सिद्धपुरुष
दीपक शर्मा
“आपसे एक हस्ताक्षर लेना है, मामा,” अपने नाश्ते के बाद अपनी पहिएदार कुर्सी पर बैठा मैं अपना आई-फोन खोलने ही लगा हूँ कि युगल मेरे कमरे में आन धमका है। युगल माने, नंदकिशोर मेरा भाँजा व मालती, उसकी पत्नी।
“कहाँ?” मैं सतर्क हो लेता हूँ।
“एक चेक पर,” मेरे शरीर के बाएँ भाग के फालिज-ग्रस्त हो जाने के बाद ही से बैंक की मेरी पासबुक्स के अपडेट्स, इनकम-टैक्स के मेरे सेवरज व म्युचल फन्ड के मेरे डिविडेन्ट्स सब नंदकिशोर ही देखता है।
“ठेकेदार नया एडवान्स माँग रहा है,” मालती कहती है, “बाथरूम पुराने बजट में फ़िट नहीं हो रहे . . .”
आजकल मेरे मकान की छत पर युगल दो नए कमरों का सेट बनवा रहा है।
मेरे आराम को धता बताकर। कैलिफ़ोर्निया से लौट रहे अपने बड़े बेटे के परिवार के लिए।
मेरी सेवा-निवृत्ति वाले वर्ष में बनवाया गया यह मकान बड़ा नहीं है। हॉल के अलावा इसमें तीन शयन कक्ष ही हैं। दो छोटे एक बड़ा। बड़ा मेरा है। मेरी टीवी, मेरी किताबों, मेरी फ़िल्मों, मेरी पढ़ने की, शृंगार की मेज-कुर्सियों व मेरे जूतों व कपड़ों की अलमारियों से लैस। नौ निध बारह सिद्ध समेटे। जो मेरे बांकपन व मनोविनोद को मेरी सेवा-निवृत्ति के छब्बीस वर्ष बाद भी वश में रखे हैं।
“कितना चाहिए?” मैं घंटी बजाता हूँ, जो मैंने अपनी पहिएदार कुर्सी की दायीं बाँह पर लगवा रखी है। अपने केयरटेकर को बुलाने हेतु। अपने डॉक्टर के संग अपने अपॉइंटमेन्ट्स व अपने फिजियोथेरेपिस्ट्स व अपने केयरटेकर्स की नियुक्तियाँ अभी मैं अपने अधिकार में रखे हूँ।
“जी, सर,” केयरटेकर मेरे कमरे से सटे गलियारे ही में बैठता है। वही मेरे निजी बैग का कस्टोडियन है। बैग से चेक बुक वही निकालता है। वही रखता है। युगल की इच्छा-विपरीत। मेरा अकाउन्ट एकल है। उनके साथ ज्वाइन्ट नहीं। मेरी इच्छानुसार।
“मेरी चेक-बुक लाओ,” मैं केयरटेकर से कहता हूँ।
“जी, सर . . .”
“रक़म मैं भर लूँगा, मामा। आप साइन कर दें, बस . . .”
“ठेकेदार बाथरूम के टाइल्स पसन्द करवाने के बाद ही रक़म बता पाएगा,” मालती जोड़ती है।
“चेक-बुक वापस रख दो,” मैं केयरटेकर को संकेत देता हूँ, “रक़म जाने बिना चेक नहीं साइन होगा . . .”
“जी, मामाजी,” उतर आए अपने चेहरे के साथ मालती अपना स्वर ऊपर उठाती है।
तभी कॉल-बेल बजती है।
“मैं देखता हूँ,” घर के गेट को मौनिटर करना नंदकिशोर व मालती का काम है। मेरा केयरटेकर केवल मुझे देखता है। और कुछ नहीं।
“देखती हूँ, मैं भी,” जिज्ञासा मालती की कमज़ोरी है।
“आप?” नंदकिशोर व मालती एक साथ हैरानी जतलाते हैं।
“सर कहाँ हैं?” आशापूर्णा की आवाज़ मुझ तक तैर आयी है। पाँच साल पहले हुई वाशिंगटन की अपनी पोस्टिंग के बाद वह पहली बार इधर आयी है, लेकिन उसकी आवाज़ मैं साफ़ पहचान रहा हूँ। भारतीय प्रशासनिक सेवा की अपनी पहली बड़ी तैनाती उसने उसी दफ़्तर में पायी थी जिसके सर्वोच्च पद पर उस समय मैं आसीन था। सन् 1988 से सन् 1990 तक। अपनी अन्तिम तैनाती के अन्तर्गत। जब कुल जमा अट्ठावन वर्ष की आयु में सरकार अपने कर्मचारियों को सेवानिवृत्त कर दिया करती थी।
“उधर अपने कमरे में हैं,” नंदकिशोर कहता है, “आप आइए . . .”
“ड्राइवर के हाथ का सामान पकड़ सकते हो? सर के लिए है,” उस के स्वर का आलोड़न मुझ तक साफ़ पहुँच रहा है।
“जाओ, देखो,” अपने केयरटेकर को मैं उसके पास भेज देता हूँ, “सामान इधर ले आओ . . .”
नंदकिशोर व मालती पर मुझे तनिक भरोसा नहीं . . .
धूर्त हैं दोनों . . . धन-सुंघे कहीं के!
इन्हें मुझ पर लादा है बहन ने।
नंदकिशोर को उसके चौथे वर्ष में। जब उधर उसकी ससुराल, कस्बापुर में, उसके पति, चन्द्रभान की हत्या कर दी गयी थी। उस के सौतेले भाइयों द्वारा। ज़मीन के बँटवारे को लेकर।
बहन बहुत डरी हुई थी। बोली भी, “उधर रही तो पति की तरह बेटे को भी गँवा बैठूँगी . . .”
सन् 1962 के उन दिनों मरणासन्न माँ अस्पताल में दाख़िल थीं और इन माँ-बेटे का आगमन मुझे बहुत क्षुब्ध कर गया था।
दादा ने ज़रूर नंदकिशोर को अपने कंधे पर उठा लिया था। बिल्कुल उसी तरह जब हमारे पिता की मृत्यु पर उन्होंने बहन को उठाया था। सन् 1943 में। जब हमारे पिता ब्रिटिश सेना की ओर से द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेते हुए अपनी जान गँवा बैठे थे। जापानियों के हाथों। सिंगापुर में। और माँ हम भाई-बहन को इधर दादा के पास लिवा लायी थीं। उस समय मैं ग्यारह वर्ष का था और बहन कुल जमा 6 साल की।
“भाई के अफ़सर होते हुए तू डरती है, पगली,” दादा ने बहन के सिर पर हाथ धर दिया था, “देखना उन हत्यारों को हमारा अफ़सर छोड़ेगा नहीं। उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवाएगा और तुम माँ-बेटे को चन्द्रभान के हिस्से की ज़मीन-जायदाद भी . . .”
काम आसान नहीं रहा था। लोअर कोर्ट व हाई कोर्ट द्वारा दिए गए प्रतिकूल निर्णयों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुकूल करवाने में मेरे पूरे अठारह वर्ष चले गए थे और जाते-जाते वे मेरे प्रौविडेन्ट फन्ड की अधिकतम निकासियाँ भी निःशेष कर गए थे। तीनों कचहरियों व सभी वकीलों की फ़ीसें मुझी को ही भुगतनी पड़ी थीं।
और इन सब के बीच मेरे विवाह के लगभग सभी संगत वर्ष टलते चले गए थे। जो पहले ही माँ के तपेदिक के कारण विलम्बित रहा था। जिस सन् 1955 में मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रवेश पाया था, उसी वर्ष माँ को तपेदिक ने आन घेरा था, जो उन दिनों असाध्य भी माना जाता था।
उधर जायदाद पाते ही नंदकिशोर ने जहाँ थिएटर वाले अपने शग़ल को व्यवसायिक विस्तार देने हेतु अपनी एक नाटक-मंडली संगठित कर ली थी, तो इधर बहन कस्बापुर जा कर नंदकिशोर को ब्याह लायी थी।
मालती के संग सन् 1980 में। मेरी सलाह लिए बिना।
ऐसी भी क्या जल्दी थी? मैंने रोष जताया था।
“क्या करती भाई?” बहन ने ठीकरा दादा के सर फोड़ दिया था, “दद्दू ही बोले थे—‘नन्दू किसी थिएटर वाली को ब्याह लाया तो हमारी लुटिया डूब जाएगी’ . . .”
“लड़की भी दद्दू ही ने सुझायी थी? चन्द्रभान ही के कस्बापुर से?” मैंने कटाक्ष किया था। देखने नन्दू तो कस्बापुर जाने से रहा। उसकी ससुराल उधर होगी तो ख़बरदारी रखने में सुभीता रहेगा . . .
बहन की यह पुरानी आदत थी। किसी भी बात की ज़िम्मेदारी न लेती। चन्द्रभान से अपने प्रेम-विवाह की जवाबदेही भी उसने दादा ही के माथे मढ़ी थी। वह उसी स्कूल में उसका सहपाठी रहा था जिसमें हमारे दादा गणित के अध्यापक थे और जिसके परिसर में दादा को मकान भी मिला हुआ था। निस्संदेह बहन से मिलने के लोभ ने ही उसे हमारे दादा से गणित की ट्यूशन लेने की प्रेरणा दी थी और वह जानता रहा था बहन पूरी तरह दादा ही पर निर्भर थी। मैं उस समय बी.ए. में था और आए.ए.एस. मेरे लिए केवल एक सम्भावना थी, कार्यसिद्धि नहीं। ऐसे में चन्द्रभान दादा ही की मनपसन्द उनके सामने रखता, ग्रामोफोन, मरफी रेडियो, तैंतीस, पैंतालीस व अठहत्तर आर.पी.एम. रिकॉर्ड जिनमें अधिकतर दादा के प्रिय गायकों–सहगल, पंकज मल्लिक व जगमोहन–के रहा करते। दादा को भी बहन की तरह चन्द्रभान की धन-सम्पत्ति के प्रति उत्साह व विस्मय तो रहा ही था और सन् 1954 के आते आते बहन चन्द्रभान के संग ब्याह दी गयी थी। नंदकिशोर का जन्म सन् 1958 में हुआ था। उससे पहले बहन ने एक के बाद दूसरी बेटी जनी ज़रूर थीं किन्तु दोनों ही की मृत्यु हो गयी थी सन्देहास्पद परिस्थितियों में।
सच पूछें तो सन् अस्सी का वह दशक मेरे लिए किसी घनचक्कर से कम नहीं रहा था। मैं हैरान था अपने मुक़द्दमे के दौरान मेरे आगे पीछे घूमने वाले इन माँ-बेटे ने किस सहजता से मुझे उस समकेन्द्रिक वृत्त से बाहर कर दिया था जिसके उस समय वे मेरे साथ वृत्तान्श रहे थे।
मेरे सेवाकाल का वह अन्तिम दशक था और उधर यदि मेरी वरिष्ठता मुझे एक के बाद एक ऊँचे से ऊँचे पद पर बिठला रही थी तो इधर मालती के आन जुड़ने से घर में बढ़ आए घमरौल में आन वृद्धि की थी, युगल के दो बेटों की घमाघम ने। और मैं अपने ही घर से बेघर होता चला गया था।
क्लब की सदस्यता मैंने उसी दशक के मध्य में ली थी। जिस सन् 1985 की जून में दादा की मृत्यु हुई थी।
दफ़्तर से ख़ाली होते ही अब मैं वहाँ पहुँच लिया करता। अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद तो मैं अपनी हर शाम वहीं बिताने लगा। रात के खाने के बाद ही घर लौटता।
सपरिवार आए वहाँ अपने साथियों को उनकी सुन्दर-सजीली पत्नियों व तन्दरुस्त-दुरुस्त बेटों-बेटियों के साथ देखता तो ईर्ष्या से भर-भर उठता। भाग्य ने मुझे क्यों उन सबसे वंचित रखा था? मेरे पिता सेना में क्यों भरती हुए थे? तपेदिक ने माँ को क्यों निगल लिया था? अभागा चन्द्रभान बहन के जीवन में क्यों आया था? नंदकिशोर इतना स्वशासी क्यों रहा? बहन व मालती इतनी स्वार्थिनें? और उनकी सन्तान इतनी अड़ियल?
मुझ पर फालिज क्लब में ही गिरा, पिछले वर्ष। मुझे संदेह है वही फालिज यदि मुझ पर घर में गिरता तो मुझे अस्पताल पहुँचाने में क्या नंदकिशोर वही फ़ुर्ती दिखाता जो उस दिन क्लब के स्टाफ ने दिखायी थी?
मुझे एक लम्बा फूलदान चाहिए। एक फुल प्लेट भी। 6 क्वार्टर प्लेट्स के साथ, गलियारे में आशापूर्णा की आवाज़ गूँजती है।
अपनी आँखें मैं अपने कमरे के दरवाज़े पर टिकाए बैठा हूँ। यदृच्छया अनेक महिला अधिकारी मेरे सेवा-काल में आती जाती रही हैं और कुछ के संग मेरे सम्बन्ध आत्मीय भी रहे हैं किन्तु आशापूर्णा उन में अन्तिम भी रही वह सर्वप्रिया भी।
कुछ ही पल में पाता हूँ आशापूर्णा के हाथ ट्यूबरोज़ेज का एक बड़ा समूह लिए हैं और केयरटेकर के हाथ केक वाला डिब्बा। प्लेटें मालती पकड़े है और फूलदान, नंदकिशोर।
“हैप्पी बर्थ डे सर,” आशापूर्णा अपने होंठों से मेरे माथे का संस्पर्श करती है और फूल मेरी गोद में रख देती है। पहिएदार कुर्सी पर मुझे बैठे देखकर उसने जान लिया है कि एक हाथ से उतने फूल थामना मेरे लिए दुष्कर रहता।
“तुम्हें याद था?” मेरी आँखें भर आयी हैं।
“याद तो हमें भी है,” मामाजी, मालती खिसिया गयी है। “बस उस ठेकेदार ने सुबह सबेरे आकर टाइल्स का मसला आन खड़ा किया . . .।”
“केक उस गोल मेज़ पर रखकर इधर सर के पास ले आओ,” भारधारक बनकर आशापूर्णा मेरे केयरटेकर को एक के बाद दूसरा आदेश दे डालती है, “और फिर फूलदान में यह फूल लगा कर उसे टीवी की बग़ल वाली छोटी मेज़ पर जा टिकाओ . . .”
मेरे केयरटेकर के हाथ उसे ख़ाली चाहिएँ, मेरी गोद भी।
गोल मेज़ के मेरे पास पहुँचते ही आशापूर्णा ने उस बर्थ डे केक को डिब्बे से बड़ी प्लेट पर ला खिसकाया है।
साफ़-सुथरे, सुव्यवस्थित ढंग से।
अतिथि होते हुए भी आतिथेय वही निभा रही है, “सर को केक काटना है अब . . .”
“ठेकेदार का फोन आ रहा है,” नंदकिशोर अपने मोबाइल की ओर संकेत करता हुआ कमरे से बाहर हो लिया है।
मालती उस का पीछा करती है।
“यह डिब्बा उधर ले जाओ,” आशापूर्णा केयरटेकर से कहती है।
यह केयरटेकर को कमरे से बाहर रहने का संकेत है।
“पापा ने आपके लिए कुछ भेजा है, सर,” आशापूर्णा एक कुर्सी मेरे पास खिसका लायी और अपने हैन्डबैग से एक पैकेट मेरे हाथ में ला थमाती है।
वह भी मेरी तरह विवाहित जीवन से वंचित रही है। मानसिक संस्तम से ग्रस्त उसका एकल भाई मूल कारण रहा होगा। उसके पिता की क्षीण आर्थिक स्थिति भी शायद एक निमित्त रहा हो। जिस समाचार-पत्र के वह विशेष संवाददाता रहे वह उनके पचासवें वर्ष में एकाएक बंद कर दिया गया था और फ्री-लांसिंग उन्हें अनिश्चित व अपर्याप्त आय ही दे पाती थी।
“उन्हें भी याद था?” मैं द्रवित हो आया हूँ।
“जी सर, हमेशा याद रहता है। बस इधर हमीं यहाँ नहीं रहे . . . फिर आज तो आपका चौरासीवां जन्मदिन है। बहुत बड़ा दिन। आकाश में प्रकट हुए एक हज़ार चाँद आप के दर्शन पा चुके हैं . . .”
“मेरा जी बहलाने आयी हो? या फिर बहकाने भी?” एक गुदगुदाहट मुझ पर सवार हो ली है।
“सच कह रही हूँ, सर चौरासी वर्षों में एक हज़ार चाँद तो आकाश में प्रकट होते ही हैं। पापा ने तो यह भी कहा, तुम्हारे सर तो शुरू ही से एक सिद्धपुरुष रहे हैं किन्तु वेदानुसार तो आज के दिन से वह रीतिक रूप से विधिवत सिद्धपुरुष का दरजा पा गए हैं . . .”
“मगर परिवार के नाम पर जिनके साथ मैं रहता हूँ, उनके मन में मेरे लिए कोई उत्साह नहीं, कोई चाव नहीं,” वह गुदगुदाहट अब उस चुनचुनी में बदल गयी है जो मुझे हर पल क्षुब्ध रखती है, “उनके लिए मैं कोई महत्त्व नहीं रखता। मेरा कोई-सा भी जन्मदिन, कोई-सा भी दिन कोई महत्त्व नहीं रखता। उनके लिए मेरे जीवन का एक ही प्रयोजन रहा—उन्हें आर्थिक निश्चिन्तता प्रदान करने का और वे समझते हैं वह अब पूरा हो चुका है तथा मुझे अब मर जाना चाहिए।”
“यह तो ठीक नहीं है सर,” आशापूर्णा चिन्तित हो आयी है, “आप किसी ओल्ड एज होम में क्यों नहीं शिफ़्ट कर जाते? अब तो ऐसे-ऐसे होम्स हैं जहाँ चिकित्सा से लेकर मनोरंजन तक के सभी साधन उपलब्ध रहते हैं . . .”
“नहीं मैं अपना यह कमरा नहीं छोड़ना चाहता। इस समय यदि मुझे किसी से मोह है तो अपने इस कमरे से . . .”
“किस कमरे की बात हो रही है मामाजी?” मालती अकेली लौटी है।
“किसी की नहीं,” मैं उसे झिड़क देता हूँ।
“और आपके हाथ में यह क्या है, मामा जी?” ढीठ मालती का दुःसाहस टूटता नहीं और बिना किसी की प्रतिक्रिया जाने वह पैकेट पर झपट पड़ी है, आप तो इसे खोल नहीं पाएँगे . . .”
देखने-जानने की उसे इतनी जल्दी है कि गिफ़्ट रैपर को क़ायदे से अलग करने की बजाए उसे फाड़ डालती है।
“आप लायी हैं? इतना हल्का पैकेट?” वह आशापूर्णा का उत्साह भंग करने की मुद्रा में आ गयी है।
“पैकेट के अन्दर एक मफ़लर व मोज़े हैं।”
“सर के लिए हैं,” आशापूर्णा ने मफ़लर मुझे ओढ़ा दिया है। अविलम्ब।
“लैम्ब्ज़ वूल? मेरे लिए इतना रुपया ख़र्च करने की कोई ज़रूरत थी भला?” मफ़लर मेमने के लोम का बना है, बहुत ही गरम, बहुत ही नरम।
“अपने केयरटेकर को बुलाइए सर,” आशापूर्णा उत्तर में मेरा हाथ थाम लेती है, “वह आपको ये नए मोज़े पहनाएगा . . .”
“दोनों सामान वाशिंगटन से लायी हैं क्या?” मालती का कुतूहल अभी तक क़ायम है।
आशापूर्णा उसके प्रश्न को अनुत्तरित रहने देती है और अन्दर आए मेरे केयरटेकर की ओर मुड़ती है, “सर को ये मोज़े पहनाने हैं . . .”
“मोज़े बाद में पहनाना, मैं कहता हूँ, पहले मेरी पढ़ने वाली मेज़ के निचले दराज़ पर जाओ और वहाँ रखे, सभी बंद पैकेट उठा लाओ . . .”
“कैसे पैकेट?” मालती वहीं जा खड़ी हुई है और प्रत्येक पैकेट के बाहर आते ही उसे जाँचती परखती है, बादाम हैं? कोलेस्ट्रोल फ़्री पिस्ता हैं? अखरोट है? खुमानियाँ हैं? किशमिश हैं?
“ये पैकेट आशापूर्णा की गाड़ी के लिए हैं,” मैं उसे सावधान कर देता हूँ लगभग फटकार के स्वर में।
“अपने जन्मदिन की ख़ुशी बाँट रहे हैं, मामाजी?” मेरी ओर देख कर वह खीसें निकालती है। “तो अपनों को भी भूलिएगा नहीं . . .”
“नहीं सर, मुझे कुछ नहीं ले जाना,” आशापूर्णा विरोध प्रकट करती है। दृढ़तापूर्वक।
“क्यों नहीं ले जाना? तुम मेरे लिए अंकवार-भर सामान लाओगी और मैं तुम्हें यहाँ से ख़ाली हाथ भेज दूँगा? कैसे, मैं, कैसे तुम्हें यहाँ से ख़ाली हाथ जाने दूँ? इस उम्र में तुम्हारा क़र्ज़ उठाऊँगा भला?”
“आप मुझे लज्जित कर रहे हैं, सर, क़र्ज़ की बात करेंगे तो फिर कई क़र्ज़ तो मुझी को चुकाने हैं। मेरी माँ के, मेरे पापा के कठिन समय में आप ही ने तो हमें अपना समय दिया, अपना साथ दिया, अपने सम्पर्क दिए। आप ही की वजह से मेरी माँ पाँच साल और जी गयीं, मेरे पापा की बाईपास सर्जरी . . .”
“मैंने कुछ नहीं किया,” आशापूर्णा का वाक्य मैंने पूरा नहीं होने दिया। नहीं चाहता मालती जाने कि उसके पापा की बाईपास सर्जरी की फ़ीस मैंने भरी थी और जिस 1990 में उसकी माँ का कैन्सर पहचान में आया था, उस समय मेरा एक बैचमेट संयोगवश केन्द्र में स्वास्थ्य सचिव रहा था और मेरे कहने पर उसने देश के सर्वोत्तम कैन्सर संस्थानों से उनका उपचार उपलब्ध करवाया था और वह सब बहुत सहज, स्वाभाविक रहा था।
“तुम स्वयं आए.ए.एस. में हो। तुम्हारी माँ उस वजह से अच्छी देखभाल ले पायीं, मेरी वजह से नहीं। तुम्हारे पापा की सर्जरी भी उसी वजह से समय पर हो गयी, मेरी वजह से नहीं। और जहाँ तक मेरे साथ की बात थी, वह तो मैंने ही अपनी सेवानिवृत्ति के अपने ख़ाली समय का लाभ उठाया, तुमने तो कभी कोई माँग नहीं की . . .” मैंने जोड़ा।
“आप जो भी कहें, सर, आप के मुझ पर बहुत अहसान हैं . . .”
“तुम मेरे मोज़े अब बदल सकते हो,” मैं विषय बदल देना चाहता हूँ, और अपने केयरटेकर की ओर देखता हूँ।
“जी सर,” वह मेरे पैरों पर झुक लिया है।
“मोज़े पहन कर आप केक काट लीजिएगा, मामाजी,” मालती केक के लिए अधीर हो उठी है और उसके साथ आयी प्लास्टिक छुरी मेरी ओर बढ़ाती है, “आपके भाँजे तो ठेकेदार के साथ निकल लिए हैं। बाथरूम की टाइल्स देखने के वास्ते। बोल गए हैं मामा अपना केक काट लें, मैं लौट कर खा लूँगा। केक हमारे घर पर ही तो रहेगा . . .”
“केक ही क्या? सभी कुछ यहीं तो रहने वाला है,” चुभती बात कहे बिना मैं रह नहीं पाया हूँ।
“आप भी, मामा जी कहाँ की बात कहाँ ले आते हैं,” मालती चकरायी है। मानो रंगे हाथों पकड़ ली गयी हो।
“जी सर,” आशापूर्णा अपने मोबाइल के कैमरे का समायोजन ठीक बिठलाती हुई कहती है, “आप इधर देख कर मुस्कुराइए सर। मुझे इधर भेजते समय पापा बोले थे आप के बर्थडे सेलिब्रेशन को मैं उनके लिए ज़रूर बटोर लाऊँ . . .।”
मैं मुस्कुरा दिया हूँ।
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