भनक
दीपक शर्मा
नहीं, बीणा को नहीं मालूम रहा . . .
जब भी उसकी बायीं दिशा से कोई कर्णभेदी कोलाहल उसके पास ठकठकाता और वह अपने बाएँ कान को ढँक लेती तो उसके दाएँ कान के परदे पर एक साँय-साँय क्यों चक्कर काटने लगती? अन्दर ही अन्दर! मन्द और मद्धम!
कभी पास आ रही किसी मधुमक्खी की तरह गुँजारती हुई . . .
तो कभी दूर जा रही किसी चिखौनी की तरह चहचहाती हुई।
नहीं, बीणा को नहीं मालूम रहा!
उसके विवाह के तदनन्तर वह साँय-साँय उसके अन्दर से आने की बजाय अब बाहर से क्यों धपकने लगी थी? तेज़ और तूफ़ानी!
मानो कोई खुपिया बाघ अपनी खोर से निकलकर उसकी ओर एकदिश धारा में अब लपका, तब लपका।
♦ ♦ ♦
उस समय भी लोको कॉलोनी के उस क्वार्टर में जैसे ही किसी एक सुपर-फ़ास्ट ट्रेन की तड़ातड़ तड़तड़ाहट ने उसे अपने बाएँ कान को अपने हाथ से ढँकने पर मजबूर कर रखा था और उसका दाहिना कान उस जान्तव चाप की चपेट में था जब उसके जेठ उसके मायके से आए एक टेलीफ़ोन-सन्देश की सूचना देने अपने लोको वर्कशॉप से उस लोको क्वार्टर पर दोपहर में आए थे—बीणा की माँ अस्पताल में दाख़िल है। पिछले दस घंटे में उसे होश नहीं आया है। बीणा के मायके वाले बीणा को बुला रहे हैं।
“तुम हमारे काम की चिन्ता न करो,” जेठानी ने उदारता दिखाई थी, “कौन जाने तुम्हें फिर अपनी माँ देखने को मिले, न मिले। तुम मायके हो आओ . . .”
बीणा और उसके पति को उसके जेठ-जेठानी ने अपने क्वार्टर का छोटा कमरा दे रखा था। बीणा के पति पिछले दो साल से रेलवे की भरती के इम्तिहान में बैठते रहे थे और फ़ेल हो जाते रहे थे। पैसे की तंगी को देखते हुए फिर पिछले साल उनकी शादी बीणा से कर दी गई थी ताकि घर में टेलीविज़न और स्कूटर जुटाया जा सके। बीणा अपने पाँच भाइयों की अकेली बहन थी और उसके बप्पा अभी डेढ़ वर्ष पहले ही एक सरकारी दफ़्तर की अपनी चालीस साल की ड्राइवरी से सेवानिवृत्त हुए थे। बीणा की माँ ने लोको कॉलोनी के उस क्वार्टर को रेलगाड़ियों की निरन्तर आवाजाही की धमक से पल-पल थरथराते हुए जब देखा था तो पति से विनती कर बैठी थी, “लड़की को इधर न ब्याहिए। रेलगाड़ियों की यह गड़गड़ाहट, लड़की का बायाँ कान भी बहरा कर देगी।” मगर बप्पा को लड़के की बी.ए. की डिग्री चकाचौंध कर देने में सक्षम रही थी और उन्हें दृढ़ विश्वास था कि वह डिग्री किसी रोज़ उनके दामाद को रेलवे क्लर्की ज़रूर दिला देगी।
“कौन?” एमरजेन्सी वार्ड के सत्ताइस नम्बर बेड से माँ बुदबुदाईं।
“जूजू,” कहते-कहते बीणा ने अपनी ज़ुबान अपने तालू से चिपका ली।
‘जूजू’ उसकी ख़रमस्ती का नाम था जो दस वर्ष पहले एक तपती दोपहरी में उसने माँ के साथ खेलते समय अपने लिए रखा था। उस दोपहर के सन्नाटे में जिस समय बप्पा अपनी ड्यूटी पर रहे और चटाई पर भाई सोए रहे, बीणा की बाँह अपनी गरदन से अलग कर माँ उठ ली थीं। इस भ्रम में कि बीणा भी सो रही थी। लेकिन बीणा जाग रही थी और उसने माँ का पीछा किया था और माँ उसे घर की बरसाती में मिली थीं। हिचकियाँ लेकर सुबकती हुईं। वह अपना मुख उनके कान के पास ले गई थी और आँधी बनकर उसमें हवा फूँकने लगी थी। “कौन है?” चौंककर माँ ने सिसकना छोड़ दिया था। ‘जूजू’ कहकर बीणा माँ से लिपट ली थी। “चल हट,” माँ हँस पड़ी थीं, “कैसे डरा दिया मुझे?” बीणा ने अपनी बाँह माँ की गरदन पर फिर जा टिकाई थी, “और तुम जो हरदम डराती रहती हो? जूजू आया, जूजू आया?” उनके छह भाई-बहनों को अपनी बात मनवाने हेतु माँ अक्सर ‘जूजू’ का हवाला दिया करती थीं। हँस रही माँ अकस्मात् रोने लगी थीं। ऐसा अक्सर होता था। माँ जब भी हँसतीं, बीच में ही अपनी हँसी रोक कर रोने लगतीं। बीणा के पूछने पर कहतीं, “चल हट। मैं रोई कब रही? ये आँसू तो हँसी के बढ़ जाने से आए रहे।”
वह चुप हो जाती।
♦ ♦ ♦
“कौन?” माँ के होंठ फिर हिले और एक कम्पन उन्हें झकझोर गया।
माँ की बेहोशी का यह चालीसवाँ घंटा था।
बीणा ने माँ का हाथ पकड़ लिया।
उसके दोनों कान एक साथ बज रहे थे।
चलन के विरुद्ध।
आहट पीछे से नहीं सामने से आ रही थी। चरपरी और तीक्ष्ण।
कड़ी और कठोर।
दुरारोह और दुर्बोध।
आगे ही आगे बढ़ती हुई।
माँ के बराबर आ पहुँचने।
“नहीं, नहीं, ” बीणा ने डरकर अपनी आँखें बन्द कर लीं।
माँ ने बचपन में उसे जो यमराज की कहानी सुनाई थी वही यमराज अपने उस रूप में सामने खड़े थे . . .
सुर्ख़ परिधान में . . .
लाल आँखें लिए . . .
भैंसे पर सवार . . .
हाथ में मृत्युफंदा . . .
गदा पर कपाल . . .
चार-चार आँखों वाले दो कुत्ते भी उसे दिखाई दिए जो माँ के कहे अनुसार यमराजपुरी के प्रवेशद्वार पर पहरा दिया करते थे . . .
“नहीं, नहीं, नहीं,” अपनी पूरी ताक़त के साथ बीणा ने मृत्युदेव से प्रार्थना की, “दक्षिण दिशा के दिक्पाल, मानव जाति के इतिहास के प्रथम पुरुष, हे मृत्युदेव, मेरी माँ की मृत्यु टाल जाइए। बदले में मुझे ले जाइए, मुझे ले जाइए . . .”
एमरजेन्सी वार्ड के काउन्टर पर तैनात दोनों डॉक्टरों और चारों नर्सों ने बीणा को सत्ताइस नम्बर बेड पर लुढ़कते हुए देखा तो तत्काल उधर लपक लिए।
“कौन?” बीणा की माँ को एक दूसरा कम्पन दुगुने वेग से झकझोर गया और उनकी बेहोशी टूट गई।
मरते-मरते वे जी उठीं।
एमरजेन्सी वार्ड के स्टाफ ने शीघ्र ही बीणा के लिए एक दूसरे बेड की व्यवस्था कर दी और उन्हीं के चेकअप के दौरान बीणा को मालूम हुआ उस रोग का नाम टिनाइटस था जिसके अन्तर्गत उसके बाएँ कान का परदा भी उसके दाहिने कान के परदे की तरह पूरा-पूरा सूज गया था और इसीलिए पथ से हटकर विसामान्य ध्वनियाँ सुनने लगा था।
♦ ♦ ♦
आजकल बीणा के दोनों कानों का इलाज चल रहा है . . . लेकिन क्या है कि ठीक ध्वनियाँ पकड़ते-पकड़ते अचानक जिस समय वह जेठ-जेठानी के घर पर कमरे बुहार रही होती है या बरतन माँज रही होती है या कपड़े धो रही होती है या चपातियाँ सेंक रही होती है या जेठ-जेठानी के ज़िद्दी बच्चों को पुचकार रही होती है या रात के घुप अँधेरे में पति की बग़ल में होती है खुपिया वह बाघ डकारता-डकारता उसके समीप पहुँचने लगता है: धप, धप, धप।
कहीं वह दक्षिण क्षेत्र का यावना तो नहीं? अथाह और गूढ़?
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