जीवट
दीपक शर्मा
“मदर सुपीरियर ने जीवणी हरेन्द्रनाथ को बुलाया है,” पाँचवीं जमात को हिन्दी पढ़ा रही सिस्टर सीमोर से मैंने कहा।
हमारे कान्वेन्ट में लड़कियों के नाम उनके पिता के नाम के साथ लिये जाते हैं।
“‘जीवणी हरेन्द्रनाथ’,” सिस्टर सीमोर ने पुकारा।
“येस सिस्टर,” ऊँचे क़द की एक हट्टी-कट्टी लड़की खड़ी हो ली।
“सिस्टर ग्रिफ्रिन्स के साथ तुम जा सकती हो।”
“येस सिस्टर।”
♦ ♦ ♦
“तुम्हारे पापा क्या करते हैं?” खुले में पहुँचते ही मैंने पूछा।
मदर सुपीरियर का दफ़्तर दूसरे परिसर में है जहाँ छठी से दसवीं तक की जमातें लगायी जाती हैं जबकि यह प्राइमरी सेक्शन हम सिस्टर्ज़ के कमरों और मदर सुपीरियर के रेज़िडेन्स वाले परिसर में स्थित है।
“बहुत कुछ,” लड़की की आवाज़ ज़ोरदार थी। उत्साही और जोशीली।
“जैसे कि?”
“किताबों का अनुवाद करते हैं, अख़बारें पढ़ते हैं, पत्रिकाओं के लिये लिखते हैं, पेंटिंग करते हैं।”
“तुमने पेंटिंग उन्हीं से सीखी?” मैंने पूछा।
असल में उसकी पेंटिंग ही ने मदर सुपीरियर का ध्यान उसकी तरफ़ खींचा था। हमारे सालाना ऑन-द-स्पाट पेंटिंग कांपिटिशन में वह अव्वल रही थी। नान-क्रिश्चियन होने के बावजूद स्कूल चैपल सबसे अच्छा उसी ने बनाया था। जभी उसका रिकार्ड देखा गया था और मालूम हुआ था दूसरी, तीसरी, चौथी जमात के हर विषय में उसने पूरे-पूरे अंक प्राप्त कर रखे थे। डबल प्रमोशन के लिये उसका केस और दमदार हो गया था।
“हाँ, मेरे पापा बहुत अच्छी पेंटिंग करते हैं,” उसके स्वर में गर्व छलक आया।
“नौकरी क्या करते हैं?”
“पहले करते थे। अब नहीं करते। जिस अख़बार के लिये काम करते थे, वह अख़बार बंद हो गयी है।”
“और तुम्हारी माँ? वह क्या करती है?”
“वह नौकरी करती हैं। घर का सारा काम करती हैं . . . ”
“कैसी नौकरी करती हैं?”
“रेलवे में बुकिंग क्लर्क हैं . . .”
“ओह!” मैंने उसकी ओर दोबारा देखा। यूनिफ़ॉर्म उसकी अच्छी धुली थी, ताज़ी कलफ और ताज़ी इस्त्री लिये थी। जूतों की पालिश भी ज़बरदस्त थी। मोज़े भी ठोस और मज़बूत।
“तुम्हारे पापा की पेंटिंग अच्छी बिकती हैं?”
“वह बेचने के लिये पेंटिंग नहीं करते। हमारे लिये करते हैं।”
“मतलब?”
“मेरी तस्वीर बनायेंगे, ममा की बनायेंगे। छोटू और पीचू की बनायेंगे।”
“छोटू और पीचू तुम्हारे भाई हैं? तुम से छोटे?”
“जी।”
“कहाँ पढ़ते हैं?”
जिस स्कूल का उसने नाम बताया वह शहर का सबसे महँगा स्कूल है।
“कितनी फ़ीस देते हैं?” मैंने पूछा।
“मुझे नहीं मालूम,” उसने लापरवाही से मेरा प्रश्न छिटक दिया।
मैंने अपनी चाल तेज़ कर दी।
वह भी लम्बे डग भरने लगी।
क़दम मिलाती हुई।
बिना एक भी क़दम छोड़े।
बेशक जब तक हम मदर सुपीरियर के दफ़्तर तक पहुँचीं, वह हाँफने लगी थीं।
“तुम्हारा एक टेस्ट लेना है,” मदर सुपीरियर के साथ छठी जमात की क्लास टीचर, सिस्टर होम्ज़, बैठी थीं।
“आउट आव टर्न? (असमय?)” जीवणी हरेन्द्रनाथ ने जी हुज़ूरिया बरतने की बजाए अन्यमनस्कता दिखायी।
“हाँ,” मदर सुपीरियर सदयता से मुस्करायी–करुणा और प्रेम का वह बड़ा भंडार रखती हैं, ”तुम्हारी डबल प्रमोशन के लिये। अगर तुम इस टेस्ट में पास हो गयीं तो तुम्हें हम प्राइमरी सेक्शन से इधर ले आयेंगे, छठी जमात में।”
“सितम्बर में?” जीवण हरेन्द्रनाथ हैरानी से भर गयी। हमारे सालाना प्रमोशन मार्च के पहले सप्ताह में किये जाते हैं।
“क्यों नहीं?” सिस्टर होम्ज़ हँस पड़ीं, “मदर सुपीरियर जिस पर भी दयालु हो लें। तुम यह बताओ अगर दस सालों तक तुम्हारी सालाना फ़ीस, जो 15,000 रु. है, 500रु. दर के हिसाब से प्रतिवर्ष बढ़ती रहती है और तुम्हें अगर पूछा जाये, 500 रुपये प्रतिवर्ष बढ़ाने की बजाए तुम 3 प्रतिशत बढ़ौती लेना चाहोगी तो तुम क्या जवाब दोगी?”
“ज़रूर। 3 प्रतिशत बढ़ौती में मुझे कम फ़ीस पड़ जायेगी . . .”
“गुड,” मदर सुपीरियर मुस्करायीं, “क्या तुम किसी ऐसे पक्षी का नाम बता सकती हो जो तैरता है, उड़ता नहीं?”
“पैन्गुइन,” वह हँसी।
“इस काग़ज़ पर ‘बिलीव’ और ‘रिसीव’ के हिज्जे लिखो . . . ”
उसने सही लिखे दिये। ‘बिलीव’ में ‘ई’, ‘आए’ के बाद लिखा और ‘रिसीव’ में ‘आए’ से पहले।
“अगर अपने मोर का अंडा तुम्हें अपने पड़ोसी के घर पर मिले और तुम्हारा पड़ोसी उस पर अपना अधिकार जतलाये तो तुम मान जाओगी या उससे झगड़ा करोगी?”
“अंडे तो मोरनी देती है, मोर नहीं,” उसने तपाक से जवाब दिया।
हम सभी हँसने लगीं।
“तुम्हारे माता-पिता को हम यहाँ बुलाना चाहेंगे। उनका कौन्टैक्ट नम्बर इस काग़ज़ पर लिख दो . . .”
♦ ♦ ♦
“मैं हरेन्द्रनाथ हूँ,” लगभग दो घंटे बाद जीवणी के माता-पिता हाज़िर हो लिये, “और यह मेरी पत्नी हैं, मालती . . . ”
हमारे कान्वेन्ट में लड़कियों के माता-पिता का एक साथ स्कूल आना ज़्यादातर एडमिशन के समय ही हो पाता है। बाद में पैरेन्ट्स मीट के अंतर्गत ज़्यादातर माएँ ही अकेली आया करती हैं या फिर पिता लोग ही।
“बैठिये,” मदर सुपीरियर ने उनका स्वागत किया।
दोनों ही के क़द ठिगने थे, हरेन्द्रनाथ का पाँच फ़ुट चार इंच के क़रीब और मालती का उससे भी तीन इंच छोटा। दोनों के चेहरों का भाव असामान्य रूप से समकारी था। स्वाभिमानी एवं आत्मदीप्त। बल्कि उनमें अनूठा एक सुमेल भी रहा। मानो वे कोई हिम्म, भक्तिगीत, समस्वरता से गा रहे हों। पूरे तालमेल के साथ।
हरेन्द्रनाथ की सफ़ेद बुश्शर्ट और सलेटी पतलून की इस्तरी पुरानी थी, ताज़ी नहीं। उनकी तहें एक लम्बे अंतराल के बाद खोली गयी मालूम देती थीं। मानो वह कभी-कभार ही पहनी जाती थी। जैसे कि हम अपने स्पेशल कपड़े रोज़ नहीं पहनते। मालती की सलेटी और हरी चारखानी सूती धोती साफ़-सुथरी और कलफ़दार ज़रूर थी, लेकिन उसके हरे ब्लाउज की तरह कमज़ोर इस्तरी रखती थी। जगह-जगह पर इस्तरी की बराबर की थपकी माँगती सी। अन्य हिन्दू स्त्रियों के विपरीत उसके पूरे शरीर पर एक भी गहना न था। न कान में न कलाई में। हाथ में भी एक अँगूठी तक नहीं।
“आपकी बेटी को हम डबल प्रमोशन देना चाहते हैं,” मदर सुपीरियर ने कहा।
“नहीं,” हरेन्द्रनाथ ने तत्काल सिर हिलाया, ”यह उसके साथ अन्याय होगा . . .”
“क्यों?” मालती ललचायी, “मेहनती तो वह है ही और तेज़ भी। फिर?”
“नहीं, उस पर बोझ डालना ठीक नहीं।”
“और जो बोझ आप दोनों उठाये हैं, वह ठीक है क्या?” मदर सुपीरियर ने पूछा।
“हमारे कंधे बहुत मज़बूत हैं,” हरेन्द्रनाथ के चेहरे पर दृढ़ता आ बैठी, “वह अभी बच्ची है। उस पर बोझ डालना ठीक नहीं।”
“आपका अख़बार बंद हो चुका है। आप मुश्किल समय से गुज़र रहे हैं। यों सोचिये आपकी मेहनत का एक साल कम हो जायेगा . . .” मैंने उन्हें समझाना चाहा। लड़कियों के माता-पिता को समझने-समझाने का काम मेरे ही ज़िम्मे रहता है।
“हमें कोई जल्दी नहीं,” हरेन्द्रनाथ ने कहा, “हमारे पास सब्र है। हौसला है।”
“आप सभी फ़ैसले पति पर छोड़ देती हैं क्या?” मैंने मालती को उकसाना चाहा।
“हाँ। इनके सभी फ़ैसले सही होते हैं।”
“आप जीवणी के सगे माँ-बाप हैं?”
मैं आवेग में बह ली। एक अजीब अन्तर्बोध के तहत। जीवणी का चेहरा-मोहरा दोनों से एकदम अलग-थलग रहा। क्यों?
“सगे न होने से हम बेगाने नहीं हो जाते,” मदर सुपीरियर ने उन्हें दिलासा दिया, “हमीं को देखिए। हम इन लड़कियों की ‘मदर’ पुकारी जाती हैं, हमारी टीचरज़ इनकी ‘सिस्टर्ज़’। और हम इस सम्बोधन पर खरी उतरने की हर सम्भव कोशिश करती हैं।”
“सच बता दूँ?” मालती ने पति की ओर देखा।
“आपका सच हमारे पास सुरक्षित रहेगा,” मदर सुपीरियर ने मालती को प्रोत्साहित किया, “यक़ीन मानिये, आपके श्रम और प्रेम को मैं ईश्वर प्रेरित मानती हूँ और आपके साथ विश्वासघात करने को पाप के बराबर मानूँगी।”
“यह मेरे दूसरे पति हैं,” मालती फट पड़ी।
“जीवणी आपके पहले पति की संतान है?” मैंने पूछा।
“हाँ! लेकिन वह नहीं जानती। वह इन्हीं को अपना पिता मानती है।”
“जीवणी का ख़र्चा वह उठाते हैं?” मैं नहीं जानती इतनी आपत्तिजनक बात मेरी ज़ुबान पर कैसे चली आयी?
“जी नहीं,” मालती तिलमिलायी, “वे मर चुके हैं और यह भी जान लीजिए उन्हें ब्लड कैंसर था और उनके दवादरमन पर हरेन्द्र ने अपना रुपया भी लगाया था।”
“वे आपके मित्र थे?” मदर सुपीरियर ने प्रश्न में स्वराघात ‘आपके’ शब्द पर रहा।
“हाँ,” मालती ने हरेन्द्रनाथ से पहले ही जवाब दे दिया, उसका स्वर तरल हो आया था, “बहुत गहरे मित्र। और उन्हीं ने अपने अंतिम समय पर इच्छा व्यक्त की थी हरेन्द्र मुझे और जीवणी को सहारा दें।”
“देखिये,” हरेन्द्रनाथ उतावला हो उठा, “जीवणी मुझे अपना पिता मानती है, मुझ पर अथाह विश्वास रखती है उसका यह विश्वास टूटना नहीं चाहिये . . .”
“मैं शुरू ही में कह चुकी हूँ आपके भेद की गोपनीयता को हम पूरी तरह सुरक्षित रखेंगे,” मदर सुपीरियर अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुईं।
“जीवणी की डबल प्रमोशन के बारे में आपका निर्णय अंतिम है?”
“जी हाँ। अंतिम है। धन्यवाद,” हरेन्द्रनाथ भी मालती के संग उठ खड़ा हुआ।
हाथ मिलाने में अतिकृपण मदर सुपीरियर ने दोनों के संग हाथ मिलाया। मानो उन्हें सरल हृदय एवं निष्पाप जन होने का विश्वास दिला रही हों। प्रमाणीकरण दे रही हों
मैं पति-पत्नी के साथ बाहर चली आयी।
“आप कैसे आये थे?” मैंने पूछा।
दोनों ने मदर सुपीरियर के दफ़्तर के बाहर खड़ी एक रंगहीन स्कूटी की तरफ़ इशारा किया।
मुझे ध्यान आया यीशू मसीह के उन शब्दों का, ‘ब्लेस्ड आर द मर्सिफ़ुल फ़ौर दे शैल औबटेन मर्सी (दयालु जन धन्य हैं क्योंकि उन्हें भी दया सुलभ होगी)।’
“आप ईश्वर के चुनिन्दा लोगों में से हैं” एक भावप्रवण ‘हैंडशेक’ के साथ मैंने उन्हें विदाई दी।
“आप भी,” हरेन्द्रनाथ ने कहा।
टुटियल और डाँवाँडोल उस स्कूटी के स्टार्ट होने की चिक-चिक देर तक मेरे कान में बजती रही।