अरक्षित
दीपक शर्माउनका घर इन-बिन वैसा ही रहा जैसा मैंने कल्पना में उकेर रखा था।
स्थायी, स्वागत-मुद्रा के साथ घनी, विपुल वनस्पति; ऊँची, लाल दीवारों व पर्देदार खुली खिड़कियाँ लिए वह बँगला पूरी सड़क को सुशोभित कर रहा था।
“साहब घर पर नहीं है,” अभी हम पहले फाटक पर ही थे, कि एक साथ चार संतरियों ने अपनी बंदूकें अपने कंधों पर तान लीं।
“हम तुम्हारे साहब से नहीं, तुम्हारी मेम साहब से मिलने आए हैं,” मैं अपनी पत्नी की ओट में खड़ा हो गया, “हम उनके रिश्तेदार हैं।”
“क्या रिश्ता बताएँगे, हुजूर?” सभी संतरियों ने तत्काल अपनी बंदूकें अपने कंधों से नीचे उतार लीं और हमें सलाम ठोंक दिया।
“मेम साहिब की बहन हैं,” मैंने पत्नी की ओर इंगित किया।
“हुजूर,” एक संतरी ने हमारे लिए फाटक खोला तो दूसरे ने आगे बढ़कर मेरे हाथ का सूटकेस अपने हाथ में ले लिया।
“आइए,” तीसरे संतरी ने हमें दूसरे फाटक की ओर निर्दिष्ट किया।
“कौन है?” दूसरे फाटक का संतरी अतिरिक्त रुखा व रोबदार रहा।
“मेम साहिब की बहन हैं,” सामान उठाए हमारे साथ चल रहे संतरी ने कहा।
“ये सही नहीं कह रहीं,” दूसरे फाटक के संतरी ने सिर हिलाया, “मेम साहिब की एक ही बहन हैं और उनसे हमारा खूब परिचय है..... वे खुद गाड़ी चला कर आती हैं, गहनों और खुशबुओं से लक-दक रहती हैं, ऐसे नहीं..…”
मेरी पत्नी का चेहरा-मोहरा अति सामान्य है तथा वह अपने परिधान व केश-भूषा की ओर अक्षम्य लापरवाही भी दिखाती है। उसे देखकर कोई नहीं जान सकता वह एक नौकरीशुदा कॉलेज लेक्चरर है।
“आप यह नाम अंदर अपनी मेम साहिब को दिखा आएँ। फिर हमसे कुछ बोलना,” अपना नाम मुझे अपनी रेल टिकट पर लिखना पड़ा। दूसरा कोई फ़ालतू काग़ज़ उस समय मेरे पास न रहा।
वे हमें एक रेल-यात्रा के दौरान मिली थीं।
एयर-कंडीशण्ड स्लीपर के कोच में पर्दे के उस तरफ़ जो चार सीटें रहीं, उनमें दो हमारी थीं और एक उनकी।
“आप शायद ऊपर वाली सीट पर जाएँगी?” मोहक व प्रभावन्वित महिलाओं पर भड़कना मेरी पत्नी अपना परम कर्त्तव्य मानकर चलती है, “नीचे की दोनों सीटें हमारी हैं।”
उस दिन गाड़ी बहुत लेट हो गई थी और हमारे स्टेशन पर शाम के सात बजे पहुँचने की बजाय रात के दस बजे पहुँची। दो दिन बाद पत्नी के भाई की शादी थी और हमने अपनी सीटें बहुत पहले बुक करवा रखी थीं।
“मैं खाना ख़त्म कर लूँ?” उनके चेहरे पर एक भी शिकन न पड़ी थी और वे पूरे चाव व इत्मीनान के साथ अपने मुँह में नियंत्रणीय निवाले भेजती रहीं।
“ज़रूर, ज़रूर,” मैंने तपाक के साथ कहा था।
एक ओर जहाँ सावकाश वर्ग के पुरुष मुझे गहरे कोप में भर देते हैं, वहीं सावकाश वर्ग की स्त्रियाँ मुझे शुरू से ही तरंगित करती रही हैं।
बचपन से ही मैंने अपने आस-पास की स्त्रियों को ‘बहुत जल्दी में’ पाया है।
‘फ़ुरसत’ से उन सबका परिचय बहुत कम रहा है। बचपन में माँ और बहनों को जब देखा, “जल्दी में’ ही देखा। मेरी पत्नी की जल्दी तो अक़सर उतावली और हड़बड़ी में बदल जाती है।
“आप बहुत कृपालु हैं,” वे हँसने लगी थीं।
“आपकी ख़ातिर नहीं, अपनी ख़ातिर,” मैंने चुटकी ली थी, “हमने अभी खाना नहीं खाया है। भूखे पेट बिस्तर बिछाने से बच गए।”
“आप अपना टिफ़िन दिखाइए,” वे एक बच्ची की मानिंद मचल ली थीं, “देखूँ, क्या-क्या छीना जा सकता है?”
उनके टिफ़िन के महक रहे पनीर के उन बड़े टुकड़ों में से जब कुछ टुकड़ों की मेरी पत्नी की और मेरी प्लेट में आ जाने की संभावना उत्पन्न हुई तो खीझ रही पत्नी की खीझ तुरन्त भाग ली।
पूरी यात्रा की अवधि में मैंने पाया अपनी बात कहने का उनके पास अपना ही एक विशेष परिमाण व मापदंड रहा। अपने श्रोता के अनुरूप वे एक मर्यादित सीमा के भीतर नियमित, आयोजित व सुव्यवस्थित बोल ही मुख से उचारती रहीं। उनके शब्द देववाणी सदृश वेद वाक्य न भी रहे, फिर भी उनके मुख से जो भी सुनने को मिला, सहज में ही, उन शब्दों ने सुनिश्चित रूप से एक असाधारण सोद्देश्यता तथा अलंकरण अवश्य ही धारण कर लिया।
“यह मेरे पति का कार्ड है,” जब हम लोग अपने स्टेशन पर उतरे थे तो उन्होंने हमें अपने न्यौते के साथ एक उत्साही मुस्कान दी थी, “मुझे मिलने जरूर आइएगा…”
“अचरज, सुखद अचरज!”
उत्कण्ठित व सदय मुद्रा के साथ हमारे सामने प्रकट होने में उन्होंने अधिक समय न लिया।
“आप यहाँ बैठिए,” उन्होंने हमारे लिए अपना बड़ा हॉल खुलवाया, “मैं अभी चाय का प्रबंध देखकर आती हूँ।”
“मैं चाय नहीं पीता,” पनीर के वे टुकड़े मैं अभी तक न भूला था, “कॉफ़ी मिलेगी क्या?”
“क्यों नहीं?” वे गर्मजोशी के साथ मुस्कुराईं, “अभी हाज़िर हुई जाती है।”
पत्नी की दिशा में देख कर मैं हँसने लगा। उधर घर पर जब भी कोई मेहमान आता है, पत्नी उसे खिलाने-पिलाने के मामले में कभी भी पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं कर पाती है।
“इन्होंने हमें देखकर मुँह नहीं बनाया,” मैंने जान-बूझ कर पत्नी को छेड़ा।
“मुँह क्यों बनाएँगी?” पत्नी ने गोल बात की, “चीजें बनाने और चीजें लाने के लिए जिसके एक इशारे पर बीसियों अर्दली हाजिर हो जाते हैं, वे अपने आदर-सत्कार में क्यों टाल-मटोल करेंगी?”
“यह केक मैंने कल खुद बनाया था,” एक सुसज्जित ट्रॉली के साथ वे जल्दी ही लौट आईं।
ट्रॉली के निचले खाने में तीन नेपकिन लगी प्लेटें व चटनियाँ रहीं तथा ऊपर वाले खाने में केक और नमकीन की तश्तरियाँ।
“लीजिए,” उन्होंने केक के दो बड़े खंड हमारी प्लेटों में परोस दिए, “कल हमारे बड़े बेटे का सोलहवाँ जन्मदिन रहा। बेटा तो, खैर, होस्टल में था, मगर इस केक के बल पर उसका जन्मदिन हमारे यहाँ भी मना लिया..…”
“केक बहुत बढ़िया है,” मैंने कहा, “मुँह में जाते ही हलक से जा लगता है…”
“और लीजिए,” उन्होंने मेरी प्लेट फिर प्रचुर मात्रा में भर दी।
“बच्चों के यहाँ न रहने पर आपके पास बहुत समय खाली रहता होगा,” पत्नी ने अपने ब्यौरे एकत्रित करने चाहे। अपने कुतूहल के विषय का सूक्ष्म सर्वेक्षण करने में वह निपुण है।
“सभी बच्चे क्या होस्टल में हैं?” मैंने पूछा।
“हाँ, सभी,” वे मुस्कुराईं भी और उदास भी हो चलीं, “उधर नैनीताल में जब वे दो साल डी.आई.जी. रहे तो बच्चों को उधर अच्छे, सही स्कूल मिल गए। इसीलिए कस्बापुर की इस पोस्टिंग में अकेले ही आए, उन्हें साथ नहीं लाए…”
“बहुत सन्नाटा है यहाँ,” पत्नी बोली, “क्या कभी आप डर भी जाती हैं?”
“नहीं,” उन्होंने अपनी गरदन को बल दिया, “मेरी रक्षा के लिए यहाँ बहुत अर्दली तैनात हैं..…”
“अपने खाली समय में चित्र बनाती हूँ,” कॉफ़ी खत्म होते ही उन्होंने अपनी नजर मेरे चेहरे पर गड़ा दी, “आप को मेरे चित्र बहुत तुच्छ लगेंगे, फिर भी मैं आपकी राय जानना चाहूँगी।”
“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है,” मैं तुरन्त उठ खड़ा हुआ, “आप दिखाइए तो।”
“इनकी राय मूल्यवान है,” पत्नी हँस दी, “आपके केक की लागत बराबर कर देगी..…”
“मैं जानती हूँ ये बहुत ऊँचे चित्रकार हैं,” उन्होंने मेरी ओर देखा, “इतने बड़े आर्ट्स कॉलेज में पढ़ाते हैं..... चित्रकला के सिद्धांत व इतिहास के बारे में क्या-क्या नहीं जानते होंगे?”
“मैं जरूर आपकी परिकल्पना भी देखना चाहता हूँ,” मैंने उत्साह दिखाया, “मुझे विश्वास है, आपके चित्र भी आपकी ही तरह भव्य व लोकोत्तर होंगे..…"
“लोकोत्तर?” वे समझीं नहीं।
“आउट ऑफ दिस वर्ल्ड,” मैं मुस्कुराया, "इस दुनिया के नहीं..... उस दुनिया के..... जहाँ पेड़ छाया देते हैं, फूल खुशबू और बादल इन्द्रधनुष..…”
उनके कमरे में चित्रबनाने का ढेरों सामान रहा: तेल-चित्रकारी हेतु कई तरह के छोटे-बड़े ब्रश, कैनवास, पेंट व रंगलेप।
सामने रखे एक चित्राधार पर रंग-बिरंगी एक लड़की के तदरूप चित्रण ने मुझे प्रभावित किया तो पीछे, दूर रखे एक चित्रफलक पर बने एक समूह ने बुरी तरह चौंका दिया।
समूह के प्रत्येक सदस्य के धड़ की तमगों वाली पुलिस यूनिफार्म के ऊपर बाघ के सिर टिकाए गए थे।
सिर सम्पूरित बाघवत् रहे: वही छलघाती मुद्रा, हिंस्र आँखें, अभिधावक जबड़े, आक्रामक दाँत व रक्त-पिपासु जिह्वा।
“साहब आ गए हैं,” एकाएक उस नीरव बँगले का सन्नाटा टूटा और चारों तरफ मोटरों के हो-हल्ले व अर्दलियों-संतरियों के तौबा-तिल्ले की प्रदर्शनी शुरू हो ली।
“आइए, उधर बैठते हैं,” उनके भव्य चेहरे की रंगत व स्नेहिल भंगिमा की सरगरमी तत्काल लुप्त हो गई।
लम्बे डग भरती हुई वे हमें पीछे के बरामदे में रखी बेंत की कुर्सियों तक ले गईं।
“आप लोग यहीं बैठिए,” उत्तेजनावश वे काँपने लगीं।
“कहाँ हो?” तभी एक रौबदार प्रकार के साथ पुलिस के जूतों की चीं-चीं हमारे निकट आने लगी।
“मैं अभी आ रही हूँ,” वे चीं-चीं की दिशा में लपक लीं।
“कौन लोग आए हैं?” पुलिसिया आवाज़ बहुत सख़्त रही।
“मेरे पुराने कॉलेज की एक छात्रा है,” उन्होंने सफ़ेद झूठ बोला और अपने वाक्यों के मुख्यांश दुहराने लगीं, “पुराने कॉलेज की एक छात्रा। साथ में उसका पति है, उसका पति..…”
“पति क्या करता है?”
“मैंने नहीं पूछा..... नहीं पूछा..... मुझे मालूम नहीं..... नहीं मालूम वह क्या करता है..…”
“उन्हें यहाँ का पता कैसे मालूम हुआ?”
“पिछली बार, जब घर गई थी तो ये दोनों रेलगाड़ी में मिले थे..... रेलगाड़ी में मिले थे,” उनका स्वर काँप-काँप गया।
“यहाँ का पता क्यों दिया?”
“आय एम सॉरी..... वेरी सॉरी..…”
“उन्हें फौरन नर्क में भेज दो। मुझे ड्राइंग-रूम में सात चाय चाहिए, तुम्हारे हाथ की। साथ में सैंड-विच और कुक्कू का बर्थ-डे केक।”
“केक रहने दीजिए,” वे घिघियाई, “मिठाई ज्यादा ठीक रहेगी..... हाँ, मिठाई ज्यादा ठीक..…”
“केक कहाँ गया?”
“उन दिनों यह बेचारी कई बार मेरे लिए केक लाती रहती थी..... बहुत बार केक लाया करती..... मैंने सोचा मिठाई तो घर में है ही..... मिठाई बहुत रखी है अभी..... सो केक इन्हें खिला दिया..... सोचा केक इन्हें ही खिला दूँ..…”
“केक को हीला बनाकर मैं उन वी.आई.पी. को अपने साथ लाया था,” पुलिसिया हाथ ने उनकी देह के किस भाग को चोट पहुँचाई, बीच में खिंचे परदे के कारण हम देख न पाए, “अब केक सामने न रखेंगे तो मेरी कितनी खिंचाई होगी..…”
“आय एम सॉरी..... रियली सॉरी, वेरी सॉरी..... वेरी-वेरी सॉरी..…”
“ठीक है। चाय-नाश्ता जल्दी भेजो,” पुलिस के जूतों की चीं-चीं फिर शुरू हो ली, "अब उनसे मिलने की कोई जरूरत नहीं। तुम रसोई में जाओ। उन दोनों को मेरा निजी अर्दली फाटक तक छोड़ आएगा..…”
“बिल्ली का रुआँ-रुआँ भीज गया है,” पत्नी से अपनी हँसी दबाए न दबाई गई, “अब वह हमें अपना मुँह न दिखाएगी..…”
“मेम साहिब इस समय फुरसत में नहीं,” तभी एक पिस्तौलधारी सिपाही प्रकट हो लिया, “आपको जाने के लिए बोला है।”
पिस्तौलधारी सिपाही की देख-रेख में हम दोनों फाटक पार कर सड़क पर आ गए।
“आप अपना काम देखिए,” मेरी पत्नी ने सिपाही से कहा, “हम रिक्शे से चले जाएँगे।”
आँधी की तरह सिपाही अंदर लपक लिया।
“इश्श, कैसी अजीब जगह थी!” मैंने अपना सामान एक रिक्शे पर टिका दिया, “बायें संतरी, दायें संतरी, इधर संतरी उधर संतरी और बीच में एक अरक्षित..…”
“भीगी बिल्ली,” मेरी पत्नी मेरे साथ रिक्शे पर बैठ कर अपनी समूची हीं-हीं खंडित करने में जुट गई।
1 टिप्पणियाँ
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आपकी कहानियाँ अद्भुत होती हैं। वे कहाँ से शुरू हो कर पात्रों के चरित्र के किस कोने के दर्शन करवा कर, किस बिंदु पर सितार की मीड़ जैसी, पाठक की चेतना में झनझनाती रहेंगी, कुछ पता नहीं होता। यह कहानी भी उसी तरह की अद्भुत शिल्प और भाव का उदाहरण है। बहुत बधाई!
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