। दरवाज़ा एक बरामदे में जा खुला। 

वहाँ दो आराम कुर्सियाँ रखी थीं। एक ख़ाली थी और दूसरी पर कोई बैठा था। वह ख़ाली कुर्सी पर जा बैठी। 

“आप?” बरामदे में अच्छा ख़ासा अँधेरा था। 

“नहीं पहचाना?” एक पुरुष स्वर के साथ एक हाथ उसके कन्धे पर आ टिका। 

“सुहास?” हाथों-हाथ उसने पुरुष का हाथ झपट लिया। 

“तुम्हारी गाड़ी बहुत देर से पहुँची?” पुरुष स्वर ने पूछा, ”तुम्हारा सामान कहाँ है?”

“अलमारियाँ मुझसे खुली ही नहीं? इसलिए ख़ाली आई हूँ।” 

“ख़ाली?” पुरुष ने अपना हाथ खींच लिया, ”हाथ में कुछ नहीं लाईं?”

“अपना कलेजा लाई हूँ।” वह हँसी, ”इसे ले लो . . .।”

लेकिन अगले ही पल उसने जाना दूसरी कुर्सी अब ख़ाली थी। 

“सुहास।” विद्यावती निझावन चिल्लाई और एक उन्निद्र बेसुधी में चल गई। 

♦     ♦     ♦   

“आज तो ग़ज़ब हुआ रहा बहूजी।” महरिन छोटी मालकिन, सुखदा निझावन, के पास हॉल में लपक ली, “पहली बेर ऐसे देखा है। मम्मीजी हमारी आहट सुनकर दीवार की घड़ी नहीं देखीं। अपने तकिए के नीचे रखी अपनी थैली नहीं टटोली। उठकर नहीं बैठीं। जैसी लेटी थीं, वैसी लेटी रहीं . . .।”

“बीमार को बीमार की तरह रहना ही चाहिए,” टीवी देख रही सुखदा निझावन मुस्कराई और उसके रिमोट कंट्रोल से खेलने लगी। 

“और उनका स्नान?”

विद्यावती निझावन अपने फालिज के बावजूद नहाने के बिना अन्न नहीं छूती थीं। और बिना कुछ खिलाए उन्हें उनके रक्तचाप और घुमड़ी की दवा नहीं दी जा सकती थी। 

“मैं देखती हूँ,” सुखदा निझावन ने रिमोट कंट्रोल हॉल में रखी बड़ी मेज़ पर टिका दिया। 

“आइए,” महरिन आगे-आगे दौड़ पड़ी। विद्यावती निझावन के कमरे के सन्नाटे ने उसे वाक़ई डरा दिया रहा। 

“मम्मी जी!” महरिन ने पुकारा। 

“ममा!” सुखदा निझावन ने सास का निश्चल कन्धा हिलाया। 

“सास अडोल लेटी रही। 

“ममा!” सुखदा निझावन चीख पड़ी। 

विद्यावती निझावन की बन्द आँखें थोड़ा हिलीं और उनमें बन्द आँसू नीचे बहने लगे। 

“नहाएँगी नहीं?” बहू खीझ गई। 

आँसू बहाकर वे क्या साबित करना चाहती थीं? 

बहू ध्यान नहीं रखती? 

क्या ध्यान नहीं रखती? समय पर उन्हें नहलाने के लिए महरिन उनके कमरे में भेज दी जाती है . . . नाश्ते के समय उन्हें नाश्ता भेजा जाता है . . . दोपहर के खाने के समय दोपहर का खाना . . . शाम की चाय के समय चाय के साथ दो थरेपटिन बिस्किट . . . रात के खाने के समय सूप के संग रात का खाना . . .

“ममा!” बहू ने सास का दायाँ कन्धा फिर डुलाया। 

“अपनी कुर्सी पर आइए, बैठिए!” महरिन ने विद्यावती निझावन की पहिएदार कुर्सी आगे-पीछे खिसकाई। 

दो साल पहले विद्यावती निझावन के फालिज ने उसके शरीर के बाएँ भाग को पूरी तरह से उसके बिस्तर पर ला चिपकाया था किन्तु योग्य डॉक्टर द्वारा निर्धारित दवा-दरमन के और पति की स्नेहमयी सेवा-टहल के बूते अब वह सहारा लेकर उठने-बैठने में सक्षम हो ही गई थी। और उत्साह-उत्साह में बेटा माँ के लिए तत्काल ऊँची क़ीमत वाली यह पहिएदार कुर्सी भी बाज़ार से उठा लाया था। 

“कौन? सुहास?” धीमी उसकी आवाज़ अशक्त उसकी देह के साथ काँपी। 

“आज बात कुछ और है,” महरिन पहिएदार कुर्सी उस कोने की दिशा में ठेलने लगी जहाँ वह रखी रहती थी, “आप बाबूजी को बुला लीजिए . . .।”

♦     ♦     ♦

अपनी थल-सेना के लेफ्टिनेंट-जनरल के पद से सेवानिवृत्त हो लेने पर गिरधारीलाल निझावन इन दिनों अपनी आत्मकथा लिखने की योजना के अन्तर्गत नियमित रूप से अपनी सुबह के चार घंटे एक सार्वजनिक पुस्तकालय में बिताया करते। 

“दिव्या!” मोबाइल पर सूचना मिलते ही पति, पत्नी के पास आ पहुँचे, ”दिव्या . . .”

विवाह के पहले ही दिन उन्होंने अपनी पत्नी के नाम का उपसर्ग पलट डाला था: विद्या को दिव्या बनाकर। 

विद्यावती निझावन तनिक नहीं हिलीं-डुलीं। 

“दिव्या!” एक कुर्सी खिसकाकर वे पत्नी की दाईं बाँह की बग़ल में बैठ गए और उसे सहलाने लगे, ”दिव्या, उठो। देखो, तुम्हें नहलाना है, भोजन कराना है, दवा खिलानी है . . . ”

“सुहास,” विद्यावती निझावन बुदबुदाई। 

“सुखदा यहीं है। बुलाऊँ उसे?”

“सुहास . . .”

“जाओ,” गिरधारी लाल निझावन ने महरिन को आदेश दिया, ”बहू को बुला लाओ . . . ”

“आप सुनिए तो,” महरिन हँस पड़ी, ”मम्मी जी कोई नाम ले रही हैं . . .”

“कौन चाहिए? दिव्या? आलोक?” गिरधारीलाल ने बेटे का नाम बोला। 

“सुहास . . .”

“सुनीति? सुनिधि?” इस बार वे अपनी जुड़वाँ पोतियाँ के नाम बोल दिए। 

“सुहास . . .”

“कौन चाहिए? दिव्या?” गिरधारीलाल निझावन के लिए वह शब्द निपट अनसुना अश्रुत रहा। 

“मम्मी जी बस इसी एक नाम की रट लगाए हैं . . .”

“मुझे बताओ, दिव्या। अपने जी.एल. को बताओ। कौन चाहिए?”

“सुहास . . .”

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