सुस्त पाँव
दीपक शर्मा
साइकिल चला रही प्रमिला और उसकी भाँजी हमें पाँच बजे दिखाई दीं।
दुकान छोड़ कर बाबूजी और मैं अपनी ड्योढ़ी में आन खड़े हुए। उन्हें मकान का रास्ता दिखाने। जो ड्योढ़ी के छोर पर खड़ी सीढ़ियों पर स्थित था।
“इतनी देर लगा दी?” बाबूजी अपना रोष अपनी ज़ुबान पर ले आए।
जलबाला को उसकी टहलिन के हाथ सौंपने की उन्हें जल्दी थी।
“देर कहाँ हुई?” नर्स की नीरस पोशाक की बजाए प्रमिला अब चटकदार गुलाबी बुंदकी लिए हरी सलवार-कमीज़ पहने थी। उम्र भी उस समय उसकी कम लग रही थी: यही कोई तेइस-चौबीस साल। वह सुंदर थी। मांसल भी। कल्पना-विहारी मेरी अभिरुचि का स्वप्न-चित्र। प्रेम-वंचित मेरे मनोराज्य का प्रीति-भोज।
“पाँच बज रहे हैं,” उसे अपने समीप बुलाने की ख़ातिर हाथ उठा कर मैंने उसे अपनी घड़ी दिखानी चाही।
“मैं भी घड़ी पहने हूँ,” प्रमिला अपनी जगह से टस से मस न हुई, “दो बजे अस्पताल से छुट्टी पा कर पहले अपने घर गई थी। बहन के घर बाद में। भाँजी मेरी यह सगी नहीं। बहन मेरी इस की सौतेली माँ है। और उसकी बात इस के मन में बैठती नहीं। अड़ गई। पिता से मिले बग़ैर अजनबी-बेगानों के घर क़तई नहीं जाएगी। बहनोई की प्रिंटिंग प्रैस पुरानी बस्ती में है। वहाँ गई। उसे राज़ी किया। फिर उस ने इसे समझाने-बुझाने में समय लिया। देर तो फिर होनी ही थी . . .”
“स्कूल छोड़ने का दुख लग रहा है?” उस ‘भाँजी’ के चेहरे की शिथिलता को मैंने उसकी अनिच्छा से ला जोड़ा। प्रमिला की तुलना में उस के लिबास की काट व करीज़ कम दुरुस्त थी। बाल भी उस के बेसिलसिले असमतल कटे थे। तिस पर इतने घुँघराले कि उन में माँग या चोटी काढ़ने की गुंजाइश ही ख़त्म हो चुकी थी। उस के ठीक विपरीत प्रमिला के बाल उन्नीस सौ पचास के दशक के उन दिनों की अधिकतर लड़कियों की तरह रिबन में बँधे थे। बायीं ओर एक कैंची-मोड़ देकर दो चोटियों में।
“दुख क्यों होगा?” प्रमिला ने अपने दाँत चमकाए—उसकी दंत पंक्ति भी बहुत मोहक थी, सम और श्वेत—“यहाँ अच्छा खाने को मिलेगा। अच्छा पहनने को मिलेगा। अच्छा सोने को मिलेगा। मरीज़ के पास चलें?”
“किशोरीलाल,” बाबूजी ने हमारे नौकर को पुकारा। वह अभी अविवाहित था और रात में इधर ड्योढ़ी ही में सोता था। दिन में दुकान के छिटपुट काम निपटाने के साथ-साथ घर का फुटकर सामान भी ले आया करता।
“आइए,” किशोरीलाल तत्काल उपस्थित हो लिया, “बहूजी से मैं आप को मिलाता हूँ . . .”
(2)
उसी सुबह हम जलबाला को उसकी दवा-दरमन की पर्चियों और रिपोर्टों के साथ शहर के सब से बड़े डॉक्टर, डॉक्टर गर्ग, के पास ले कर गए थे।
“अपनी बहू को अच्छी देखभाल दीजिए। अच्छा भोजन खिलाइए। और एक साल तक पूरा आराम लेने दीजिए। इन्हें तपेदिक हो रहा है,” जलबाला के मैनटोक्स टेस्ट और फेफड़ों के एक्स-रे देख कर डॉक्टर गर्ग ने बाबूजी से कहा था।
“फिर तो उस के संग उठने-बैठने से हमें परहेज़ रखना चाहिए,” बाबूजी के चेहरे पर चिंता की कई रेखाएँ उभर आईं थीं। अपनी और मेरी तंदरुस्ती के बारे में वह बहुत चौकस रहा करते।
“बिल्कुल। बल्कि कम से कम तीन-चार महीने तो आप दोनों को इससे एकदम अलग रहना चाहिए। ताकि इस की छींक व खाँसी से वातावरण में फैले विषाले कीटाणु आप को अपनी चपेट में न ले लें। जब तक मैं इसे ऐंटी टी.बी. ऐंटीबायोटिक्स का ट्रीटमेंट दूँगा। इस के बुख़ार, इस के फेफड़ों व इस की थूक पर निरंतर नज़र रखूँगा।”
“ऊपर हमारी चौथी मंज़िल पर हमारे पास एक बरसाती है तो,” बाबूजी ने कहा था, “उसे हम आज ही ख़ाली करवा लेंगे और बहू को ऊपर खिसका देंगे। मगर मुश्किल यह है कि बहू के साथ ऊपर रहेगा कौन? इस के पिता तो अपनी तैनाती के सिलसिले में सपरिवार उधर नाइजीरिया में हैं। और वहीं रहेंगे भी। अगले तीन साल तक . . .”
“कहें तो अपनी किसी नर्स से पूछ देखूँ?”
“क्यों नहीं?”
प्रमिला तभी हमारे पास लाई गई थी।
“मेरी एक भाँजी है,” डॉक्टर गर्ग के पूछने पर उस ने उत्साह दिखाया था, “दसवीं में पढ़ती है। मरीज़ को दवा खिला देगी। उस का बुख़ार देख लेगी और मरीज़ के साथ आप के घर पर रह भी लेगी . . .”
“दुरुस्त रहेगा,” डॉक्टर गर्ग ने संतोष जतलाया था, “और फिर हर चौथे-छठे रोज़ दवा में अदल-बदल करने और बहू का हाल पूछने मैं भी तो आता रहूँगा।”
“आप अपना पता लिखवाइए,” प्रमिला ने अपने हाथ में कॉपी और पेंसिल पकड़ ली थी।
“साईंदास रोड पर मरफ़ी रेडियो की हमारी एजेंसी है,” बाबू जी ने बताया था।
“देखी है। बिल्कुल देखी है।”
सन् उन्नीस सौ पचास में हुई मेरे दादा की मृत्यु के बाद गाँव की अपने हिस्से आई ज़मीन-जायदाद बेच कर बाबूजी कस्बापुर में आन बसे थे। अपने भाइयों से दूरl
“वहीं आना है। नीचे हमारी दुकान है और ऊपर हमारी रिहाइश।”
(3)
प्रमिला जल्दी ही हमारी बरसाती से लौट आई। उसे देख कर हम पिता-पुत्र फिर ड्योढ़ी में चले आए।
“लड़की को मैंने सब समझा दिया है,” प्रमिला ने कहा, “लेकिन घर के बाहर वह कभी रही नहीं। इस लिए अभी उसे थोड़ी मदद की ज़रूरत रहेगी . . .”
“कैसी मदद?” बाबूजी ने पूछा।
“जैसे कोई स्त्री रहती . . .”
“हमारा किशोरीलाल सब देख लेगा।”
“यहाँ घर में, परिवार में कोई स्त्री नहीं?” प्रमिला ने जिज्ञासा प्रकट की।
“मेरी माँ मेरे बचपन में ही चल बसी थी,” मैंने कहा, “जब मैं चार साल का था . . .”
“आपने दूसरी शादी नहीं की?” प्रमिला ने बाबूजी की दिशा में अपनी आँखें घुमाईं। चोचलहाई हाव-भाव के साथ।
“नहीं की,” बाबूजी ने सपाट स्वर में उत्तर दिया। स्त्रियों में उनकी रुचि शून्य के बराबर थी।
“आपकी ससुराल में भी कोई स्त्री नहीं?” प्रमिला ने अपना ध्यान मुझ पर केंद्रित कर लिया, “जो घर को रोज़ देख-सँवार सके।”
“नहीं,” मैंने कहा।
“फिर मुझी को आना पड़ेगा? सुबह-शाम?” प्रमिला ने जलबाला की टहल-अभियान में अपनी सहचारिता निश्चित करनी चाही।
“बिल्कुल,” उस के चेहरे पर मैंने अपनी आँखें गड़ा लीं, “आप क्यों नहीं आयेंगी?”
(4)
शाम होते ही बाबूजी ऊपर मकान में चले गए और मैं भोजनालय से भोजन लाने। बाबू जी के प्रोत्साहन पर।
अस्पताल से लौटते ही उन्होंने संकेत दिया था, “अपनी रसोई अब हमें अलग रखनी होगी। बहू के हाथ के खाने का तो सवाल ही नहीं उठता। उसकी टहलिन के हाथ का भी नहीं खाएँगे। देसी घी के किसी भोजनालय से माहवार बाँध लेंगे। सस्ता भी पड़ेगा और सेहत का नुक़्सान भी न होगा। बहू और उसकी टहलिन किशोरीलाल से अपना सामान अलग से मँगाएँ-खाएँ . . .”
गोभी-आलू और मूँग की दाल में हींग का ताज़ा छौंक लगवा कर मैंने दस चपातियों का ऑर्डर दिया और उन के अपने टिफ़िन में बंद होते ही साईं दास रोड पर लौट लिया।
अभी मैं सड़क पर ही था कि ड्योढ़ी का एक वार्तालाप मेरे कानों से आ टकराया।
स्त्री-स्वर में रोदन-रुद्ध रहा, “उन दो डायन बहनों की हर बात आप को क्यों माननी होती है और फिर मुझे मनवानी होती है . . .”
पुरुष-स्वर में अनुराग व भर्त्सना एक साथ छलका रहा, “इधर मैंने तुम्हें तुम्हारी भलाई के लिए भेजा है। तुम्हारे आराम के लिए . . .”
ड्योढ़ी में प्रमिला वाली लड़की एक अजनबी के साथ खड़ी थी।
“किशोरीलाल . . .” मैंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
“वह घर पर नहीं हैं,” घबराहट से लड़की की आवाज़ लड़खड़ाई, बाज़ार से सामान लेने गए हैं . . .”
“ऊपर आपने खाना खाया?” मैंने पूछा। उसकी कृतज्ञता मापने हेतु।
“आपकी पत्नी ने कुछ मँगवाया तो है,” उस ने लापरवाही और विरक्ति दिखलाई।
“आप कौन हैं?” मैं अजनबी की ओर मुड़ा।
“मैं इस का पिता हूँ। इस की नई जगह देखने आया था। कुछ सामान भी इसे देना था,” अजनबी ने अपने हाथ वाला झोला ऊपर उठा कर मुझे दिखाया।
अड़तीस और चालीस के बीच की उम्र लिए उस का चेहरा रोबीला था। अपनी मूँछ को उस ने ताव भी दे रखा था। उसकी कमीज़ का निचला भाग उसकी पैंट में ठुंसा था। जिसे एक पेटी की दक्ष सँभाल ने सुव्यवस्थित दिखावट दे रखी थी।
“क्यों नहीं?” मैंने कहा। अपने स्वर में मैं अतिरिक्त नरमी ले आया था। उसकी अवहेलना करना कठिन था।
“आप से कुछ तय करना था,” वह मुस्कराया।
“क्या?”
“तू जा,” उस ने हाथ का झोला लड़की को पकड़ा दिया, “जा कर आराम कर . . .”
सुस्त पाँव वह सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।
“शशि को कितनी तनख़्वाह देंगे?” वह शशि किसे कह रहा था, पूर्ण रूप से मुझे समझने में समय लगा।
मुझे हैरानी हुई, प्रमिला की कथित ‘भाँजी’ की चर्चा हम दिन भर ‘लड़की’ ही के नाम से करते रहे थे। किशोरीलाल समेत।
“आप कितनी चाहते हैं?”
“डेढ़ सौ रुपया माहवार।”
“क्या?” मैं चौंक गया। सन् छप्पन का रुपया ऊँचा भाव रखता था।
“हम एक पढ़ी-लिखी फ़ैमिली हैं। अपनी मेहनत का उचित मूल्य जानते हैं। मेरी पहली पत्नी, शशि की माँ, एक स्कूल टीचर थी। मेरी दूसरी पत्नी भी मिडल पास है और घर में ट्यूशन पढ़ाती है। उसकी बहन, प्रमिला, से तो आप मिल ही चुके हैं। जो विक्टोरिया जुबली हॉस्पिटल से ट्रेनिंग पाए है . . .”
“मैं अपने पिता से पूछ कर आता हूँ,” घर के रुपए-पैसे का हिसाब और विखंडन बाबूजी के पास रहा करता, “आप यहीं रुकिए . . .”
टिफ़िन मेज़ पर टिका कर मैंने बाबूजी को नीचे का पूरा हाल कह सुनाया।
“डाक्टर गर्ग से बात करता हूँ,” बाबूजी बैठक में चले गए। हमारी दुकान के टेलिफ़ोन का विस्तारण इधर हमारी बैठक से जुड़ा था।
बाबूजी जल्दी ही बैठक से लौट आए।
“डाक्टर गर्ग का कहना है, डेढ़ सौ रुपया हमें देना ही पड़ेगा। छूत वाले रोग की टहल का ज़िम्मा कोई कम रुपयों में क्यों लेगा? सेहत अपनी जोखिम में क्यों डालेगा?”
“बाबूजी आपकी बात मान गए हैं,” सीढ़ियों ही से मैंने अपनी स्वीकृति नीचे ड्योढ़ी में ढकेल दी।
“ठीक है,” अधिकार-पूर्ण स्वर में सहमति नीचे से ऊपर फेंक दी गई, “मुनासिब है।”
मैं हाथ धोने चल दिया। मुझे भूख लगी थी।
(5)
आगामी दिनों ने एक अजीब मोहनी मुझ पर आन लादी। घर देखने-सँवारने के बहाने प्रमिला जैसे ही मेरे कमरे की दिशा में जाती, मैं उस के पीछे हो लेता।
इहलोक निवासिनी जलबाला के लिए दांपत्य का अर्थ लोकगत घरदारी से ज़्यादा जुड़ा था, प्रेम से कम।
उस के ठीक विपरीत अलौकिक प्रमिला केवल प्रेम को ही प्रमुख स्थान दिया करती। खुले दिल से प्राकृतिक नियम स्वीकारती और उन्हें निष्पादित करती।
“मैं प्रमिला से शादी करूँगा,” हिम्मत बटोर कर एक दिन मैंने बाबूजी को जा घेरा।
“मूर्ख,” बाबू जी ने मेरी पीठ पर एक हल्का धौल जमाया, “तू नहीं जानता जिस दिन से बहू की बीमारी का नाम जगज़ाहिर हुआ है, तेरे नाम पर बिरादरी के सारे आदमी अपनी पगड़ियाँ रँगवाने में लगे हैं और सभी औरतें अपनी साढ़ियाँ कढ़वाने में . . .”
“मैं प्रमिला की बात कर रहा हूँ . . .”
“तेरे लिए बड़ा घर चुनेंगे। बड़ा ख़ानदान देखेंगे। अपने हाथ मज़बूत करेंगे। बस तू कुछ दिन और सब्र से गुज़ार ले। बहू का इलाज तीन-चार महीने तो चले। फिर घोड़ी सजा कर तुझे उस पर बिठलाना तो है ही . . .”
“बहू इस बार पढ़ी-लिखी बेशक कम हो,” बाबूजी और अपने बीच की झिझक मैंने परे धकेल दी, “लेकिन हृष्ट-पुष्ट ज़रूर हो . . .”
जलबाला से मुझे ब्याहते समय उन्होंने उस के साथ आने वाली एम्बेसेडर देखी थी, चार किलो सोना देखा था, उसकी शक्ल-सूरत नहीं। उसे बेशक बदसूरत तो नहीं कहा जा सकता था, मगर वह बहुत दुबली थी। एकदम सींकिया। लावण्य उस में सिरे से ग़ायब था। पढ़ाई उसकी ज़रूर हमारे परिवार की सभी बहू-बेटियों से ऊँची थी। वह इंटर पास थी और रेडियो के बाद अगर उसे कोई चीज़ पसंद थी, तो क़िस्सा-कहानी। उसकी अच्छी सेहत के दिनों में उसे जब भी मैं बाज़ार ले कर गया था तो निरपरवाद रूप से उस ने चार-छह उपन्यास तो ख़रीदे ही ख़रीदे थे।
“खुश रह,” हँस कर बाबूजी ने मेरी पीठ थपथपाई।
(6)
अगली साँस लेने से पहले मैं अपने जीने की ओर बढ़ चला।
हमारे जीने में छह पड़ाव थे। हमारी बरसाती का दरवाज़ा छठे पड़ाव पर पड़ता था।
इधर पाँचवाँ पड़ाव ही मेरा समापक गंतव्य स्थान बन गया था।
जब भी मुझे जलबाला का हाल लेना होता यहीं से मैं उसे आवाज़ देता और वह छठे पड़ाव पर आन खड़ी होती।
“जलबाला,” मैंने पाँचवें पड़ाव से पुकारा।
बरसाती का दरवाज़ा बंद था।
अपना दरवाज़ा वह कब से बंद रखने लगी थी?
मुझे इधर आए कितने दिन हो गए थे?
चार? पाँच? या फिर छह?
“जलबाला,” मैंने फिर पुकारा।
मेरी आवाज़ सुन कर उस ने अपने रेडियो का वौल्युम बढ़ा दिया और रेडियो पर बिमल राय की फ़िल्म ‘देवदास’ का गाना ‘आन मिलो, आन मिलो श्याम साँवरे . . .’ मुझ तक चला आया।
रेडियो का जलबाला को एक उन्माद की सीमा तक शौक़ था। बल्कि हमारी अपेक्षा के विपरीत जलबाला ने रहने की अपनी अलग व्यवस्था का स्वागत भी अपने इसी उन्माद के अंतर्गत किया था: उधर बरसाती में मेरा रेडियो तो पहुँचा देंगे न?
असल में बाबूजी के सामने उसे रेडियो चलाने की पाबंदी थी। जिन पहियों वाली शेल्फ़ पर सजा कर मेरे ससुर ने उसे हमारी ही दुकान की ख़रीद का रेडियो दिया था, उस के पहिए हमारी बैठक में टिकाए गए थे।
अपनी दुकान पर ग्राहकों को संतुष्ट करने हेतु बाबूजी जो ए.एम. (ऐंप्लीटयूड मौडयुलेशन), आवृत्ति के आरोह-अवरोह, को ट्यून करने के अंतर्गत दिन भर ध्वनि-तरंगों की बमबारी अपने कानों पर लेते तो घर के अंदर उस से छुट्टी पा लेना चाहते। बाबूजी के घर में क़दम रखते ही जलबाला को रेडियो बंद रखने की मजबूरी रहा करती।
जीने की आख़िरी दस सीढ़ियाँ पार कर मैं दरवाज़े पर पहुँच लिया।
मेरे दरवाज़ा खटखटाते ही तत्काल रेडियो बंद कर दिया गया और एक पदचाप दरवाज़े की दिशा में बढ़ ली।
पदचाप सुनते ही वे दसों सीढ़ियाँ मैंने लपक कर फलाँगी और जीने के पाँचवें पड़ाव पर पहुँच कर रुक लिया।
दरवाज़े पर पहले जलबाला का नीला दुपट्टा लहराया, फिर काले फूलों वाला उसका सलवार-कमीज़।
ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्मों के उस ज़माने में जलबाला के ज़्यादा कपड़े उनकी हीरोइनों की तरह दो ही रंग लिए रहते। जिन में एक हल्का होता और दूसरा गहरा। अभी भी उस के अधिकांश कपड़े उस के मायके वालों ही के थे। अपने दहेज़ में उसे गहना-लत्ता बहुत मिला था। गहना बाबूजी ने अपनी तिजोरी में डाल दिया था। लेकिन कपड़ों पर जलबाला अभी भी पूरा कब्ज़ा जमाए हुए थी।
दरवाज़ा खुला तो मैंने जाना जलबाला के कपड़ो में शशि खड़ी थी।
खाँसती हुई।
जलबाला कहाँ है? मैंने पूछा।
“वह आराम कर रही हैं,” वह फिर खाँसी। लेकिन इस बार उस ने अपनी खाँसी जलबाला वाले दुपट्टे से ढाँप ली।
उस ने यह आदत ज़रूर जलबाला से ली थी। जब भी जलबाला खाँसती, अपना मुँह ओट में ले जाती। रुमाल की, दुपट्टे की या साड़ी के पल्लू की या फिर उन में से यदि कुछ भी पास न रहता तो अपने हाथ ही की ओट ले लेती।
बल्कि अपनी खाँसी ख़त्म होने पर बाक़ायदा ‘सौरी’ भी बोलती। डॉक्टर गर्ग अक्सर हँसा करते, “आपकी बहू अंग्रेज़ी शिष्टाचार की पूरी-पूरी भक्तिन है। घने कष्ट में भी सारी और थैंक यू कहना नहीं भूलती।”
“जलबाला को बोलो, मिस्टर फ़िफ़्टी फ़ाइव आए हैं,” प्रसन्नचित्त पलों में मैं अपने को मिस्टर फ़िफ़्टी फ़ाइव कहा करता और जलबाला को मिसेज़ फ़िफ़्टी फ़ाइव। संयोगवश सन उन्नीस सौ पचपन ही में हमारी शादी हुई थी और साथ देखी गई हमारी पहली फ़िल्म भी रही गुरुदत्त की ‘मिस्टर ऐंड मिसेज़ फ़िफ़्टी फ़ाइव’।
“आपने मुझे बुलाया?”
जलबाला के लिए मुझे ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी।
लेकिन जलबाला को देख कर मुझे गहरा धक्का लगा।
दहशत की हद तक।
अस्त-व्यस्त, बिखरे बाल लिए वह अभी भी रात वाले कपड़े पहने हुए थी। एकदम लापरवाह ढंग से। सिलवटदार उस के ड्रेसिंग गाउन का कॉलर उसकी ठुड्डी छू रहा था और नाइट सूट की बुशर्ट का कॉलर उसकी गर्दन पर अलग उठा खड़ा था। दोनों ही कॉलर थपकी माँग रहे थे। सुव्यवस्थित दिखाई देने के लिए। तिस पर उस के ड्रेसिंग गाउन का रंग बैंगनी था और नाइट सूट का पीला। जब कि एक बार जलबाला ही ने मुझे बताया था कि पीला रंग बैंगनी रंग को तरेरता है। इन्हें एक साथ नहीं पहना चाहिए। अपने दहेज़ में जलबाला न केवल सात नाइट सूट ही लाई थी, बल्कि उन से मेल खाते हुए सात ड्रेसिंग गाउन भी। उन दिनों स्त्रियोचित नाइट सूट पुरुषों के नाइट सूट जैसे ही रहा करते: बुशर्ट और पाजामा। केवल उनके कपड़े और काट में अंतर रहा करता।
“तुम अभी तक नहाई नहीं,” मैंने आत्मीय स्वर में पूछा, “ग्यारह बज रहा है और फिर ऊपर से इतनी गर्मी भी पड़ रही है . . .”
उस समय मई का महीना चल रहा था।
“नहीं,” उस ने अपना उत्तर संक्षिप्त रखा।
“तुम तो हमेशा साफ़-सुथरी रही हो। तरतीब-पसंद रही हो। अभी मैं किशोरीलाल से कहता हूँ, तुम्हारी शशि से बोले, सुबह होते ही तुम्हें तैयार कर दिया करे . . .”
वह खाँसने लगी।
बेलगाम और अंधाधुंध।
अपना मुँह पूरा खोल कर . . .
अजनबी, अनजानी एक अलग ही खाँसी . . .
जिस की खौं-खौं में उस के फेफड़ों और कंठ की खलबली की गड़गड़ाहट ही नहीं थी . . .
एक फौं-फौं भी थी: बदमिज़ाज किसी हथिनी की चिंघाड़ जैसी . . .
एक भौं-भौं भी थी: चिड़चिड़ी किसी कुतिया की भौंंक की भाँति . . .
एक हुंआ-हुआं भी थी: उसी कुतिया की पूर्वजा कटखनी किसी मादा भेड़िया की गुर्राहट मानिंद . . .
मानो आदिम किसी भाषा में वह मुझे वह मुझे लताड़ रही थी . . .
मुझ पर आरोप लगा रही थी: विकट व हिस्रं . . .
मगर क्यों?
अगर हवा, धूप और चाँदनी उसे छोड़ रही थी तो क्या मेरे कारण?
अगर आसमान और ज़मीन उसे अपने बीच से उसे उखाड़ रहे थे तो क्या मेरे कारण?
मेरे संग इतनी धृष्टता?
शिष्टाचार की इतनी अवज्ञा?
तपेदिक ने उसे इतनी ज़ुर्रत दे दी?
इतनी बेलिहाज़ी?
अक्षम्य! अक्षम्य!! अक्षम्य!!!
छी . . .छी . . .छी . . .
मेरे पैर सीढ़ियाँ नापने लगे।
(7)
लेकिन तीसरी मंज़िल के दरवाज़े को सामने पाते ही ठिठक लिए: अनायास।
दरवाज़े पर ताला लगा था, जिस की चाभी अब बाबूजी के पास नीचे रहा करती। जलबाला के सामान की सुरक्षा हेतु।
गृहस्वामिनी के रूप में जलबाला ने यही दरवाज़ा सब से पहले लाँघा था।
तीसरी इस मंज़िल में दो कमरे और एक रसोई थी। दोनों ही कमरों में पाँच-पाँच खिड़कियाँ थीं जो साँई दास रोड पर खुलती थीं।
“सभी में पर्दे होने चाहिए,” पहला अवसर मिलते ही जलबाला ने याचना की थी।
हमारे दांपत्य जीवन का उस का वह पहला आग्रह था और बाबूजी के विरोध के बावजूद मैंने उसे कार्यान्वित भी किया था।
बेशक उत्तरवर्ती उस के कई आग्रह अमान्य रहे थे। ज़्यादा अनदेखी उन आग्रहों की हुई थी जिन के अंतर्गत वह अपने रिश्तेदारों से संपर्क क़ायम रखना चाहती थी। बाबूजी उसे उनके पास जाने नहीं देते थे और जब कभी उनमें से कुछ जन उसे मिलने आते भी तो वह नीचे अपनी दुकान ही से उन्हें रवाना कर देते, “अब वे बहू के सगे तो हैं नहीं। सभी बाहरी, बेगाने लोग हैं। उन के साथ बहू का लहराना-फहराना मुझे क़तई पसंद नहीं . . .”
शाम को जैसे ही प्रमिला मुझे अपनी साइकिल खड़ी करती हुई मुझे दिखाई दी, मैं दुकान के बाहर लपक लिया और मैंने अपनी बेचैनी उसे कह डाली, “मैं समझ नहीं पा रहा जलबाला की सेहत किधर जा रही है?”
“आप क्या सुनना चाहते हैं?” प्रमिला ने चुहल की, “उनकी सेहत गिर रही है या सँभल रही है?”
“सच बताओ,” मैं गंभीर बना रहा।
“सच यह है, तपेदिक के जीवाणु बहुत घातक होते हैं। तेज़ दवाइयों के असर से कुछ समय तक उन्हें निष्प्रभावी तो किया जा सकता है मगर उन्हें हमेशा के लिए ख़त्म नहीं किया जा सकता। एक बार वे डेरा डाल लेते हैं तो फिर खिसकते नहीं। मरीज़ की सेहत डोली नहीं कि वे फिर सक्रिय हो जाते हैं। फिर से धावा बोलने के लिए।”
“मालूम है शशि भी खाँसने लगी है . . .”
“आप के मन में बाबूजी की क़द्र बढ़ जानी चाहिए। उन्हीं की सूझ-बूझ के कारण आपकी पत्नी की खाँसी शशि बाँट रही है, आप नहीं . . .”
“बाबूजी की ख़बरदारी वाक़ई ज़ोरदार है,” मैं सहज हो लिया, “जलबाला की खाँसी पर उन्हीं का ध्यान पहले गया था और ध्यान जाते ही वही उसके सभी ज़रूरी टेस्ट करवाए थे और फिर डॉक्टर गर्ग के पास ले गए थे।”
“मेरी क़िस्मत अच्छी थी कि जो डॉक्टर गर्ग के पास गए, किसी अन्य डॉक्टर के पास नहीं।”
एक हल्कापन मेरे दिल में उतरने लगा और मैंने पुनः अपने को अपनी मोहनी को सौंप दिया।
(8)
मोहनी मेरी टूटी जिस दिन शशि के अचेत हो जाने की सूचना के साथ किशोरीलाल नीचे दुकान पर आया।
बाबूजी के फ़ोन पर डॉक्टर गर्ग घर पर चले आए।
“ज़रूर यह लड़की पहले भी तपेदिक की मरीज़ रह चुकी है,” डॉक्टर गर्ग ने शशि को जाँचने के बाद घोषणा की, “और पीछे छूटा इसका तपेदिक यहाँ रहने से लौट आया है। इसे फ़ौरन अस्पताल ले जाना होगा। इसका फ़ौरन इलाज न हुआ तो यह मर सकती है। फ़रौम फ़ेलियर आव वेंटिलेशन (हवादारी के अभाव के कारण)। फ़रौम जनरल टौक्सीमिया ऐंड एगज़र्शन (व्यापक विषाक्तता और शिथिल ता के कारण)।”
“इस पर आपका ध्यान कैसे नहीं गया?” बाबूजी ने डॉक्टर गर्ग से स्पष्टीकरण माँगना चाहा, “इसे यहाँ रहते दो महीने होने को आए और आप इस बीच इस से तो मिले ही मिले होंगे . . .”
“आपकी बहू के साथ उस समय प्रमिला रहा करती, वह नहीं। एक दो बार मैंने पूछा भी, उसकी भाँजी दिखाई नहीं दे रही तो प्रमिला ही जवाब दे दिया करती, वह नहा रही है . . .”
“आप अपनी बात करते हो?” किशोरीलाल ने सिर धुना, “हमारी जड़मति देखिए। रोज़ उस से आमना-सामना होता था, लेकिन उधर मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया। उसकी सुस्त चाल पर। उस के पीले चेहरे पर। मुँह पर बँधी उसकी पट्टी से बाहर उछल रही उसकी खाँसी पर। बल्कि कई बार हमें देख कर वह पीछे हट लेती तो हम जानते वह शील-संकोच से ऐसे करती है। कमाल है, हम कैसे बूझ नहीं पाए वह हम सब को ठग रही है . . .”
“प्रमिला ने हम से जैसी बेईमानी की है,” अपने दिल की भड़ास मैं भी अपनी ज़ुबान पर ले आया, “उसकी मिसाल कस्बापुर में क्या, पूरी दुनिया में ढूँढ़ने पर न मिलेगी।”
(9)
शशि की मृत्यु विक्टोरिया जुबली अस्पताल में हुई।
उस के दाख़िल होने के दूसरे दिन।
जलबाला को भी हम ने फिर घर पर न रखा। डॉक्टर गर्ग के नर्सिंग होम में उसी रोज़ ला खिसकाया था।
उस का बुख़ार बढ़ लिया था। थूक में पीप की जगह लहू टपकने लगा था और खाँसी उसकी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।
“एक ही सूरत बची है,” डॉक्टर गर्ग हताश नज़र आए, “फेफड़े के घाव को ऑपरेशन द्वारा बाहर निकालना होगा। द लिश्यन आव द लंग हैज़ टू बी रिमूव्ड सर्जिकली . . .”
लेकिन दिन और समय तय करने से पहले ही जलबाला की मृत्यु उसे झपट कर ले गई।
“नाइजीरिया फ़ोन करेंगे?” मैंने बाबूजी से पूछा।
मरने से पहले जलबाला ने अपने हाथ की लिखी मुझे एक पर्ची भिजवाई थी, “मेरे मरने की सूचना मेरे घर वालों को फ़ोन पर देना, तार से नहीं। नाइजीरिया में तार भी महीनों बाद पहुँचते हैं।”
“इंटरनेशनल कौल?” बाबूजी झल्लाए। सन् उन्नीस सौ छप्पन में आइ.एस.डी. तक अकल्पनीय थी–आज के मोबाइल की तो बात ही क्या करनी—“यहीं अपनी दुकान से किशोरीलाल उसके किसी चाचा-मामा को लोकल कौल कर देगा। अब वह रिश्तेदार किस-किस को, कब-कब, क्या-क्या बतायें, वही जानें। वे जन भी बहू के संस्कार के समय आवें या तेरहवीं में, हमारी बला से . . .”
(10)
अंततः उसी सन् छप्पन के नवम्बर में मैंने अपनी दूसरी पत्नी पाई: लावण्यमयी, मांसल और सुंदर।
हर्षा कुमारी।
आयु में जलबाला से कम और रूप-आकृति में प्रमिला से अधिक लुभावनी।
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- अच्छे हाथों में
- अटूट घेरों में
- अदृष्ट
- अरक्षित
- आँख की पुतली
- आँख-मिचौनी
- आँधी-पानी में
- आडंबर
- आतिशी शीशा
- आधी रोटी
- आब-दाना
- आख़िरी मील
- ईंधन की कोठरी
- ऊँची बोली
- ऊँट की करवट
- ऊँट की पीठ
- एक तवे की रोटी
- कबीर मुक्त द्वार सँकरा . . .
- कलेजे का टुकड़ा
- कलोल
- कान की ठेंठी
- कार्टून
- काष्ठ प्रकृति
- किशोरीलाल की खाँसी
- कुंजी
- कुनबेवाला
- कुन्ती बेचारी नहीं
- कृपाकांक्षी
- कृपाकांक्षी—नई निगाह
- क्वार्टर नम्बर तेईस
- खटका
- ख़ुराक
- खुली हवा में
- खेमा
- गिर्दागिर्द
- गीदड़-गश्त
- गेम-चेन्जर
- घातिनी
- घुमड़ी
- घोड़ा एक पैर
- चचेरी
- चम्पा का मोबाइल
- चिकोटी
- चिराग़-गुल
- चिलक
- चीते की सवारी
- छठी
- छल-बल
- जमा-मनफ़ी
- जीवट
- जुगाली
- ज्वार
- झँकवैया
- टाऊनहाल
- टेढ़ा पाहुना
- ठौर-बेठौ
- डाकखाने में
- डॉग शो
- ढलवाँ लोहा
- ताई की बुनाई
- तीन-तेरह
- त्रिविध ताप
- तक़दीर की खोटी
- दमबाज़
- दर्ज़ी की सूई
- दशरथ
- दुलारा
- दूर-घर
- दूसरा पता
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- दो मुँह हँसी
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- नष्टचित्त
- नाट्य नौका
- निगूढ़ी
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