माँ की सिलाई मशीन
दीपक शर्मावरर्र? वरर्र?
सूनी रात के इस सुस्त अँधेरे में?
ड्योढ़ी में सो रही मैं जग गयी।
व्हिरर! व्हिरर्र!!
फिर से सुना मैंने? माँ की मशीन की दिशा से?
धप! मैं उठ बैठी। गली के खम्भे वाली बत्ती की मन्द रोशनी में मशीन दिख रही थी, लेकिन माँ नहीं।
वह वहाँ हो भी नहीं सकती थी। वह अस्पताल में थी। ट्रामा सेन्टर के बेड नम्बर तेरह पर, जहाँ उसे उस दिन दोपहर में पहुँचाया गया था। सिर से फूट रहे उनके लहू को बन्द कराने के वास्ते। बेहोशी की हालत में।
मशीन के पास मैं जा खड़ी हुई। उस से मेरा परिचय पुराना था। दस साल की अपनी उस उम्र जितना। माँ बताया करतीं पहले मुझे गोदी में लिए लिए और फिर अपनी पीठ से सटाए-सटाए उन्होंने अपनी कुर्सी से कितनी ही सिलाई पूरी की थी। माँ टेलर थीं। ख़ूब सिलाई करतीं। घर की, मुहल्ले की, शहर भर की।
माँ की कुर्सी पर मैं जा बैठी। ठीक माँ के अन्दाज़ में। ट्रेडिल पर दाहिना पैर थोड़ा आगे। बायाँ पैर थोड़ा पीछे।
क्लैन्क, क्लैन्क, क्लैन्क . . .
बिना चेतावनी दिए ट्रेडिल के कैम और लीवर चालू हो लिए।
फूलदार मेरी फ़्राक पर। जो मशीन की मेज़ पर बिछी थी। जिस की एक बाँह अधूरी सिलाई लिए अभी पूरी चापी जानी थी।
और मेरे देखते-देखते ऊपर वाली स्पूल के गिर्द लिपटा हुआ धागा लूप की फाँद से सूई के नाके तक पहुँचने लगा और अन्दर वाली बौबिन, फिरकी, अपने गिर्द लिपटा हुआ धागा ऊपर ट्रैक पर उछालने लगी।
वरर्र . . . वरर्र . . .
सर्र . . . सर्र
और मेरी फ़्राक की बाँह मेरी फ़्राक के सीने से गूँथी जाने लगी, अपने बखियों के साथ सूई की चाप से निकल कर आगे बढ़ती हुई . . .
खटाखट . . .
“कौन?” बुआ की आवाज़ पहले आयी। वह बप्पा की सगी बहन न थीं। दादी की दूर-दराज़ की भाँजी थी जो एक ही साल के अन्दर असफल हुए अपने विवाह के बाद से अपना समय काटने के लिए कभी दादी के पास जा ठहरतीं और कभी हमारे घर पर आ टपकतीं।
“कौन?” बप्पा भी चौंके।
फट से मैंने अपने पैर ट्रैडिल से अलग किए और अपने बिस्तर पर लौट ली।
मशीन की वरर्र . . . वरर्र, सर्र . . . सर्र थम गयी।
छतदार उस ड्योढ़ी का बल्ब जला तो बुआ चीख उठी, “अरे, अरे, अरे . . . देखो . . . देखो . . . देखो . . . इधर मशीन की सूई ऊपर नीचे हो रही है और उसकी ढरकी आगे-पीछे। वह फ़्राक भी आगे सरक ली है . . .।”
जभी पिता का मोबाइल बज उठा।
“हलो,” वह जवाब दिए, ”हाँ। मैं उस का पति बोल रहा हूँ . . . बेड नम्बर तेरह . . . मैं अभी पहुँच लेता हूँ . . . अभी पहुँच रहा हूँ . . . हाँ-कुन्ती . . . कुन्ती ही नाम है . . .।”
“’माँ?” मैं तत्काल बिस्तर से उठ बैठी।
“हाँ . . .” बप्पा मेरे पास खिसक आए।
“क्या हुआ?” बुआ ने पूछा।
“वह नहीं रही, अभी कुछ ही मिनट पहले। नर्स ग्लुकोज़ की बोतल बदल रही थी कि उसकी पुतलियाँ खुलते खुलते पलट लीं . . .”
“अपना शरीर छोड़ कर वह तभी सीधी इधर ही आयी है,” बुआ की आवाज़ दुगुने वेग से लरज़ी, “अपनी मशीन पर . . .।”
“मुझे अभी वहाँ जाना होगा,” बप्पा ने मेरे कंधे थपथपाए, ”तुम घबराना नहीं।”
और उनके हाथ बाहर जाने वाले अपने कपड़ों की ओर बढ़ लिए। अपने कपड़ों को लेकर वह बहुत सतर्क रहा करते। नयी या ख़ास जगह जाते समय ताजे़ धुले तथा इस्तरी किए हुए कपड़े ही पहनते। वह ड्राइवर थे। अपने हिसाब से, कैज़्युल। अवसरपरक। कुछ कार-मालिकों को अपना मोबाइल नम्बर दिए रहते, जिन के बुलाने पर उनकी कार चलाया करते। कभी घंटों के हिसाब से। तो कभी दिनों के।
“अभी मत जाएँ,” बुआ ने ड्योढ़ी की दीवार पर लगी माँ की घड़ी पर अपनी नज़र दौड़ायी, “रात के दो बज रहे हैं। सुबह जाना। क्या मालूम मरने वाली ने मरते समय हम लोग को ज़िम्मेदार ठहरा दिया हो!”
“नहीं। वह ऐसा कभी नहीं करेगी।
“बेटी उसे बहुत प्यारी है। नहीं चाहेगी, उस का बाप जेल काटे और वह इधर उधर धक्का खाए . . . ”
मैं डर गयी। रोती हुई बप्पा से जा चिपकी।
माँ की मशीन और यह ड्योढ़ी छोड़नी नहीं थी मुझे।
“तुम रोना नहीं, बच्ची,” बप्पा ने मेरी पीठ थपथपायी, “तुम्हारी माँ रोती थी कभी?”
“नहीं,” मेरे आँसू थम गए।
“कैसे मुक़ाबला करती थी? अपने ग्राहक-ग्राहिकाओं से? पास पड़ोसिनों से? मुझ से? बुआ से? अम्मा से?”
यह सच था। ग्राहिकाएँ या ग्राहक अगला काम दें न दें, वह अपने मेहनताने पर अड़ी रहतीं। पड़ोसिनें वक़्त-बेवक़्त चीनी-हल्दी हाज़िर करें न करें, वह अपनी तुनाकी क़ायम रखतीं। बप्पा लोग लाख भड़के-लपकें वह अविचल अपनी मशीन चलाए रखतीं।
“हाँ . . .” मैंने अपने हाथ बप्पा की बग़ल से अलग कर लिए।
“अस्पताल जाना बहुत ज़रूरी है क्या?” बुआ ने बप्पा का ध्यान बँटाना चाहा।
“ज़रूरी है। बहुत ज़रूरी है। कुन्ती लावारिस नहीं है। मेरी ब्याहता है . . .।”
♦ ♦ ♦
इधर बप्पा की स्कूटी स्टार्ट हुई, उधर मैं मशीन वाली कुरसी पर जा बैठी।
माँ को महसूस करने।
मशीन में मौजूद उनकी गन्ध को अपने अन्दर भरने।
उन की छुअन को छूने।
“चल उठ,” तभी ड्योढ़ी का बल्ब बुझा कर बुआ ने मेरा सिर आन झटका, “इधर मत बैठ। इस मशीन से तेरी माँ का मोह अभी छूटा नहीं। आसपास इस के गिर्द वह इधर ही कहीं घूम रही है . . .।”
“हाँ,” मेरी रूलाई फिर छूट ली, ”माँ यहीं हैं। मैं यहीं बैठूगी . . .।”
“जभी तो बैठेगी जब मैं तुझे यहाँ बैठने दूँगी,” बुआ ने मेरे कंधों को टहोका, “चल उठ। उधर मेरे साथ चल। थोड़ा सुस्ताएँगीं। कल का दिन क्या मालूम क्या नया दिखलाने वाला है!”
मैं उसी दम उन के साथ चल पड़ी। पिछली दोपहर माँ के संग उन की धक्का-मुक्की मैं भूली न थी।
♦ ♦ ♦
बखेड़ा खड़ा किया था बप्पा द्वारा दीवाली के उपहार-स्वरूप लायी गयी दो साड़ियों ने।
“कुन्ती, इधर आओ तो,” बप्पा ने पहले माँ को पुकारा था, “तुम दोनों के लिए साड़ी लाया हूँ . . .”
“दोनों? मतलब?” माँ उस समय मेरी वही फूलदार फ़्राक तैयार कर रही थीं, जिसे वह मुझे दीवाली पर पहनाने का इरादा रखती थीं।
“मतलब मैं समझाए देती हूँ,” रसोई में खाना बना रही बुआ तुरन्त वहाँ पहुँच ली थी, “एक तेरे लिए होगी, भौजायी, और एक मेरे लिए . . .।”
“अब तुम इतना अच्छा खाना हमें बना-खिला रही हो तो हम क्या तुम्हारे लिए कुछ न लिवाएँगे?” बप्पा ने बुआ से लाड़ जताया था।
दीवाली नज़दीक होने के कारण उन दिनों माँ के पास सिलाई को काम ज़्यादा था और बुआ ही रसोई देखा करती थीं। पूरे चाव से। बप्पा को अच्छा खाने का जितना शौक़ था, उतना ही शौक़ बुआ को अच्छा खिलाने का था।
“देखें तो,” बुआ बप्पा के उस पैकेट पर जा झपटी थी जो बप्पा के हाथ ही में रखे रहा था।
“कुन्ती, तुम इधर आओ तो,” बप्पा ने माँ को दोबारा पुकारा था।
“मैं नहीं आ सकती,” पीठ किए माँ अपनी कुरसी पर जमी रही थीं।
“आज तो भूत उतार दो, कुन्ती,” बप्पा ने मनुहार दिखाया था, “इधर आ कर देखो तो . . . ”
बप्पा जब भी माँ को मशीन पर मगन पाते, कहते, कुन्ती पर भूत सवार है। ऐसा अक़्सर होता भी था, माँ जब मशीन पर होतीं मानो किसी दूसरे धरातल पर जा पहुँचतीं, किसी अन्य ग्रह पर।
“मुझे यह फ़्राक आज ज़रूर पूरी करनी है,” माँ ने मशीन चालू रखी थी।
“ऐसा क्या है?” बुआ ने पैकेट वाली दोनों साड़ियाँ ड्योढ़ी वाले इसी तख़्त पर बिछा दी थीं, “मैं तो देखूँगी ही . . . ”
दोनों के फूल एक जैसे थे।
अन्तर सिर्फ़ रंग का था।
एक की ज़मीन हरी थी और फूल, लाल। दूसरी की ज़मीन लाल थी और फूल, हरे।
उत्साह से भरी-भरी बुआ दोनों को तुरन्त खोल बैठी थी।
बुआ के संग मैंने भी देखा, हरे फूलों वाली साड़ी के दूसरे सिरे पर लाल रंग का ब्लाउज़ था और लाल फूलों वाली साड़ी के संग हरा।
“मैं हरे फूल नहीं पहनने वाली,” बुआ मचलीं, “मैं तो फूल भी लाल पहनूँगी और ब्लाउज भी लाल . . .”
“इतना ठिनकती क्यों है? तू दोनों ही पहन ले। मेरे पास अपनी कमाई बहुतेरी है। कुछ भी ख़रीद लूँ . . .” माँ तैश में आ कर बोली थीं।
“तुम मेरी लायी चीज़ नहीं देखना पहनना चाहती तो मत देखो-पहनो,” बप्पा को अपनी लायी साड़ियों का यह अनादर चुभ गया था, “वह दुकानदार मुझे पहचानता है। मैं उसे एक साड़ी वापस कर आऊँगा . . .”
“मगर फिर मैं क्या करूँगी?” बुआ ने दोनों साड़ियाँ अपनी छाती से चिपका लीं, “एक के फूल मुझे पसंद हैं तो दूसरी का ब्लाउज़ . . .”
“तो तुम दोनों रख लो। कुन्ती ने कहा भी है वह अपनी कमाई से अपनी साड़ी खरीदेगी,” बप्पा ने माँ को और चिढ़ाया था।
“अच्छी बात!” बुआ उछली थी, “फिर तो मैं लाल ब्लाउज ही पहले तैयार करती हूँ। भौजायी नहीं सिएँगी तो मैं सी लूँगी। मशीन चलानी मुझे भी आती है।”
“यह मशीन तुम से चलेगी ही नहीं,” माँ वहीं से ठठायी थीं, “यह मेरी मशीन है। सिर्फ़ मेरे हाथ पहचानती है। सिर्फ़ मेरे पैर।”
वह मशीन मेरी नानी और मेरी माँ की साझी कमाई से ख़रीदी गयी थी। नयी और अछूती। विधवा हो जाने पर, तीस साल पहले, जिस बँगले के मालिक-मालकिन व उनकी तीन बेटियों की सेवा-टहल मेरी नानी ने पकड़ी थी उस सेवा-टहल में मेरी माँ भी शामिल रही थीं। अपने चौदहवें साल से अपने उन्नीसवें साल तक। जिस साल वह बप्पा से ब्याही गयी थीं।
“कैसे नहीं चलेगी?” बुआ ने अपने हाथ नचाए थे, “ज़रूर चलेगी . . . ”
“नहीं चलेगी,” माँ ने दोहराया था।
“भौजायी मुझे मशीन नहीं देगी तो मेरे ब्लाउज़ का क्या होगा? बाहर बेगाने किसी दरज़ी से सिलवाना पडे़गा? भौजायी को आप मशीन से उठा नहीं सकते क्या?” बुआ ने बप्पा को तैश दिलायी थी।
“मैं नहीं उठने वाली,” माँ फिर चिल्लायी थीं, “तुम्हारी नाम की यह बहन तुम्हें छू सकती है, मगर मेरी मशीन को नहीं . . . ”
“नहीं उठोगी क्या?” बप्पा और बुआ दोनों माँ की कुरसी तक जा पहुँचे थे।
“नहीं,” माँ दोहराए थीं।
“कैसे नहीं उठोगी? मशीन तो क्या, तुम्हें तो मैं इस जहान से उठा सकता हूँ . . . ”
“जहान से बेशक उठा सकते हो,” माँ ने बप्पा को ललकारा था, ”लेकिन मुझे मेरी मशीन से अलग न कर पाओगे . . .”
“अपनी मालिकी फड़फड़ाती है?” बप्पा और बुआ ने फिर एक साथ माँ को कुरसी से दूर जा धकेला था और माँ का सिर दीवार से जा टकराया था।
♦ ♦ ♦
बप्पा देर शाम में लौटे।
आते ही मुझे बुलाए, ”तुम से एक प्रौमिस लेना है . . .”
“हाँ,” बप्पा की प्रतीक्षा में वह पूरा दिन मैंने घड़ी के साथ बिताया था, उसकी बढ़ती का मिनट-मिनट गिनते हुए।
“अपनी नानी से कभी मत कहना तुम्हारी माँ को चोट हम से लगी थी।”
“नहीं कहूँगी . . . ”
नानी मेरे सामने घूम गयीं:
माँ को अपने अंक में भरती हुईं, उन की गालें चूमती हुईं . . .
मुझ से अपने लाड़-लड़ाती हुईं-लूडो से, साँप-सीढ़ी से, समोसे से, गुलाब जामुन से . . .
बप्पा को उन की पसन्द के कपड़े दिलाती हुईं . . .
हँसती हुईं . . .
बतियाती-गपियाती हुईं . . .
“मरी कुछ बोल गयी क्या?” बुआ ने शंका जतलायी।
“नहीं,” बप्पा ने कहा, ”उस की बेहोशी आखि़र तक नहीं टूटी . . . ”
“उस की माँ को कुछ बतलाया?”
“उस के सिवा कोई चारा ही न था। वरना मैं अकेले हाथ कैसे वह सब निपटा पाता? अस्पताल का बिल? दाह-संस्कार का विधि-विधान?”
“निपट गया सब?” बुआ पूछी।
“उस की माँ ने सब किया करवाया। अपने मालिक लोग की मदद ले कर। उसकी मालकिन तो बल्कि कुन्ती का सुन कर रोयी भी . . . ”
“अरे!” बुआ हैरान हुईं।
“और मालिक हम दोनों के साथ अस्पताल गए। अपनी गाड़ी में। वहाँ के बड़े डॉक्टर से मिले। अस्पताल का बिल चुकाए। एम्बुलैन्स का इन्तज़ाम करवाए।”
“यह तो किसी फ़िल्म की मानिन्द है,” बुआ अपनी उँगलियाँ चबाने लगीं, ”और कुन्ती की माँ तनिक चीखी-चिल्लायी नहीं?”
“तनिक नहीं। पूरा टाइम अपने को सम्भाले रही। अस्पताल में। एम्बुलैन्स में। अपने क्वार्टर पर। कुन्ती को तैयार करते समय। श्मशान घाट पर। सभी जगह बुत बन कर अपने हाथ-पैर चलाती रही . . .।”
“इधर घाट पर तुम दोनों अकेले गए? और कोई दूसरा जन न रहा?”
“मालकिन रहीं। एकदम चुप और संजीदा। फिर अपने किसी कर्मचारी को कुछ समझा कर चली गयीं। कुन्ती की माँ को अपने साथ ले जाती हुईं . . .।”
“ऐसे लोग भी दुनिया में होते हैं क्या?”
“क्या नहीं होते? और होते न भी हो तो ऐसे बनाते-बनाते बन जाया करते हैं। इन माँ बेटी ने उन मालिक-लोग की जो सेवा-टहल कर रखी है, उस का फल तो फिर इन्हें मिलना ही था। साथ में उन लोग को मेरा लिहाज़ भी रहा। मौक़े-बेमौक़े मैंने जो उन लोग के कितने ही मेहमान और सामान ढोए और पहुँचाए हैं . . . ”
माँ और बप्पा की मुलाक़ात उन्हीं किन्हीं दिनों में हुई थी। जो फिर दोस्ती से होती हुई शादी में जा बदली थी।
♦ ♦ ♦
वरर्र . . . वरर्र . . .
उस रात मशीन ने मुझे फिर पुकारा।
मेरे पैर ट्रेडिल पर फिर जा टिके और हाथ सूई के नीचे दबी रखी अपनी फ़्रॉक पर।
ठीक माँ के अन्दाज़ में।
वरर्र . . . वरर्र . . .
व्हिरर . . . व्हिरर . . .
क्लैन्क . . . क्लैन्क . . .
मशीन की चरखी, मशीन की फिरकी, मशीन की सूई सब हरकत में आती चली गयीं . . .
अधूरी सिली मेरी फ़्रॉक को आगे सरकाती हुईं . . .
उसके सीने और उस की बाँह पर नए बखिए उगाहती हुईं . . .
जभी ड्योढ़ी का बल्ब जल उठा और बप्पा मुझे मशीन पर देख कर भौचक गए, “इधर तू बैठी है?”
“हाँ,” मैं घबरा गयी।
“तू यह मशीन चला लेती है?”
“हाँ। माँ ने मुझे सब सिखा रखा है,” मैंने हाँका।
“सच?” बप्पा की आवाज़ में एक नयी ही उमंग आन उतरी, मानो कोई पते की बात पता चली हो।
“यह सिलाई के लिए आए सभी कपड़े मैं सी सकती हूँ,” मशीन पर मैं ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताना चाहती। माँ के साथ।
“बढ़िया, बहुत बढ़िया . . . ”
♦ ♦ ♦
मेरी सिलाई का सिलसिला फिर पूरी तरह से चल पड़ा। बप्पा के गुणगान के साथ। मुहल्ले वालों की वाहवाही के साथ। शहर वालों की शाबाशी के साथ।
इनमें से कोई नहीं जानता मशीन अपने चक्कर माँ की बदौलत पूरे करती है, मेरी बदौलत नहीं। सिवा बुआ के। क्योंकि दो-एक बार जब भी वह इस पर बैठीं, माँ ने उन पर हमला बोल दिया: सूई उनकी उँगलियों में धँसाते हुए, फिरकियों के धागे उलझाते हुए, ट्रैडिल जाम करते हुए। परिणाम, वह जान गयीं माँ अपनी इस मशीन पर अपनी मालिकी अभी भी क़ायम रखे रही थी।
दीपक शर्मा
1 टिप्पणियाँ
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जीवन तेरे रंग अनेक ! बढ़िया
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