अटूट घेरों में

15-06-2024

अटूट घेरों में

दीपक शर्मा (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

 (1) 

 बज रहे मोबाइल की स्क्रीन ’सिस्टर’ दिखाती है। 

अंदर गर्भवती मेरी पत्नी अपनी डॉक्टर से अपना चेक-अप करवा रही है और मेरी माँ और बहन के फोन पर न केवल मेरी ही ख़बर लेती है बल्कि मेरे पिता को भी ख़बर कर दिया करती है। आख़िर मेरी सौतेली माँ की सगी भतीजी जो ठहरी। 

“हैलो,” मैं अपना मोबाइल लेता हूँ। मैं जानता हूँ बहन का फोन माँ के बारे में होना है और माँ की मुझे चिंता है। बहुत चिंता। उन्हें एक्यूट ल्यूकीमिया है। 

“डॉक्टर ने आज बताया, अम्मी अब किसी समय भी जा सकती हैं।”

बहन की और मेरी माँ साझी हैं, पिता नहीं। उसके पिता माँ की तरह मुसलमान हैं और मेरे पिता मेरी सौतेली माँ की तरह हिंदू। मेरे पिता और मेरी माँ दोनों ही ने, दो-दो ब्याह किए। एक पारंपरिक और दूसरा ऐच्छिक। अंतर रहा तो यह कि माँ का पहला ब्याह पारंपरिक था और मेरे पिता का दूसरा। 

“माँ को फिर से मेरे पास लिवा लाइए,” माँ की बीमारी की ख़बर मिलते ही अभी पिछले ही महीने मैंने उन दोनों को पत्नी से चोरी अपने इस शहर में बुला लिया था। यहाँ के कैंसर इंस्टीट्यूट के स्पेशल वार्ड में माँ को भरती करवाकर उन्हें कीमोथैरेपी और रेडियोथैरेपी दिलाई थी और डिस्चार्ज करते समय डॉक्टर ने उनकी तकलीफ़ बढ़ जाने पर उन्हें फ़ौरन फिर से यहीं चले आने की सलाह दी थी। और दोनों अभी सात ही दिन पहले यहाँ से कस्बापुर लौटी थीं। 

“तुम्हारा इधर आना मुश्किल है?” बहन ज़रूर अपने चेहरे पर टेढ़ी मुस्कान ले आई है। मुझ से अब वह पहले से दुगुनी नाराज़ रहने लगी है, जब से अपनी शादी में मैं ने उन दोनों को बुलाया नहीं। शादी की सूचना तक भी शादी के बाद दी थी। अपने हनीमून के दौरान। पत्नी से चोरी। हालाँकि उन्हें न बुलाने के पीछे मेरे पिता का आदेश रहा था। कड़ा आदेश। 

“देखता हूँ,” मैं तुरंत फोन बंद कर देता हूँ। अंदर से दरवाज़े पर एक पदचाप मेरे निकट चली आई है। 

“डॉक्टर ने क्या कहा?” बाहर आ रही पत्नी की दिशा में मैं बढ़ लेता हूँ। 

“दो बात कही हैं। एक यह कि मेरी लेबर कभी भी शुरू हो सकती है और दूसरी यह कि मुझे अपनी डिलिवरी के लिए ‘बेबी-लैंड’ अस्पताल में बुकिंग करानी होगी। इस डॉक्टर के नर्सिंग होम में मेरे ऑपरेशन के उचित साधन नहीं और वही अकेला ऐसा अस्पताल है जो बाहर के डॉक्टरों को अपना ऑपरेशन थिएटर अपने स्‍टाफ के साथ उपलब्ध कर दिया करता है।”

“मैं देखता हूँ, आज ही देखता हूँ।” 

“आज क्या, अभी जाकर बुक करा लो। याद रखो यह ब्रीच केस है,” पत्नी रोआँसी हो रही है, “इस बार कोई लापरवाही नहीं चलेगी।”

पिछली बार उसके गर्भ के तीसरे माह हमारा शिशु चला गया था और इस बार इस नए गर्भ के इस नवमें माह के इस तीसरे सप्ताह तक हम दोनों ने हर सम्भव सावधानी और सतर्कता बरती है। विशेषकर यह जानने के बाद कि पत्नी के गर्भाशय के पेलविक इनलेट, श्रेणीय प्रवेशिका, में शिशु के सिर के स्थान पर उसके पैर आ बैठे हैं। 

“क्या मैं याद नहीं रखता?” मैं पत्नी की कमर घेरकर उसे अपने आलिंगन में ले लेता हूँ, ”वह मेरा भी तो आह्लाद है।”

आने वाले बेटे का नाम हमने पहले ही से चुन रखा है, आह्लाद। 

“यह याद रखते हो तो यह भी याद रखो,” पत्नी तत्काल मुझसे अलग छिटक लेती है, ”मैं तुम्हारे इस अल्ट्रा मॉडर्न शहर में नहीं, अपने हरदोई में पली-बढ़ी हूँ। एक संस्कारशील परिवार से आई हूँ। ऐसी निर्लज्जता मुझे पसंद नहीं।”

पत्नी को घर छोड़कर जैसे ही मैं अपनी स्टीयरिंग पर लौटता हूँ, मैं माँ का नंबर अपने मोबाइल पर दबाता हूँ। 

“तुम आ रहे हो?” उधर उसे बहन उठाती है, ”आज?” 

“तुम लोग यहाँ आ जाओ न,” मेरी आवाज़ में खीझ चली आई है—बहन को मैं नहीं बताना चाहता, इन दिनों मैं अपने आह्लाद के आगमन की प्रतीक्षा में हूँ—“इस सप्ताह मेरे दफ़्तर में ओडिटिंग चल रही है। मेरा दफ़्तर छोड़ना मुश्किल है।”

“इधर मुश्किल ज़्यादा बढ़ गई है। अम्मी कोमा में चली गई हैं और उनकी हालत नाज़ुक है . . .” बहन फ़ोन काट देती है। बहन का व्यवहार इधर वैमनस्य की परिधि छूने लगा है। 

 मेरी सैंट्रो नर्सिंग होम का रास्ता पकड़ लेती है। 

वहाँ जाकर मुझे मालूम होता है आगामी दो माह तक सभी कमरे बुक हो चुके हैं। 

कारपार्किंग की दिशा में अपने क़दम बढ़ाते हुए मैं पत्नी को निराशाजनक यह सूचना देता हूँ तो वह मुझे ढाढ़स बँधाती है, ”अभी वहीं रुकिए, अपनी गाड़ी में। मैं अभी बुआ से बात करती हूँ। फूफाजी की पहुँच फिर कब काम आएगी?” 

मैं मुस्कुरा पड़ता हूँ। 

पत्नी की मूर्खता पर। 

उसके फूफा जी यानी मेरे पिता भारत सरकार में केवल अपने विभाग के सचिव हैं। देश भर के निजी अस्पतालों पर उनका कैसा ज़ोर? 

किन्तु आश्चर्य! 

दस मिनट के अंदर मेरे पिता की आवाज़ मेरे मोबाइल पर आ पहुँची है, “अभी अपनी सैंट्रो में रुके रहो। पाँच मिनट के अंदर तुम्हें इसी ‘बेबी-लैंड’ अस्पताल का एक कर्मचारी फोन करेगा, ‘आइए, आकर अपना कमरा बुक करवा लीजिए।’”

उन्होंने सच कहा है। 

पत्नी के नाम मुझे यहाँ कमरा मिल गया है। मैं अपने पिता का मोबाइल मिलाता हूँ। 

“’काम हो गया?” अपना मोबाइल उठाते ही वे पूछते हैं। 

“हाँ, पापा, थैंक यू।”

सामान्य परिस्थिति में मैं उनका आभार कम ही स्वीकारा करता हूँ। किन्तु इस समय उनके प्रति मैं सचमुच ही कृतज्ञता भाव से ओतप्रोत हूँ। 

“किस बात का थैंक्यू? कैसा थैंक्यू?” उनका स्वर गद्‌गद्‌ हो उठा है: “तुम्हारा आह्लाद मेरी ज़िम्मेदारी भी तो है, मेरी ख़ुशी भी तो है। तुम जानते हो, तुम मुझ पर पूरा अधिकार रखते हो। मेरे बेटे हो। कुछ भी माँग सकते हो। कुछ भी कह सकते हो . . .”

“माँ कोमा में है, पापा,” मैं अचानक फट पड़ता हूँ, “उनके लिए कुछ भी कर दो, करवा दो . . .”

माँ के कैंसर के बारे में मैं उन्हें पहले ही बता चुका हूँ। 

“शट अप!” पापा की आवाज़ में एक तोपची के तोप-गोले की ज्वाला सुलग ली है और वे फोन काट देते हैं। 

(2) 

 माँ से वह कस्बापुर में मिले थे। सन्‌ 1989 में। 

बहन उस समय सात वर्ष की थी और माँ का पहला तलाक़ हो चुका था। 

ज़िलाधीश की हैसियत से पापा उस स्कूल के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के एक सदस्य के रूप में भी नामित थे, जिसकी लाइब्रेरियन माँ थीं। शायरी की शौक़ीन और सुंदर। 

उर्दू कविता की पापा को भी धुन रही और उन्होंने कस्बापुर से लखनऊ हुए अपने तबादले के एक महीने के अंदर ही माँ से सिविल मैरिज कर डाली। सन्‌ 1990 में। इस शर्त के साथ कि माँ उधर कस्बापुर के अपने मायके घर ही में अपनी बेटी छोड़ आएँगी। हाँ, उसे मिलने वह ख़ुद वहाँ ज़रूर जा सकती थीं। 

मेरा जन्म सन्‌ 1991 में हुआ था और माँ मुझे कस्बापुर ख़ूब ले जाती भी रहीं। वहाँ उनके माता-पिता तो मुझ पर लाड़ उड़ेलते किन्तु बहन तब भी मुझसे कटी-कटी ही रहा करती। एक बार उसकी सहेली ने मेरा नाम पूछा और जैसे ही मैंने अपने स्कूल के नाम की तरह अपने नाम के साथ अपने पिता का सरनेम दोहराया तो वह चौंक गई: क्या तुम हम लोग की जात के नहीं? जभी माँ वहाँ आ पहुँचीं और मुझे अपनी गोदी में बिठला कर हम तीनों को कजांज़ाकिस की एक कहानी का हवाला देकर समझाने की चेष्टा करने लगीं: हम सबकी जात एक है-नौए इंसानी, आदमजात। हम सब मानवजाति से हैं। 

कहानी यों थीं—हवा में अंजीर के दरख़्तों की ख़ुश्बू तैर रही थी, जब एक बुढ़िया एक आदमी के पास आ खड़ी हुई। उसके हाथ में एक टोकरी थी जो पत्तों से ढंकी थी। उसने पत्ते हटाए और उस टोकरी में से दो अंजीर छाँटकर उस आदमी की तरफ़ बढ़ा दिए। आदमी ने पूछा: दादी अम्मा, क्या तू मुझे जानती है तो बुढ़िया हैरान हो गई—नहीं, मेरे बच्चे। लेकिन तुम्हें देने के लिए क्या तुम्हें जानना ज़रूरी है? तुम एक इंसान हो, मैं भी एक इंसान हूँ। क्या यह काफ़ी नहीं? 

माँ की यह कहानी उस समय मुझे बहुत भायी थी। लेकिन बाद में मुझे लगा था हम बच्चों की नाकझोंक के जवाब में उस कहानी को जोड़कर उन्होंने एक पेचीदा सच्चाई के पेच खोलने की बजाय और चिपका दिए थे। 
बचपन में हम एक खेल खेला करते थे—गौसिप। खेल झुंड में बैठे पहले खिलाड़ी के कान में छोड़ी एक फुसफुसाहट से शुरू होता था और अंतिम खिलाड़ी के कथन पर समाप्त। रास्ते में फुसफुसाहट में छोड़ा गया चुटकुला या क़िस्सा कट-छँटकर एक अलग ही रूप धारण कर लिया करता और हम सबके मनोरंजन का साधन बन जाया करता। 

मुझे लगता है, बचपन पीछे छोड़ चुके लोग यह खेल ज़्यादा खेलते हैं और अनचाहे सच की फुसफुसाहट को काट-छाँट कर, कतर-कुतर कर उसे अपने मनचाहे घेरे में ले आते हैं। 

उसी ’गौसिप’ खेल के अंतर्गत अगर माँ अपने अतीत की लकीर को फैलाकर एक नई गोलाई दे रही थीं तो पापा अपने रेडिकल, उग्र सुधारवादी दायरे से, बाहर निकल रहे थे। उसी बड़ी लाइन में लौट जाने के लिए जहाँ रूढ़िग्रस्त उनका अपना धनाढ्य परिवार था जो समाज के घेरे के अंदर रहने वाली मेरी भावी सौतेली माँ से उन्हें ब्याह देने को आतुर था। 

परिणाम, सन्‌ 1999 के आते-आते, माँ से तलाक़ लेने के लिए पापा ने औपचारिक रूप से अपना धर्म फिर बदल लिया और माँ कस्बापुर के लिए विदा हो गईं। सदा-सर्वदा के लिए। 

हाँ, मेरे जीवन में उनके सान्निध्य की प्रबलता सदैव विद्यमान रही है। समय-समय पर वे मुझे मिलती जो रही हैं। कभी बहन के साथ तो कभी बहन के बिना। कभी मेरे स्कूल की रिसेस में तो कभी किसी सार्वजनिक पुस्तकालय में। उधर, कस्बापुर जाते ही अपनी पुरानी ’बॉस’ के संपर्क-सू़त्रों के बूते पर उन्हें एक स्थानीय कॉलेज के पुस्तकालय में लाइब्रेरियन की नौकरी मिल गई थी और विभिन्न पुस्तकालयों की किताबें देखने या नई किताबों की ख़रीद का हवाला देकर वे साल में दो-एक बार मुझे दूर के उन शहरों में भी मिलने आ जाया करती थीं। जब-जब, जहां-जहाँ मेरी इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई मुझे लेती गई थी। भेंट में उनकी भरी बाँहों से मिले बंद डिब्बे और लिफ़ाफ़े जब-जब अपने होस्टल के कमरों में मैं खोलता तो मेरी रुलाई लाख मेरे रोके न रुका करती। 

 (3) 

 अगले दो दिन भी माँ की स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहती है। कोमा में। पाँचवीं सुबह लगभग पाँच बजे देर से उठने वाली मेरी पत्नी मुझे पुकारती है। रोती हुई। 

”क्या बात है,” मैं घबरा उठता हूँ। 

”हमारा बिस्तर गीला हो रहा है। लगता है कोई अनहोनी होने वाली है। हमारी डॉक्टर को फोन करो अभी . . . ”

”उसकी एमनियोटिक सैक फट गई होगी,” डॉक्टर कहती है, ”और पानी बहने लगा है। उसे ‘बेबी-लैंड’ अस्पताल पहुँचाओ फ़ौरन . . . मैं वहाँ पहुँच रही हूँ।”

रास्ते में पत्नी अपनी माँ से पहले मेरी सौतली माँ को फोन करती है, “बुआ आप आज ही माँ को अपने पास बुलवाकर यहाँ चली आइए।” 

उन ननद-भौजाई की बुकिंग दो दिन बाद की रही। लेकिन दोनों ही ने अपनी वह बुकिंग कैंसिल करवा दी है और आज की ले ली है। 

‘बेबी-लैंड’ अस्पताल में प्रबंध संचालक को पत्नी के ऑपरेशन की व्यवस्था करने में तनिक देर नहीं लगी है और हमारा आह्लाद उन ननद-भौजाई के आने से पहले ही आ पहुँचता है। 

शाम पाँच बजकर दस मिनट पर। 

पत्नी की डॉक्टर मुझे बधाई देती हुई थक नहीं रहीं। 

पत्नी को बुक हो चुके हमारे कमरे में पहुँचा दिया गया है। वह सो रही है। प्रसूति की नीम बेहोशी में। 

आह्लाद भी सो रहा है। 

लेकिन यहाँ नहीं। ‘बेबी-लैंड’ अस्पताल की नर्सरी में। 

उसे पत्नी के पास बाद में लाया जाएगा। पत्नी के कमरे से उठकर मैं बाहर बरामदे के सोफ़े पर आ बैठा हूँ। 

बैठते ही मैं माँ का मोबाइल मिलाता हूँ। उन की चिंता से मुक्त होना मेरे लिए असम्भव है। 

माँ का मोबाइल फिर बहन ही ने उठाया है। वह रो रही है। 

“माँ?” मैं अवाक् हूँ। 

“वे जा जुकी हैं,” वह फोन काट देती है। छाती थामकर मैं पापा को फोन लगाता हूँ। 

“मालूम है?” फोन पाने पर भी वार्तालाप वही शुरू करते हैं, “तुम्हारे ससुर और मैं भी तुम्हारी सास और माँ के साथ तुम्हारे पास पहुँच रहे हैं। बस दो घंटों में। एनी न्यूज़? नवीं ताज़ी?” 

“माँ चली गई हैं,” मैं रो पड़ता हूँ। 

“शट अप,” वे अपने तोपखाने में जा पहुँचते हैं और फोन काट देते हैं। 

बिना मेरे जाने उपेक्षित, अरक्षित मेरी रुलाई अर्गल खोलकर बाहर लपक ली है। 

तभी नर्सों का एक झुंड मेरे सामने आ गुज़रता है। और मुझे ध्यान आता है पापा को आह्लाद के आने की ख़बर देनी अभी बाक़ी है।

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