घोड़ा एक पैर

15-02-2024

घोड़ा एक पैर

दीपक शर्मा (अंक: 247, फरवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

(1)

अन्धे शीशों वाली दीवारें! 

गहरा यह सन्नाटा! 

अजनबी यह बिस्तर! 

मेरे हाथ-पैर इतने भारी क्यों हैं? 

“कोई है?” मैं पूछता हूँ। 

“मुझे पहचान रहे हैं?” नर्स की पोशाक में एक स्त्री मेरे ऊपर झुकती है, “आपके साथ अपनी दो ड्यूटी बितायी हैं मैंने . . .”

”ड्यूटी?” मैं हैरान हूँ। 

“आप एक अस्पताल में दाख़िल हैं और मैं यहाँ एक नर्स हूँ।”

उसकी उम्र पच्चीस और तीस के बीच है। नव-यौवना के संकोच से मुक्त। अधेड़ावस्था के अक्खड़पन से दूर। उसका चेहरा आरोग्यता और कमनीयता टपका रहा है। 

उसके हाथ में मेरा मोबाइल है। 

मैं अपना हाथ बढ़ाना चाहता हूँ लेकिन तभी देखता हूँ उसमें ट्यूब लगी है, जो स्टैंड से लटक रही एक बोतल से संलग्न है। 

“आपके बेटे मुझे यह दे गये थे,” वह मेरा मोबाइल मेरे सामने लहराती है, “मैं उन्हें बुला रही हूँ . . .”

“नहीं,” मैं प्रतिवाद करता हूँ, “पहले फ़ोन-लिस्ट . . .”

“क्लब?” वह स्क्रीन पढ़ती है। 

“नहीं। होम . . .”

लेकिन होम उसे मिलता नहीं। 

“आप घबराइए नहीं। अभी आपके बेटे को इधर बुला लेती हूँ। अपना मोबाइल नम्बर वह मुझे दे गये हैं . . .”

(2)

“पापा . . .” हरीश अस्पताल आया है। मेरा पहला बेटा। उसकी आवाज़ में गरमाहट नहीं। 

“सतीश?” फ़िक्र मुझे दूसरे बेटे की है जिसकी मांसपेशियाँ ख़त्म हो रही हैं। मस्कुलर डिस्ट्रौफ़ी है उसे। पिछले दस सालों से। 

“मैं हरीश हूँ, पापा,” वह झुँझलाता है। 

मैं आँखें खोलता हूँ। 

उसके चेहरे पर बेरुख़ी है, बेगानगी है। 

“सतीश,” मैं हरीश को पहचानना नहीं चाहता। उस की छवि और भूमिका उसकी पत्नी रेवती तय करती है। मैं आँख मूदँ लेता हूँ। 

“सतीश कौन है?” नर्स पूछती है। 

“मेरा छोटा भाई।”

“उसे इधर ले आइए।”

“वह यहाँ नहीं आ सकता . . .”

“क्यों नहीं आ सकता? क्या पेशाब की नली लगी है उसे? या ग्लुकोज़ की बोतल चढ़ रही है उसे? या फिर ऑक्सीजन मास्क जैसी एमरजेंसी है कोई?”

“मैं डॉक्टर से बात करता हूँ,” हरीश दरवाजे़ की तरफ़ बढ़ लेता है। 

तभी एक तेज़ गमक दरवाज़ा लाँघकर मुझ तक चली आती है। 

रेवती बाहर खड़ी रही क्या? 

गमक और तेज़ हो उठती है। 

मैं आँखें खोलता हूँ। 

सामने दीवार से लगे सोफ़े पर रेवती बैठ रही है। 

अपने धूप के चश्मे के साथ। जिसके बिना वह अब घर से बाहर क़दम नहीं रखती। 

मैं आँखें मूँद लेता हूँ। 

“आप पेशेंट की क्या लगती हैं?” नर्स जिज्ञासा दिखाती है। रेवती के पहनावे ने उसे ज़रूर झकझोरा है। गले से खुली उसकी टी-शर्ट तसमों जैसी पतली फ़ीतियों के सहारे पहनी गयी है। ट्रैक सूट के ऐसे लोअर के साथ जिसकी लम्बान घुटनों पर ही ख़त्म हो जाती है। 

“बहू हूँ . . .” रेवती हँसती है। 

“आपकी शादी कब हुई?”

“पिछले साल . . .”

“आपकी सास नहीं आयीं?”

“उन्हें मरे चार साल हो गये।”

हरीश डॉक्टर के साथ जल्दी ही लौट आया है। 

“आप धीरज रखिए,” डॉक्टर मेरा हाथ सहलाता है, ”दो-एक दिन और आराम कर लीजिए। फिर हम आपको आपके छोटे बेटे से मिलवा देंगे . . .”

“सतीश . . .” मेरी उतावली बढ़ गयी है, “मैं उसे देखना चाहता हूँ—तत्काल।”

“यह बोतल देख रहे हैं,” डॉक्टर कहता है, ”इसे ख़त्म हो जाने दीजिए। फिर हम इस स्टैंड को यहाँ से हटा देंगे ताकि सतीश आपको देखकर घबराए नहीं।”

मैं आँखें मूँद लेता हूँ। 

“गेट वेल सून, पापा!” रेवती की आवाज़ मेरे बहुत क़रीब है। 

लेकिन मैं आँखें नहीं खोलता। 

“हम फिर आएँगे,” हरीश कहता है। 

“सतीश . . .” मैं तड़प रहा हूँ। 

“आप बेवजह उसकी चिन्ता में घुल रहे हैं, पापा,” रेवती दोबारा हँसती है, ”जबकि वह एकदम ठीक है . . .”
उनके क़दम मुझसे दूर जा रहे हैं। 

बेरोक, बेलगाम, बेरहम . . . 

एक कहासुनी मेरे क़रीब चली आती है . . . 

(3)

“सतीश को आप अपने पास बुला लीजिए,” बदमिज़ाज़ किसी हथिनी की तरह चिंघाड़ती हुई रेवती मेरे पास आयी है, “वह मेरे बच्चों को परेशान कर रहा है . . .”

बारह हज़ार वर्ग फ़ीट में फैले हमारे बँगले के तीसरे हिस्से में रेवती अपना नर्सरी स्कूल खोले है। तीन हज़ार वर्ग फ़ीट का हमारा क़ालीननुमा लॉन उन बच्चों का प्ले ग्राउंड है और लगभग एक हज़ार वर्ग फ़ीट के दो बड़े हॉल उनके प्ले पेन। 

”हरीश कहाँ है?” घर की स्त्रियों के साथ बात करने से मैं बचता हूँ। उनके संग मेरे अनुभव कटु रहे हैं। मेरी माँ मेरे बचपन ही में मर गयी थी और मेरे पहले इक्कीस साल घातिनी जैसी अपनी सौतेली माँ की जली-कटी सुनते हुए बीते थे। शायद इसीलिए मेरे पिता ने मुझे जल्दी ही ब्याह दिया था और अपनी पुश्तैनी जायदाद से यह बँगला मुझे दे डाला था। अलग रहने के लिए। लेकिन मेरा दुर्भाग्य देखिए, अपने दहेज़ में दो सिनेमाघर लाने वाली मेरी पत्नी, प्रभावती, मेरे लिए दुगुना कंटक साबित हुई थी। एक तरफ़ अगर बदमिज़ाजी में वह मेरी सौतेली माँ को मात देती रही—तो दूसरी तरफ़ दायागत उसके माओटोनिया की वजह से सतीश मस्कुलर डिस्ट्रौफ़ी का शिकार बन गया। असल में प्रभावती के माओटोनिया की सुराग़रसानी मानो सतीश की बीमारी के शुरू होने के बाद ही हो पायी थी। सतीश की उम्र के सातवें ही साल जब उसकी पिंडलियाँ फूलने लगीं और घुटने लोप होने लगे तो डॉक्टर के पूछने पर प्रभावती भी फूट पड़ी, पिछले दो-तीन सालों से उसे उठने-बैठने में दिक़्क़त महसूस हो रही थी और आँखें तो ऐंठन की वजह से या तो बन्द नहीं होती थीं और जबरन जब वह उन्हें बन्द करती भी थी तो फिर बन्द की बन्द रह जाती थीं। 

“अपनी गौल्फ से हरीश अभी वापस नहीं आया है,” रेवती फिर चिंघाड़ी है, “इसीलिए आपसे कह रही हूँ, सतीश को अपने पास बुला लीजिए . . .।”

“मगर क्यों?” नर्सरी के बच्चों को लेकर सतीश में नया उत्साह था। वही सतीश जो अपने स्नान को लेकर अपने टहलुवे को दोपहर तक रोक रखता था, अब बच्चों के आने से पहले ही अपने स्नान से निपट लेता और अपनी कुर्सी पर आसीन हो जाता। पहियेदार उसकी यह कुर्सी ख़ास है। इसका संचालन बैटरी से होता है और बिना अपने टहलुए के सतीश इस पर आज़ाद घूम सकता है . . . जहाँ कहीं। 

“बच्चों से मुझे लगातार शिकायतें आ रही हैं। वह उन्हें अपनी कुर्सी ठेलने को बोलता है और अपने कमरे में ले जाता है . . .”

“तो? इसमें शिकायत करने वाली कौन-सी बात है?”

“मैं बता नहीं पाऊँगी। इट इज़ अनमेंशनेबल। लेकिन उसकी यह विकृति मेरे स्कूल को ले बैठेगी।”

“विकृति? कैसी विकृति?” मैं सन्न हूँ। डिस्ट्रौफ़ी के इस चरण पर विकृति? जब उसके प्रकोप ने बायें हाथ को छोड़कर उसके हाथ-पैर और पीठ की मांसपेशियों को चरबी में बदल डाला है? 

“पापा,” तभी सतीश की कुर्सी हमारे पास चली आयी है, “रेवती क्या बक रही है?”

“मुझसे क्यों नहीं पूछते?” रेवती बिगड़ती है, “डरते हो?”

“तुमसे डरूँगा?” सतीश चिल्लाता है—सतीश की ज़ुबान बहुत तेज़ है, “एक घुसपैठिए से, जिसे अपनी पहली तनख़्वाह इस घर से मिली है?”

यह सच है। सतीश की बीमारी को देखते हुए जब उसे स्कूल से हटा लिया गया तो उसकी पढ़ाई के लिए प्रभावती ने हरीश के क्लास टीचर को बुलवा लिया था जो बच्चों के घरों में ट्यूशन दिया करता था। लेकिन दो महीनों की ट्यूशन के बाद ही उसने अपनी इकलौती बेटी रेवती को इस काम के लिए पेश कर दिया था। प्रभावती को रेवती भा गयी थी, जो सतीश की ट्यूटरी के अलावा उसके भी कई निजी काम निपटा दिया करती। मुझे यक़ीन है इसी दौरान रेवती ने हरीश पर भी डोरे डालने शुरू कर दिये थे और प्रभावती का निहंग लाड़ला. वह मूढ़ अपनी माँ की मृत्यु के बाद रेवती पर अनुरक्त हो गया था। 

“तनख़्वाह मिली तो मेरी मेहनत की मिली और वह मेहनत मैं आज भी करती हूँ और मेरा दावा है, यह स्कूल मेरी मेहनत के बल पर चल रहा है। तुम्हारी इन बेजा हरकतों के बल पर नहीं,” रेवती अपने हाथ नचाती है। 

“क्यों?” सतीश फिर चिल्लाता है, “यह स्कूल तुम्हारे बाप की जायदाद है या मेरे बाप की? हम चाहें तो तुम्हें आज ही यहाँ से बाहर उखाड़ फेंकें!”

“मुझे उखाड़ फिंकवाओगे तो समझ लो यह स्कूल भी मेरे साथ ख़त्म हो जाएगा!”

“ख़त्म क्यों होगा? पापा चलाएँगे।”

“मुझे हँसाओ नहीं। पियक्कड़ पापा स्कूल चलाएँगे? जिनका आधा दिन नशा उतारने में बीतता है और आधा दिन नशा चढ़ाने में?”

पियक्कड़ कह रही है मुझे? मैं सन्न हूँ। प्रभावती की ज़ुबान बोलेगी दस्तरख़ान की यह बिल्ली? 

“पापा,” सतीश आपा खो रहा है, “आप चुप क्यों हैं? आप इसे अभी घर से बाहर उखाड़ फेंकिए . . .”

“मैं यहाँ से क्यों जाऊँगी? यह बँगला पापा का कमाया-बनाया तो है नहीं। यह उनके पिता का दिया-दिलाया है और क़ानून के मुताबिक़ पुश्तैनी जायदाद पर पोता होने की हैसियत से हरीश बराबर का हिस्सेदार बनता है, बराबर का मालिक।”

“हरीश हिस्सेदार है, हरीश मालिक है, लेकिन तुम तो हिस्सेदार नहीं, मालिक नहीं,” सतीश चीखता है, “तुम्हें वह तलाक़ दे देगा। यहाँ से निकाल बाहर करेगा . . .”

“वह न तुम्हारी बात सुनेगा न ही पापा की,” रेवती अपने हाथ फिर नचाती है, “वह मेरी बात सुनता है और मेरी ही सुनेगा।”

मेरे साथ बात कहने-सुनने की अनिच्छा हरीश को हमेशा रही है। पढ़ाई के दिनों में अपना जेब ख़र्च वह सीधा सिनेमा मैनेजरों से लेता रहा और शादी के समय रेवती के सामान के लिए भी उसने प्रभावती के छोड़े गये लॉकर और बैंक बैलेंस ही इस्तेमाल किये थे। इस स्कूल की रजिस्टरी में स्कूल की हैंड-बुक में, स्कूल के लैटर पैड में, ज़रूर तीन नाम इस्तेमाल किए गये हैं: मेरा, देखने भर को, बतौर चेयरमैन; हरीश का, कहने भर को, बतौर मैनेजर, और रेवती का, सर्वशक्तिमान, बतौर प्राधिकारी, सत्ताधारी; प्रिंसिपल। मुझे यक़ीन है इस सबके बावजूद उसके मन में क़ानून के दाँवपेंच का ज़रा भी अहसास नहीं, मेरी तरह। 

“पापा, आप कुछ बोलते क्यों नहीं?” सतीश मुझ पर बरसता है। 

मैं अपने मित्र वकीलों के नाम याद कर रहा हूँ जिनसे मुझे अब क़ानूनी सलाह लेनी होगी। 

“क्या हो रहा है?” तभी हरीश प्रकट होता है। 

मानो हम सब किसी नाटक के पात्र हैं और वह अपने संकेत पर चला आ रहा है। 

हमारे सख़्त चेहरे उसे सकते में ले आते हैं। 

शुरू ही से वह ढुलमुल तबीयत का रहा है। प्रभावती की बदमिज़ाजी के जवाब में जब कभी मैं अपनी पेटी या छड़ी का इस्तेमाल करता था तो वह अपने छिपने की जगह ढूँढ़ने लग जाया करता। सतीश की तरह वहाँ डटा नहीं रहता, जो उससे आठ साल छोटा होने के बावजूद ऐसे मौक़ों पर कभी प्रभावती की धोती पकड़कर बिलखने को तैयार रहता या फिर मुझे काट खाने पर उतारू। पहले अपने दाँतों से, बाद में अपनी ज़ुबान से। जो आज भी उतनी ही गति व तेज़ी पकड़ने में समर्थ है। मस्कुलर उसकी डिस्ट्रौफ़ी के रहते हुए। 

“रेवती हमें क़ानून पढ़ा रही है,” सतीश ही जवाब देता है। 

हमेशा की तरह हरीश और मैं एक-दूसरे से आँखें चुरा रहे हैं। 

जिस दिन से रेवती और हरीश इस घर में बिना कोई चेतावनी दिये, दूल्हा-दुल्हन के रूप में आये हैं, हम बाप-बेटे की बेआरामी कई गुणा बढ़ गयी है। 

“ऐसा है,” रेवती की चिंघाड़ एक कबूतरी की टुटरूँ-टूँ में बदल जाती है, “सतीश मुझ से बोल रहा है, यह हमारा घर है तुम्हारा नहीं। और मैं उससे पूछ रही हूँ, कैसे नहीं? उसे बता रही हूँ, कचहरी में हरीश ने बाक़ायदा मुझे अपनी पत्नी बनाया है, पत्नी का सर्टिफ़िकेट दिलाया है।”

रेवती की धूर्तता मैं बरदाश्त नहीं कर पाता . . . एक तीखी झुनझुनी मेरी बायीं बाँह में चढ़ आती है। एक तेज़ घुमटा मेरे सिर को अपने क़ब्ज़े में ले लेता है . . . एक धमाके के साथ मैं अपनी कुर्सी से नीचे गिर पड़ता हूँ . . . अपने होश गँवाने के लिए . . . 

इस अस्पताल में लाये जाने के निमित्त? 

(4) 

“मेरा मोबाइल कहाँ है?” इशारे से मैं नर्स को अपने समीप बुलाता हूँ। 

“आपकी बहू उसे वापस ले गयी।”

“ओह!” मैं कराह उठता हूँ। 

“बेटे-बहू से बहुत नाराज़ हैं?”

“तुम्हारी ड्यूटी कब ख़त्म होगी?”

“तीन बजे . . .”

“अभी क्या बजा है?”

“एक . . .”

“ड्यूटी के बाद क्या तुम मेरे घर जा सकती हो? सतीश को इधर लाने? मेरे मोबाइल को मेरे पास पहुँचाने?”

“क्यों नहीं? रजिस्टर में आपका पता लिखा है . . .”

“बदले में तुम कुछ भी माँग लेना . . .”

“नहीं . . . नहीं,” वह सकुचा जाती है। 

“तुम्हारे पति? बच्चे?” उससे अपना सम्पर्क मैं व्यक्तिगत बनाने की चेष्टा करता हूँ। उसकी सहायता के उपहार-स्वरूप। 

“वे नहीं हैं। लेकिन पिता का परिवार है। उसकी पूरी ज़िम्मेदारी है।”

“किस-किस की?”

“चार बहनें हैं। सभी ज़िन्दगी को अभी जाँच-परख ही रही हैं। कहीं बस नहीं रहीं। टिक नहीं रहीं।”

“तुम उन्हें मेरे पास लाना। ज़िन्दगी की गुत्थी मैं निपटा-सुलझा दूँगा . . .”

इस नर्स का नाम सविता है . . . 

पूरी दोपहर, पूरी रात मैं सतीश की बाट जोहता हूँ। सविता उसे अब लायी, अब लायी . . . 

कभी सोते में, कभी जागते में . . . 

एक विस्तार में मैं विचर रहा हूँ . . . 

उसमें जगह-जगह पर सफ़ेद बिस्तर बिछे हैं . . . 

हर बिस्तर की बग़ल में एक पहियेदार कुर्सी तैयार खड़ी है . . . 

बिस्तर सभी ख़ाली हैं और कुर्सियाँ सभी घिरी . . . 

“सतीश?” मैं पुकारता हूँ . . . 

“कार्ड नम्बर?” धमकी भरी एक आवाज़ मेरी ओर बढ़ती है। 

आवाज़ मेरी पहचानी हुई है . . . 

चेहरा भी . . . 

यह मेरे क्लब का दरबान है . . . 

जिस क्लब में अपवाद स्वरूप कुछ ही दिन छोड़कर पिछले पच्चीस सालों से मैं लगभग हर शाम गुज़ार रहा हूँ। टेनिस और तैराकी के लिए . . . ठंडी विहस्की और वाइन के लिए . . . भाप छोड़ रहे चिकन-टिक्का और फ़िश फिंगर्ज़ के लिए . . . मिसज़ दत्ता और मिसिज़ खान के संग गप्प के लिए . . . मिसिज़ लाल और मिसिज़ सिंह के साथ नाच के लिए। 

”मुझे पहचाना नहीं?” मैं दरबान से पूछता हूँ। 

उसका हाथ अब भी फैला है। 

ज़रूर वह ‘टिप’ चाहता है . . .

“एक मिनट,” मैं अपना बटुआ खोज रहा हूँ। 

मेरा बटुआ मेरी जेब में होना चाहिए लेकिन मेरे पास कोई जेब क्यों नहीं? 

न ही मेरी क़मीज़ में . . .

न ही मेरी पतलून में . . .

ये कैसे कपड़े पहन लिये मैंने, जिनकी जेब ही नहीं? 

”’कार्ड नहीं है क्या?” दरबान की धमकी तेज़ हो जाती है . . . 

अपनी घड़ी दे दूँ क्या? 

लेकिन मेरी कलाई ख़ाली है . . .

तत्काल मैं अपनी हीरे की अँगूठी सुनिश्चित कर लेना चाहता हूँ . . .

मगर मेरी उँगली ख़ाली है . . . 

और मेरी सोने की चेन? 

मेरी गरदन भी ख़ाली ही है . . .। 

(5)

सविता सुबह आती है . . . 

अकेली . . . 

“यहाँ से मैं सीधे आप ही के घर गयी थी। घर तो आपका ख़ूब बड़ा है—हमारे अस्पताल जैसी ऊँची दीवारें और ऊँचे गेट वाला—आपके गेट की घंटी मैंने देर तक बजायी भी लेकिन कोई बाहर नहीं आया . . .”

“शायद बिजली न रही हो?” मैं अनुमान लगाता हूँ। 

“नहीं, बिजली तो थी,” सविता कोई छूट देने को तैयार नहीं, ”ए.सी. की घर्र-घर्र, कूलर की खड़-खड़ साफ़ सुनी मैंने। गेट मैंने ख़ूब खटखटाया, अपने स्कूटर का हॉर्न भी ख़ूब बजाया लेकिन गेट पर कोई नहीं आया। ऐसे में वापस न लौटती तो क्या करती?”

“दोबारा नहीं गयीं?”

“गयी। सुबह फिर गयी। शाम को दोबारा इसलिए नहीं जा सकी क्योंकि मेरा घर बिल्कुल दूसरे सिरे पर पड़ता है। लौटते-लौटते रात हो जाती और बीच में रास्ता एकदम सुनसान है . . .”

“सुबह सतीश मिला?” मैं अपना धीरज खो रहा हूँ। 

“मिला। अपनी राजसी पहियेदार कुर्सी पर मिला। आपके घर के स्कूल के बच्चों की भीड़ के बीच मिला। उन्हें टाफ़ियाँ, पेंसिल और बिस्कुट बाँटता हुआ। मुझे देखकर मुझे भी कुछ पकड़ाने लगा, आज मेरा जन्मदिन है . . .”

“आज क्या तारीख़ है?” मैं पूछता हूँ। बच्चों के जन्मदिन मैं अक़्सर भूल जाता हूँ। 

“चौदह जुलाई। फिर कुछ न पकड़ने पर उसने अपनी कुर्सी ही का एक बटन दबाया और एक पहलवाननुमा आदमी आन प्रकट हुआ। उससे बोला, ‘इन्हें केक लाकर दो, यह बच्चों वाली गिफ़्ट नहीं ले रहीं।’ मैंने कहा, ‘आपके पापा आपके नाम की रट लगाये हैं, आपसे अभी मिलना चाहते हैं।’ वह बोला,‘जल्दी क्या है। एक-दो दिन में जब वह डिस्चार्ज हो ही रहे हैं तो मैं अस्पस्ताल क्यों जाऊँ? यहीं घर पर उनसे क्यों न मिलूँ?’”

“क्या यह सच है?” एक नयी ख़ुशी मेरे अन्दर करवट लेने लगी, “मैं कल तक डिस्चार्ज हो जाऊँगा?”

“सच बोलूँ? नहीं। अभी आपकी सी.टी. स्कैन की और आर्टियरोग्रैम्ज़ की रिपोर्ट आयी नहीं हैं। जब वे आएँगी, हमारे न्यूरोलॉजी के हेड उन्हें देखेंगे, परखेंगे फिर आपका इलाज शुरू करेंगे . . .”

“मुझे हुआ क्या है?”

“हमारी भाषा में आपको सेरिब्रल थ्रौम्बौसिस की वजह से तकलीफ़ शुरू हुई थी। एक ब्लड क्लोट आपकी बाँह से चलता हुआ आपके दिमाग़ तक जा पहुँचा था और वहाँ की एक धमनी के ख़ून का दौरा उसने रोक दिया था और आप बेहोश हो गये थे . . .”

“क्या यह सीरियस बीमारी है?”

“बिल्कुल नहीं। आप पूरी तरह से ख़तरे से बाहर हैं लेकिन अभी आपको आराम की सख़्त ज़रूरत है। इसलिए आपको कुछ दिन तो यहाँ रहना ही पड़ेगा।”

“मेरा बड़ा बेटा जानता है क्या?”

“आपकी बहू भी जानती है। लेकिन वे भी मजबूर हैं। केक की प्लेट वही मेरे पास लायी थीं और मुझे दूर ले जाकर बोली थीं, अपने देवर को हम रोज़ इसलिए परचा रहे हैं कि पापा जल्दी घर लौटने वाले हैं ताकि कहीं वह अस्पताल जाने की ज़िद न पकड़ ले। हमारी ‘स्विफ्फ़ट’ कार में उसकी पहियेदार कुर्सी तो आएगी नहीं ओर कुर्सी के बिना उसे लाएँगे भी तो मोटरकार से इस फ़ैमिली वार्ड की दूरी उसे कैसे पार कराएँगे?”

सविता नहीं जानती सतीश के पास अपना एक अलग टहलुआ है। उपायी और चतुर। उसकी घंटी का ग़ुलाम। उसकी जूझ, उसकी झोंक, उसकी पसन्द बराबर समझनेवाला। उसके मिज़ाज, उसके उतावलेपन, उसके उन्माद को ढोनेवाला। अपनी टेक में उसे थाम रखने में पूरी तरह से समर्थ। सतीश कहता है, “मुझे बिस्तर पर लेटना है।” वह उसे बिस्तर पर लिटा देता है। सतीश कहता है, “मुझे कुर्सी पर बैठना है।” वह उसे उसकी कुर्सी पर बिठला देता है। सतीश कहता है, “मेरे डी.वी.सी. प्लेयर पर यह कैसेट लगाना है।” वह लगा देता है। सतीश कहता है, “मेरे म्यूज़िक सिस्टम से यह कैसेट हटाना है।” वह हटा देता है। सतीश कहता है, “बाज़ार से यह लाना है।” वह वही ला देता है। 

मुझे चुपकी लग रही है। 

रेवती ने कहा और सतीश ने झट मान लिया? 

मुझसे मिलने की ज़रा-सी उतावली भी उसे नहीं रही? 

अनजानी एक खिन्नता, एक तपिश मुझे खलबलाने लगी है। 

मुझे तड़फड़ाती हुई, तपाती हुई . . . 

क्या यही मेरी फ़सल है? अपने-अपने स्वाद और स्वार्थ की हिलोर में निमग्न? 

“आप किस सोच में पड़ गये?” सविता मेरा हाथ थपथपाती है, “इन फ़ैमिली वार्डों की यही तो ख़ासियत है। आउट स्टेशन बूढ़े मरीज़ों की फ़ैमिली में से कोई एक या दो जन भले ही मरीज़ के साथ रहते हों वरना लोकल सभी बूढ़े मरीज़ आप ही की तरह अकेले रहते हैं। हम नर्सों की देख रेख में। आप ही बताइए, आज आपकी जगह आपके पिता यहाँ भरती हुए होते तो क्या आप ही उनकी बग़ल में बैठते?”

“नहीं। बिल्कुल नहीं बैठता। पिता क्या, किसी की बग़ल में नहीं बैठता। न ही कभी बैठा हूँ।”

मुझे ध्यान आता है प्रभावती के देहान्त की सूचना मुझे मेरे क्लब पर मिली थी। 

हरीश ने मेरे मोबाइल पर फोन किया था, माँ को अस्पताल से घर ले आये हैं। वह चल बसी हैं। 

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