अदृष्ट 

01-02-2025

अदृष्ट 

दीपक शर्मा (अंक: 270, फरवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

(प्रिय पाठको,  मार्च, 2022 के साहित्य कुञ्ज में दीपक शर्मा जी की एक कहानी ‘तक़दीर की खोटी’ के नाम से प्रकाशित हुई थी। ‘अदृष्ट’ उसी कहानी का अन्य प्रारूप है। इसमें कथानक वही पुराना होते हुए भी नया है। कहानी का अन्त भी वही होते हुए एक नए दृष्टिकोण से लिखा गया। कथानक को भी थोड़ा परिष्कृत किया गया है। आशा है कि मूल कहानी के नए संस्करण को भी आप पसंद करेंगे और लेखक के लेखन कौशल को भी सराहेंगे कि किस तरह कुछ पंक्तियाँ बदल देने से ही कहानी किस तरह बदली जा सकती हैं। मैं आपको आमन्त्रित करता हूँ कि आप दोनों कहानियों को पढ़ें। सुविधा के लिए ‘तक़दीर की खोटी’ का लिंक दे रहा हूँ।—संपादक)
 

दिल्ली की कॉलेज औव आर्ट गैलेरी में ‘उभरते’ हुए युवा चित्रकारों के चित्रों की एक एकल प्रदर्शनी आयोजित की जा रही थी। आगामी सप्ताह। 

उसी कॉलेज के एक अध्यापक के सौजन्य से—जो स्वयं चित्रकला की दुनिया में ऊँचा नाम रखते थे—मेरे भी दस चित्र सम्मिलित किए जाने थे। 

उस शाम मैं अपने एक महत्त्वपूर्ण चित्र पर काम कर रहा था। अपने द्वारा चित्रित एक टूटे दर्पण में एक मानव चेहरे के विभिन्न खण्डों की विरूपता सजीव करते हुए। 

विभिन्न रंगों से। 

तत्पर घोड़ों की मानिन्द मेरे हाथ मेरे कैनवस पर दौड़ रहे थे। 

सरपट। 

फिर अचीते ही वह बिदक लिए। 

मैंने उन्हें लाख एड़ी देनी चाही किन्तु उनकी दुलकी ने रफ़्तार पकड़ने से साफ़ इनकार कर दिया। 

बिगड़ैल घोड़ों की मानिन्द। 

क्या उन्हें बाबूजी ने एड़ी लगाई थी? 

अथवा जिज्जी ने? 

काम रोककर मैं अपने स्कूटर पर सवार हो लिया। 

♦    ♦    ♦

साधन सम्पन्न एक व्यवसायी की तथाकथित चित्रकार पत्नी ने विशाल अपने बँगले का स्टुडियो और उस से संलग्न स्टोरनुुमा एक कमरा मुझे अपने निजी प्रयोग के लिए दे रखा था। अपने नाम मुुझ से तैयार करवाए जाने वाले कुछ चित्रों की एवज़ में। 

पिछले कुछ महीनों की अपनी अतिव्यस्तता के कारण रात में भी उन दिनों मेरा अपने घर जाना बहुत कम हो गया था। 

अजीब और अटपटा तो ज़रूर लगता था कि एक ही कस्बापुर के अरे-परे एक भरी-पूरी रौनक़ी सड़क पर मेरे पास मंगलप्रद एवं सुविधाजनक अपना यह अस्थायी ठौर था और सरासर बोझिल एक सँकरी रेलवे कालोनी में रेल की धमक और धुएँ से शापित एवं कष्टप्रद वह स्थायी ठिकाना। 

एक आवास में धनाढ्य और मिलनसार वह दम्पत्ति थे। मस्त और सलोनी उनकी दो बेटियाँ थी। 

और दूसरे निवास पर व्यग्र और रुग्ण बाबूजी थे तथा विषाद प्रवण और अन्तर्ग्रस्त जिज्जी! 

और यह बात भी कम हैरत की नहीं थी जो इस छोर से गुज़रती हुई हवा उधर मेरे स्टुडियो में अक़्सर आ धमकती थी और इस घर की धड़कनें मुझे अपने स्टुडियो में साफ़ सुनाई दे जाती थीं और सन उन्नीस सौ तिरासी के उन दिनों में बिना किसी दूर-भाष अथवा दूर-संचार के माध्यम से बाबूजी और जिज्जी के दूर-संवेदी संदेश मुझ तक हमेशा पहुँच लेते थे और मैं इधर की तरफ़ उड़ आता था। 

♦    ♦    ♦

हमेशा की तरह उस शाम भी सोलह सीढ़ियों पर बैठे मेरे घर ने मुझे देखते ही अपना ज्वालामुख खोल दिया। 

“बृृजलाल जी आए हैं?” मेरे स्कूटर की आवाज़ सुनते ही बाबूजी उसके मुहाने पर आ खड़े हुए। अधिकतर अपने स्टुडियो पर मेरे बने रहने के बाद से मेरे संग बाबूजी अपने व्यवहार में औपचारिक बाह्याचार बरतने लगे थे। 

“हाँ,” यथा नियम मैंने हाज़िरी भरी, “मैं, बृृजलाल।” 

हमारे बीच विधिवत अभिवादन कभी नहीं रहा था। 

“इन्दु बीमार है,” सीढ़ियाँ पार कर जैसे ही मैं बाबूजी के पास पहुँचा बाबूजी ने मुझे चेताया, “अच्छा किया जो आज आप इधर चले आए . . . बेचारी दो दिन से मुँह औंधे बिस्तर पर पड़ी है . . . अपने काम पर नहीं जा रही . . .” 

पिछले आठ वर्षों से जिज्जी रेलवे स्टेशन पर उद्घोषक का काम कर रही थीं। रेेलवे क्लर्की से बाबूजी की सेवा-निवृत्ति में एक साल अभी बाक़ी था जब जिज्जी ने अपने लिए यह नौकरी निश्चित कर ली थी। उनके रेलवे क्वार्टर को अधिकार में रखने हेतु। 

“कहीं फिर से टाएफ़ड न हो गया हो?” मैंने शंका जताई। जिज्जी अभी पिछले ही वर्ष टाएफ़ड झेल चुकी थीं। 

दो कमरों के उस मकान में रसोई की बग़ल वाले कमरे में जिज्जी अपनी चारपाई पर लेटी थीं। 

“हो सकता है,” बाबूजी की आवाज़ उनके हाथों के संग-संग काँपी—इधर कुछ समय से वे पार्किन्सन डिज़ीज़ के तेज़ी से शिकार हो रहे थे, “बुख़ार के साथ-साथ उसे कँपकँपी भी छिड़ रही है . . .” 

“क्या बात है जिज्जी?” मैंने जिज्जी का कंधा हिलाया, “डॉक्टर बुलाऊँ क्या?” 

जिज्जी ने सिर हिलाया। 

फिर काँपीं और बोलीं,” उधर चूड़ी वाली गली के आगे तिराहे पर एक डॉक्टर है . . . तिरछी दिशा में।” 

“मैं देखता हूँ,” मैंने कहा। 

जिज्जी की आँखों में आँसू तैर आए। 

♦    ♦    ♦

इस रेलवे कौलोनी का दूसरा सिरा गोटे बाज़ार में खुलता था। जिसे पार करने पर चूड़ी वाली गली पड़ती थी। 

उधर गए मुझे एक अरसा बीत चला था। मगर वह रास्ता मेरा जाना पहचाना था। उस शाम मैंने उसी तरफ़ अपना स्कूटर बढ़ाया। 

तिराहे पर पहुँचते ही मुझे डॉक्टर का क्लिनिक दिखाई दे गया। 

बोर्ड पर डॉक्टर का नाम सूर्यपाल सिंह लिखा था और नीचे मिलने के घंटे दर्ज थे: सुबह दस से दोपहर दो बजे तथा शाम पाँच से आठ बजे। 

उस समय मेरी घड़ी ग्यारह बीस दिखा रही थी। 

मैंने अपना स्कूटर वहीं पर रोक लिया। 

“आप रजिस्टर्ड डॉक्टर हैं क्या?” डॉक्टर की कुरसी पर बैठा युवक छब्बीस-सत्ताईस का रहा होगा। लगभग मेरी ही उम्र का। 

“नहीं। अभी मेरी इंटर्नशिप चल रही है। मेडिकल कॉलेज के फ़ाइनल ईयर में। यह क्लिनिक मेरे पिता का है। इधर कुछ महीनों से वह अस्वस्थ चल रहे हैं और मैं उनके मरीज़ों को देखने चला आता हूँ।” 

“आपको अपने घर ले जाना चाहता हूँ,” मैंने कहा, “मेरी बहन बीमार हैं . . .” 

“घर जाने की हम दुगुनी फ़ीस लेते हैं, चार सौ रुपया . . .” 

“आइए। जल्दी आइए। मेरे पास स्कूटर है। आप को ले जाने और छोड़ने का ज़िम्मा मेरा . . . ” 

युवक ने मेज़ की दराज़ से स्टेथोस्कोप निकाला। रक्तचाप मापने का उपकरण लिया। आलमारी में से एक मेडिकल किट उठाई और कुछ दवाइयों समेत इन सामान को उस में समेटा और बग़ल वाली अचार-मुरब्बे वाली दुकान के काउंटर पर बैठे एक अधेड़ व्यक्ति को आवाज़ दी, “चाचा, इधर ध्यान रखना। कोई आए तो उसे बता देना मैं एक मरीज़ देखने गया हूँ।” 

“ठीक है,” अधेड़ ने तत्काल हामी भरी। 

♦    ♦    ♦

“यह आपकी बहन हैं?” जिज्जी पर आँख पड़ते ही युवक की आँखेंं फैल लीं। जो उस समय अचेतावस्था में रहीं। 

निस्संदेह जिज्जी की दयनीय अवस्था न्यायतः किसी भी अजनबी की आँखों में चुभ सकती थी। जिस पर उस समय की उनकी रोगजनक अस्तव्यस्तता मेरे उच्च वर्गीय परिधान के कारण हमारे बीच के अन्यत्व को कुछ ज़्यादा ही उजागर कर रही थी। 

“हाँ। मेरी बहन हैं,” मैंने अपनी जेब में रखी सिगरेट की अपनी डिबिया की ओर अपना हाथ बढ़ाया। उसे जलाने। उन दिनों मेरी व्यग्रता के क्षणों में सिगरेट मेरा ढाढ़स बाँधे रखती थी। 

“आप अपनी सिगरेट वहीं रखे रखिए,” युवक का स्वर दृढ़ रहा, “इधर देखें। पहले इन का रक्तचाप लेना होगा। उस के लिए इन की बाँह से कपड़ा हटाना पड़ेगा।” 

मैंने अपने हाथ तत्काल अपनी जेेब से निकाली जाने वाली सिगरेट से हटा लिए और अपने हाथ जिज्जी की बाँह की ओर जा बढ़ाए। अपनी आँखें पास खड़े युवक के रक्तचाप के उपकरण पर जमाते हुुए। 

तदनंतर जब स्टेथोस्कोप से भी जिज्जी की जाँच समाप्त हो गई, तो युवक ने मुझसे कहा, “इन की हालत अच्छी नहीं। इन का रक्तचाप ज़्यादा बढ़ा हुआ है। चमड़ी के नीचे गाँठें बँध रही हैं। बुख़ार बहुत तेज़ है और इनका दिल ज़ोर से कलकला रहा है।” 

“अब क्या करना होगा?” 

“रक्तचाप नीचे लाने के लिए पहले एक इंजेक्शन देना होगा . . . फिर मुझे बर्फ़ चाहिए होगी। इन का बुख़ार उतरना भी बेहद ज़रूरी है।” 

♦    ♦    ♦

बर्फ़ की सभी पट्टियों का हिसाब युवक ने स्वयं रखा। 

माथे की पट्टियाँ . . . 

पेट की पट्टियाँ . . . 

पैर की पट्टियाँ . . . 

सभी पट्टियाँ युवक ने स्वयं भिगोयीं, लगाईं और हटायीं। बाबूजी और मैं पेशेवर उसकी ऊर्जस्विता को ताकते रहे। 

निःशब्द। 

बीच में दो एक बार जब भी मैंने अपनी सिगरेट सुलगाने की चेष्टा की तो युवक ने इशारे से मुझे रोक दिया। 

अंततः जिज्जी की चेतना लौट आई और उन्होंने अपनी आँखें खोलीं। 

युवक उस समय उनके पेट की पट्टियाँ बदल रहा था। 

“आप अपने क्लिनिक पर थे?” उसे देखते ही जिज्जी की आँखें चमक लीं . . .

बारहमासी उनकी त्यौरी के बल उनके माथे से उतर गए . . . और दबी हुई एक हँसी उनकी गालों के गड्ढों को गुदगुदा गई। मानो उनकी तरुणाई के मूक आवेग ने चिहुँक कर उन्हें अन्दर तक झकझोर दिया। 

“हाँ,” युवक प्रेमभाव से मुस्कुराया,” सौभाग्यवश . . .।” 

“आप जिज्जी को जानते हैं?” 

“यह मेरे पिता के क्लिनिक पर आ चुकी हैं . . .” 

जिज्जी के रक्तचाप को सामान्य सीमा के अंदर लाने में युुवक को बुख़ार नीचे लाने की तुलना में ज़्यादा समय देना पड़ा। 

अंततोगत्वा जिज्जी जब प्रकृतिस्थ हुईं तो युवक को उस के क्लिनिक पर छोड़ने मैं उस के साथ चला आया। 

“जिज्जी के लिए अब क्या करना होगा,” वहाँ पहुँचते ही मैंने उस से पूछा। 

“इन्दु जी के दिल की दशा शोचनीय है। अपने मैडिकल कॉलेज में मैं उन्हें दिखा चुका हूँ। उनके दिल के अन्दर लहू रिसता रहता है। बराबर। लगातार। डॉक्टरी भाषा में इसे रिगरजिटेशन कहते हैं। उन्हें ऑपरेशन की सख़्त ज़रूरत है . . .” 

“दिल के ऑपरेशन की?” मैं डर गया। 

“हाँ। उनके दिल के अंदर की जो वाल्व उनके लहू को उल्टी दिशा में ले जा रही है, ऑपरेशन से वह वाल्व दुरुस्त की जा सकती है।” 

“महँगा ऑपरेशन है?” मैंने अपनी सिगरेट सुलगा ली। 

“मेरे मैडिकल कॉलेज के एक बड़े सर्जन मेरे मेहरबान हैं,” युवक ने कहा, “मेरा कहना वह टाल नहीं सकते। मैं उन्हें कहूँगा तो वह जल्द ही इस ऑपरेशन की व्यवस्था वहीं मैडिकल कॉलेज में करवा देंगें।” 

जिज्जी के साथ इतनी रियायत? 

यह रियायत सहवर्ती थी अथवा दैवकृत? 

जिज्जी उसकी सहानुभूति का पात्र थीं? अथवा उस की शोध का एक विषय? 

“ऑपरेशन के लिए दो एक महीने रुका जा सकता है क्या? इधर मैं बहुत वयस्त हूँ . . .” 

“रुकना चाहिए तो नहीं।” 

“ऐसा है तो आप ऑपरेशन की तारीख़ पक्की करवा लो। इस बीच मुझे यदि बाहर जाना भी पड़ गया तो भी आप तो रहेंगे ही . . .।” 

“मैं रहूँगा। बिल्कुल रहूँगा।” 

“वैसे बाबूजी से भी जो बन पड़ेगा वह ज़रूर करेंगे।” 

“बिल्कुल . . . ” 

“फ़िलहाल यह रही आप की आज की फ़ीस,” मैंने कहा और अपने बटुए से चार सौ रुपए उस की ओर बढ़ाए। 

“यह आप अपने पास रखें। अपने पुराने मरीज़ों से हम दोबारा फ़ीस नहीं लेते . . . ” 

“मगर आप तो उन्हें घर पर देखने गए थे . . .।” 

“आप ज़िद न करें। मैं नहीं लूँगा . . .।” 

 ♦    ♦    ♦

वह एकल प्रदर्शनी सफल रही थी और आज-कल-परसों की मेरी वापसी यात्रा डेढ़ महीने तक निरन्तर टलती चली गई थी। अपनी वापसी पर स्टेशन से मैं सीधा उधर स्टुडियो वाले अपने कमरे पर ही गया। 

कमरा खोलते ही सामने लगे कैलेन्डर के एक पुराने महीने की किसी एक तारीख़ पर मेरे हाथ से बने गोले के अन्दर ’जिज्जी’ लिखा देखकर मुझे ध्यान आया उनका ऑपरेशन हो चुका होगा। 

कैसे भुलाए रखी वह तारीख़ मैंने? 

एक बार भी न बाबूजी का ध्यान आया न जिज्जी ही का। जो मैं उन का पता रखता, हाल पूछता। दिल्ली के गुलगपाड़े की चकमक उत्तरदायी रही क्या? 

“ठक,” जभी मेरे दरवाज़े पर दस्तक हुई, “ठक . . . ठक . . .” 

“आइए,” दरवाज़े पर मेरी आश्रयदाती थीं। 

“कैसे कहूँ?” अपनी किशोर बेटियों की तरह बात करते समय अपना नाक सिकोड़ने की उन्हें आदत थी, “मगर पहले तो आपको बधाई ही दे दूँ। पिछले दिनों की कई अख़बारों में आप की पेंटिंग्ज़ की समीक्षाएँ देखने को मिलीं . . . बहुत अच्छा लगा . . .” 

“जी हाँ,” मैं हँसा, “दस में से मेरी चार पेंटिंग्ज़ तो बिक भी गई हैं . . . और वे भी अच्छी क़ीमत पर।” 

“अब दूसरी बात पर आती हूँ,” वह गम्भीर हो गईं, “आपको शायद मालूम नहीं आपकी बहन बहुत बुरी क़िस्मत लेकर आई रहीं।” 

“कैसे?” मैं काँपने लगा। 

“आप एकदम कुछ नहीं जानते क्या? आपके पिता आपको ढूँढ़ते हुए तीन बार यहाँ आए। पहली बार वह आपकी बहन के ऑपरेशन के परचे के साथ आए। फिर दूसरी बार उनकी मृत्यु की सूचना के साथ और फिर तीसरी बार किसी मकान के ऋणपत्र के साथ . . .” 

“अरे,” मेरा गला सूख चला, “मैं अभी देखता हूँ। वहाँ जाता हूँ . . . ” 

बाबू जी ज़रूर अपने रहने के लिए किसी नई व्यवस्था की खोज में होंगे। जिज्जी के चले जाने से उसी रेलवे क्वार्टर पर बने रहना अब असंभव था। 

“आप कलाकार लोग भी अजीब मिट्टी के बने होते हैं। आप दिल्ली जा रहे हैं, यह तो आप बताकर गए लेकिन आप वहाँ कहाँ मिलेंगे यह आपने बताया ही नहीं।” 

“सच बोलूँ तो कस्बापुर छोड़ते समय मैं स्वयं नहीं जानता था दिल्ली में रह रहे मेरे कौन परिचित मेरा स्वागत करेंगे। मुझे कहाँ रुकने को बोलेंगे।” 

“मैं फिर बाद में मिलती हूँ,” मेरे उत्तर से वह असहज हो उठीं। 

“धन्यवाद,” दरवाज़े की सिटकिनी चढ़ाते समय सहसा मेरी रुलाई छूट गई। 

जिज्जी! 

मेरी जिज्जी!! 

मेरी प्यारी जिज्जी!!! 

उनतीस साल क्या किसी के जाने की उम्र है? 

लपक कर अपने पुराने सामान से मैंने वे कॉपियाँ खोज डालीं जिनमें मैंने अपने बचपन और कैशोर्य की जिज्जी दर्ज कर रखी थी। मृदुल और चंचल। हँसमुख और तन्दुरुस्त। 

कब और कैसे और क्यों जिज्जी के दिल के कपाट उनके रिसते लहू को सम्भालने में असमर्थ रहे थे? 

कारण क्या माँ की कैन्सर से मृत्यु रही? बाबूजी का बिगड़ता स्वास्थ्य रहा? अथवा मेरा यह नया ठिकाना? 

रुलाई थमते ही मैंने एक रिक्शा किया और पता बताया, जाना तो रेलवे कौलोनी है लेकिन चूड़ी वाली गली के तिराहे से होते हुए . . .। 

बाबू जी से पहले मैं तिराहे वाले उस युवक से मिलना चाहता था जिस ने जिज्जी की बीमारी से मुझे अवगत कराया था। 

♦    ♦    ♦

“आप कहाँ थे? अदृष्ट?” संयोगवश वह वहीं बैठा था और मुझे देखते ही मेरी ओर लपक लिया, “अपने अंतिम समय इन्दु जी ने मुझे बोला, आप से जब मिलूँ तो यह ज़रूर कहूँ कि आप उनके बाबू जी को अपने साथ रखें। उन्हें हरगिज़ अकेले न रहने दें। उन्हें बैठे बैठे नींद लेने की आदत है।” 

“लेकिन ऑपरेशन गड़बड़ाया कैसे? आप तो उन की मुश्किल दूर करने वाले थे?” अपना रोष व उलाहना उस तक पहुँचाने हेतु मुझे अपने रिक्शे से उतरना ज़रूरी नहीं लगा। 

“ऑपरेशन मगर हुआ ही कहाँ? उस की तारीख़ से दो दिन पहले उन्हें एक ऐसी कँपकँपी छिड़ी, जो उनके प्राण ले कर ही मानी।” 

“आप उस समय उनके पास थे?” भौंचक्की हो आयी अपनी उस अवस्था में मैं रिक्शे से उतर लिया। 

“जी,” वह सकपका गया, “आप के बाबू जी ही ने मुझे कह रखा था, तुम रोज़ एक बार इन्दु को देख जाया करो।” 

“आज मेरे साथ चलें,” मैंने रिक्शे की ओर इशारा किया। 

“मैं तो अब भी रोज़ वहाँ जाता हूँ। आज भी गया था।” 

“जिज्जी के आग्रह पर?” 

“जी। इन्दु जी ने मुझे कभी कहा था, आप के आने तक मैं बाबू जी को देखता रहूँ . . . ।” 

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