बंधक

दीपक शर्मा (अंक: 241, नवम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

 मेरी ननिहाल में शाम गहराते ही पाँचों बच्चे मुझे आ घेरते, ”तुमसे तुम्हारे दादा की कहानी सुनेंगे . . .”

उनमें कुक्कू और हिरणी मुझसे बड़े थे। कुक्कू दो साल और हिरणी एक साल। टीपू मेरे बराबर का था और बाक़ी दोनों मुझसे छोटे। बच्चों के जमा होते ही मेरी दोनों मामियाँ भी मेरे पास आ बैठतीं। वे दोनों सगी बहनें थीं और एक-एक काम एक साथ किया करतीं। बैठते ही वे बच्चों को उकसाने लगतीं, ”कहानी शुरू कराओ न! फिर तुम लोगों को सोना है।”

लेकिन मैं रुका रहता। अपनी नानी के इंतज़ार में। 

इधर मुझे अकेले भेजते समय मेरी माँ अपनी हिदायत देना न भूलतीं, ”उधर तुझे होशियार रहना है। बच्चे जब भी तुम्हारी नानी से बदतमीज़ी दिखाएँ उन्हें शर्मिन्दा करना है, बड़ों का लिहाज़ न रखोगे?”

उस शाम उन्हें मैंने अपने दादा की आपबीती सुनाने की सोची। दादा को अगोचर रखकर . . . 

♦    ♦    ♦

”सन् 1947 के लाहौर के मेयो मेडिकल काॅलेज में एक नौजवान अपनी डाॅक्टरी की पढ़ाई के आख़िरी साल में था,” मैंने कहानी शुरू की, ”वहीं अस्पताल में बने होस्टल में रहता था . . .”

”नौजवान तेरे दादा का बेली (मित्र) था?” मेरी नानी हँसने लगीं। वे जानती थीं बटवारे से पहले मेरे दादा मेयो अस्पताल में ही पढ़ते थे। 

”हमने सच्ची कहानी नहीं सुननी,” तेरह वर्षीय टीपू चिल्लाया। 

”लाहौर की तो क़तई नहीं!” कुक्कू मुँह बिचकाने लगा। 

”न?” नानी ताव खा गई, वे ख़ुद लाहौर की थीं, ”लाहौर बुरी जगह है क्या? पहले तो बल्कि लोग-बाग कहा करते, लाहौर राजा, अमृतसर वजीर और लुधियाणा फ़क़ीर . . .”

”हाँ,” मैंने हामी भरी, ”पंजाब के सभी शहरों में लाहौर ही सबसे बड़ा था . . .”

”पीछे उधर तो यह भी कहा जाता था,” नानी उत्साह में बह लीं, ”जिहणे लाहौर नहीं देखिया औह नहीं हाले जन्मियाँ . . .(जिसने लाहौर नहीं देखा उसका जन्म लेना अभी बाक़ी है . . .)।”

”आप पहले और पीछे की बात मत करिए,” हिरणी ने नानी को फटकार दिया, ”हम कोई नई बात सुनेंगे . . .”

मेरी दोनों मामियाँ फक्क से हँसने लगीं। 

”चल, चिन्ती, उठ यहाँ से,” अपने प्रति मेरी लिहाज़दारी पर नानी अक़्सर इतरातीं और ढोल बजाकर मुझ पर अपना अधिकार प्रकट किया करतीं, ”कैसे गुस्ताख़ लोगों को कहानी सुना रहे हो?”

”नहीं,” कहानी सुनने का दस वर्षीया गुणी को कुछ ज़्यादा ही शौक़ रहा, ”तुम कहानी सुनाओ, भाई। अब बीच में न कोई बोलेगा और न ही कोई हँसेगा . . .”

”13 जून, 1947 को उस मेयो अस्पताल में एक अँग्रेज़ पुलिस कांस्टेबल एक हेड इन्जरी केस लाया,” मैं शुरू हो लिया, ”लाहौर के भुजंग इलाक़े में किसी के चाकू ने उसके नाक का बाँसा चीर डाला था और दायीं आँख बहनापे में बन्द हो गई थी। लेकिन उसके दाँत, गाल और माथा ज़रूर पूरे के पूरे बच गए थे। शायद इसीलिए वह बात ख़ूब करता था। उम्र उसकी सोलह-सत्रह के बीच की थी और हमारे उस नौजवान कच्चे डाॅक्टर का वह कुछ ही दिनों में अच्छा दोस्त बन गया था।” 

“उसकी सुबह, आज की ख़बर? पूछने से शुरू हुआ करती और हमारे नौजवान की उसके सवाल के जवाब की तैयारी में। 

“ख़बरें उन दिनों अजीब लचीली और टेढ़ी-मेढ़ी रहा करतीं। सभी लोग दस-बार सोच कर मुँह खोलते! सन्‌ 1946 की अगस्त की ’कलकत्ता किलिंग्स’ से शुरू हुआ हिन्दू-मुसलमान फ़साद बंगाल और बिहार से होता हुआ जनवरी तक पंजाब में भी उतर चुका था। 24 जनवरी के दिन पंजाब असेम्बली के प्राइम मिनिस्टर सर खिज़र टिवाना ने पंजाब के गवर्नर इवान जेनकिन्ज की मंज़ूरी में मुस्लिम लीग नैशनल गार्डज़ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर जो रोक लगाई थी, वह तीसरे ही दिन यानी 27 जनवरी के दिन वापस लेनी पड़ी थी। मुल्तान, लाहौर, गुजरात और अमृतसर में फिर भी ’खिज़र वज़ारत मुर्दाबाद’ के नारे बन्द न हुए थे। असल में यूनियनिस्ट पार्टी के लीडर खिज़र हयात खान टिवाना 175 सीटों वाली पंजाब असेम्बली में सिर्फ़ 18 विधायक रखते थे जबकि सन्‌ 1946 के उस चुनाव में मुस्लिम लीग को 75 सीटें मिली थीं, कांग्रेस को 51 और सिक्खों को 22। मुस्लिम लीग ख़ुद सरकार बनानी चाहती थी और 2 मार्च के आते-आते उसने खिज़र के संग एक समझौता भी कर लिया था और उस दिन को विक्टरी डे (विजय दिवस) की तरह पंजाब भर में मनाया भी गया था। 

“तीन मार्च को खिज़र ने अपना इस्तीफ़ा असेम्बली में रख दिया था। और इस तरह लगभग बीस साल से चला आ रहा यूनियनिस्ट पार्टी का राज ख़त्म हो गया था। यह पार्टी सन्‌ 1923 में सिकन्दर हयात खान ने सर छोटू राम के साथ मिलकर बनाई थी और दिसम्बर, सन्‌ 1942 को जब सिकन्दर चल बसे थे तो सर उमर हयात की अँग्रेज़ों के प्रति भक्ति पंजाब-भर में मशहूर थी। सन्‌ 1919 के अमृतसर के असहयोग आन्दोलन को कुचलने के लिए उन्होंने अपनी अस्तबल के 150 घोड़े ब्रिटिश सरकार को इस्तेमाल के लिए देकर अपने लिए तरफ़दारी तो जीत ही ली थी। ऐसे में पंजाब के गवर्नर इवान जेनकिन्ज भी मुस्लिम लीग को सरकार नहीं बनाने देना चाहते थे। उन्हें शक था पंजाब मुस्लिम लीग को सरकार में समर्थन देने का दावा पेश कर रहे थे, वह दावा उनका झूठा साबित होगा। अभी यह मीटिंग चल ही रही थी कि असेम्बली के बाहर ’पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे बुंलन्द हो उठे थे। 

“चार मार्च को लाहौर और अमृतसर में क़हर एक साथ टूटा था और जब तक जून की तीन तारीख़ में ’माउन्टबेटेन प्लैन’ ने बंगाल और पंजाब के बँटवारे की पुष्टि की थी, लाहौर में तीन पैरामिलिट्री दल तैयार हो चुके थे। जून ही की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड्ज की संख्या 39,000 तक पहुँच चुकी थी, आर,एस.एस. की 58,000 और सिक्ख अकाली फ़ौज की 8,000 . . . ”

”तुम फिर आँकड़े फड़फड़ाने लगे,” कुक्कू ने मुझे आँखें दिखाईं, ”कहानी तुम्हारे पास है या नहीं?”

”है,” मैं हँसा, ”13 अगस्त सन् 1947 के दिन अब मरीज़ लड़के ने हमारे कच्चे डाॅक्टर से पूछा, ‘आज की ख़बर?’ तो डॉक्टर ने सिर हिला दिया, ‘शहर में आज कर्फ़्यू है और अख़बार नहीं आई . . .’

“तो लड़का हँस पड़ा, ‘आज मेरे पापा भी नहीं आए . . .?’ पिछली 13 जून से लेकर 12 अगस्त तक लड़के को अस्पताल में दाख़िला दिलाने वाला वह अँग्रेज़ पुलिस कांस्टेबल हर रोज़ उसे देखने आता रहा था। 

”‘कैसे आते?’ हमारे डाॅक्टर ने कहा, ‘हमारे अस्पताल की मौर्च्युरी (मुरदाघर) की तरफ़ आने वाली सभी गलियाँ उतारी हुई लाशों से भरी हैं। लोगों का अनुमान है वे तीन साढ़े तीन सौ से कम क्या होगी?’. . .

”शाम पाँच बजे जब हमारा नौजवान लड़के से दोबारा मिलने गया तो वह अजीब उत्तेजना से भरा था, ‘मेरी अलमारी का ताला खोल सकोगे?’ उसका पापा अभी तक न उसे मिलने आया था . . .

“‘अलमारी में क्या है?’ प्राइवेट वार्ड के मरीज़ों को एक निजी अलमारी अस्पताल की तरफ़ से दी जाती थी जिसमें अपना निजी ताला लगाने की उन्हें पूरी तरह छूट थी . . .”

”एक पुलिस कांस्टेबल और प्राइवेट वार्ड?” टीपू हँसा। 

”वह कांस्टेबल एक अँग्रेज़ जो था और अँग्रेज़ों को अस्पताल में भी ज़्यादा सुविधाएँ मिला ही करती थीं,” मैंने कहा। 

”कहानी सुनने दो, टीपू,” कुक्कू ने टीपू को आँखें दिखाईं। 

”उस अलमारी में अस्पताल के ताले की जगह एक दूसरा ताला लटक रहा था . . . ‘इसकी चाबी देना’, हमारे नौजवान ने लड़के से कहा . . . मगर लड़के के पास चाबी न थी . . . ‘मेरे लिए तुम क्या यह अलमारी खोल सकते हो?’ लड़के ने ज़िद की . . .

“पेचकस की मदद से हमारे नौजवान ने अलमारी की कुन्डी दोनों तरफ़ से अलमारी से अलग कर दी . . .

“अलमारी खुली तो उसमें नोटों की गड्डियों को अपनी मुहरों में छिपाए पाँच लिफ़ाफ़े मिले और लिफ़ाफ़ों के नीचे मिली एक संदूकड़ी, जिसका तल चपटा था और जिसके बीच में से उठे हुए उसके ढलवाँ ढक्कन में एक और कुंडी थी जिस पर पीतल का एक मज़बूत ताला पड़ा था। 

“‘इसे भी खोलो तो’ लड़के ने कहा। 

“अंदर एक सन्दूकड़ी थी जिस की सात तहें एक-एक करके खुलती चली गईं . . . सभी में बेशक़ीमती गहने धरे थे . . . 

“तभी दरवाज़े पर एक तेज़ दस्तक हुई . . .

“‘दरवाज़ा खोलने से पहले अलमारी बन्द कर देना,’ कहकर लड़का रह-रहकर काँपने लगा . . . 

“’तुम क्यों घबरा रहे हो? यह ज़रूर तुम्हारे पापा हैं,’ हमारे नौजवान ने उसे तसल्ली देनी चाही . . .

“लड़का फूट-फूटकर रोने लगा . . .

“रुलाई के बीच उसने अपना रहस्य खोला। वह अनाथ था और उसे मेयो अस्पताल पहुँचाने वाला वह पुलिस कांस्टेबल उसका पिता न था, अगुवा था। लड़के को ज़ख़्मी भी उसी कांस्टेबल ने किया था ताकि उसके इलाज के नाम से वह इस अस्पताल में यह वार्ड पा सके . . .

“दरवाज़ा खोलने पर छह पुलिस बूट धम्म-धम्म वार्ड में आ दाख़िल हुए . . . 

“तीनों ने पुलिस कांस्टेबलों की वर्दी पहन रखी थी और तीनों ही अँग्रेज़ थे . . . और अजनबी थे . . .”

“पंजाब पुलिस में इतने अँग्रेज़ रहे क्या?” दस वर्षीय चुन्नू गहरी जिज्ञासा रखता था। 

“बस कांस्टेबुल ही तो रहे,” मैंने कहा, ”बँटवारे के समय पंजाब पुलिस में कांस्टेबुलों की कुल गिनती 24,095 थी जिनमें 17,848 मुसलमान थे और 6,167 सिक्ख और हिन्दू। और यूरोपीय और एंग्लोइंडियन मिलाकर 80 . . .”

”तुम फिर बहक रहे हो,” कुक्कू ने मुझे चेताया, ”हमें कहानी सुननी है . . . इतिहास से बाहर . . .”

”मगर यह कहानी तो इतिहास के छत्ते के नीचे खड़ी है, छत्ते की बात तो फिर करनी ही पड़ेगी . . .

”तीनों सीधे आलमारी की तरफ़ लपक लिए . . .

“‘मेरे पापा कहाँ हैं?’ लड़के ने पूछा। ‘वे तुम्हें और तुम्हारी अलमारी के सामान को यहाँ से हटाना चाहते हैं।’ उनमें से एक ने कहा . . .

“‘यह नामुमकिन है,’ हमारे नौजवान ने हिम्मत बटोरी, ‘इस अलमारी में जो लूट का सामान धरा है, उसकी ख़बर आपके डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट, मिस्टर यूसटेस को दी जा चुकी है और उन्हीं के हुक्म पर मैं इस लड़के के हिरासत पर जाने तक इसे अपनी निगरानी में रखे हूँ . . .। पलक झपकते ही तीनों चम्पत हो गए . . .”

“वह कच्चा डाॅक्टर भी अँग्रेज़ था क्या?” चुन्नू ने पूछा। 

“हम उसे किसी भी देश, जाति या धर्म का कह सकते हैं,” मैंने टाल जाना चाहा, ”उस जैसे लोगों को उनका देश या धर्म अपना बंधक बनाकर नहीं रखता . . .।”

“अच्छा यह बताओ,” हिरणी चतुर थी, “वह आजकल कहाँ है? इंग्लैंड में, भारत में, या फिर लाहौर ही में?”

“इधर भारत में,” सच छुपाना मेरे लिए मुश्किल हो गया, “उन कांस्टेबुलों के ग़ायब होते ही वह सीधा अपने मेयो अस्पताल के प्रशासक के पास गया। प्रशासक ने उसे मार्गरक्षी एक दल के साथ लाहौर रेलवे स्टेशन पर पहुँचवाया। लाहौर से अमृतसर जाने वाली फ्रंटियर मेल बस छूटने ही जा रही थी और यह भी संयोग ही था कि 13 अगस्त की यह फ्रंटियर मेल लाहौर से भारत आने वाली आख़िरी रेलगाड़ी थी। रास्ते-भर हमारे नौजवान ने बरछों, बाणों, बल्लों, तलवारों, हथगोलों और बम-बंदूकों का प्रतिशोधी और नाशी संग्राम देखा। 

“बाद में ख़बरों ने भी पुष्टि की कि पाकिस्तान छोड़ने की कोशिश में बीस-पच्चीस लाख लोग अगर उधर जान से हाथ धो बैठे थे तो पाकिस्तान पहुँचने की कोशिश में भी हू-ब-हू उतने ही लोग इधर भी जान गँवा बैठे थे। बेघर होने वाले लोगों की गिनती भी दोनों तरफ़ एक जैसी रही थी, सत्तर से अस्सी लाख . . .”

“वह लड़का वहीं लाहौर में रह गया?” चुन्नू ने पूछा। 

”हाँ,” मैंने कहा, “मेयो अस्पताल के सभी डाॅक्टर अपने मरीज़ों के साथ अच्छा सुलूक ही रखते थे . . . उनमें भी कोई अपने देश या जाति-धर्म का बंधक न था . . .”

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