खटका

दीपक शर्मा (अंक: 204, मई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

 

”मैं उस घड़ी को पास से देखना चाहती हूँ,” मधु फिर कहती है। इस अजनबी शहर में हम दोनों अपने विवाह के प्रमोद काल के अन्तर्गत विचर रहे हैं, और जब से उसने हमारे होटल के कमरे से इस घड़ी के अंक रात में चमकते देखे हैं, उसने ज़िद पकड़ ली है, इस क्लॉकटावर की घड़ी उसे पास से ज़रूर देखनी है।

”उसके लिए हमें एक गाइड की ज़रूरत पड़ेगी,” मीनार की ऊँचाई मुझे भयभीत कर रही है। 

”मैं गाइड कर दूँगा,” एक बूढ़ा अपने पहचान पत्र के साथ आगे बढ़ आया है। वह ज़रूर सोचता है पति लोग अपने से कम उम्र के पुरुषों से बचते हैं। ज़रूर वह तभी से हमारा पीछा करता रहा है जब से उसने मुझे उस उत्साही नवयुवक को भगाते हुए देखा था जो हमें इस क्लॉक टावर की इमारत के दरवाज़े पर मिला था, अपने दावे के साथ, “मैं आपको टावर के अन्दर ले जाऊँगा, सर। घड़ी के बारे में मैं सबसे ज़्यादा जानता हूँ, सर . . . ”

”सीढ़ियाँ चढ़ने में हाँफ नहीं जाएँगे?” मैं अपनी आशंका जतलाता हूँ। 

”इन सीढ़ियों को कोई भी पार कर ले साहब।” बूढ़ा हँसता है, “6इंची हैं . . . ”

”मगर होंगी तो ढेर सारी? बहुत ऊँची मीनार है . . . ”

”ऊँची कैसे नहीं होगी, साहब? 70मीटर ऊँची है। पूरे शहर में इससे ऊँची बस एक ही इमारत और है, वह फ़ाइव स्टार होटल . . . ”

”हम वहीं तो टिके हैं,” मधु मुस्कुराती है, “यह क्लॉक टावर वहाँ से साफ़ दिखाई देता है।”

”बाहर ही से तो,” बूढ़ा गाइड भी मुस्कुरा पड़ता है, 

”टावर का भीतर देखना हो, तो भीतर जाना ही पड़ेगा . . . ” चलिए भीतर चलते हैं,” मधु ने मेरी बाँह घेर ली। 

”रुको अभी,” अपनी बाँह छुड़ाकर मैं भीतर के उद्यान में पड़े बैंचों में से एक की ओर बढ़ लेता हूँ, “पहले वहाँ थोड़ी देर बैठेंगे और वहीं से इसे देखेंगे समझेंगे . . . इसका भरपूर नज़ारा लेंगे . . . ”

”यह भी ठीक है, साहब,” गाइड अपने क़दम मेरे क़दमों से आ मिलाता है, ”घड़ी का व्यास चार मीटर है, इसका डायल पारभासी शीशे का बना है और इसके अंक काले इनैमल के। रात में जब टावर के अन्दर गैस जेट जलाए जाते हैं तो उसके अंक रौशन हो जाते हैं। पाँच घंटियाँ हैं, एक घंटे घंटे पर बजती है और बाक़ी चार हर पन्द्रह मिनट पर . . .।”

”मैं घड़ी पास से देखना चाहती हूँ,” मधु हमारे साथ आगे नहीं बढ़ रही, वहीं खड़ी रह गई है और चिल्लाती है, “ऊपर से नीचे का नज़ारा देखना चाहती हूँ, नीचे से ऊपर का नहीं।”

”चलिए साहब,” बूढ़ा गाइड अपने क़दम रोक लेता है, “बालकनियों तक ही चले चलिए . . . ” बालकनियाँ मीनार की संरचना की पहली काट हैं। 

”नहीं, अभी मैं बैंच पर बैठूँगा,” मैं मधु से कहता हूँ, ”तुम बालकनी में पहुँचकर मुझे बुला लेना . . . ”

”ठीक है,” मधु झट मान जाती है, “आप बैठिए . . . ”

मधु नहीं जानती पन्द्रह साल के हवाई जहाज़ के चालन के बाद ऊँचाई अब मेरे भीतर घबराहट पैदा कर देती है। कैसी भी, कोई भी। बल्कि इसीलिए अपनी एयरलाइन के इस वर्ष के परीक्षण में मुझे ’स्पेशियल डिस औरिएंटेशन (स्थिति-भ्रान्ति) से पीड़ित घोषित कर दिया गया रहा जिसके अन्तर्गत अपने हवाई जहाज़ पर मेरा नियन्त्रण क्षीण पड़ने लगा था। जहाज़ को ऊँचाई देते समय मुझे आभास होता, मैं नीचे जा रहा हूँ। या फिर उसे सीधे दिशा-कोण पर रखने के बावजूद मुझे मालूम देता मैं दाईं दिशा की ओर अभिमुख हूँ। मधु को मैंने नहीं, मेरी माँ ने चुना है। चालीस साल की आयु में जब अपनी नौकरी के जाते ही मैं अपने शहर लौट रहा तो मेरे माता-पिता ने खिले माथे से मेरा स्वागत किया था। 

”अभी हमने किसी को कुछ नहीं कहना-बताना,” माँ घोषणा किए रहीं, “बस तेरी शादी कर देनी है . . . ”

”हमें रुपये पैसे की कमी है कोई?” पिता कहते रहे थे, “तुम चाहे तो ज़िन्दगी भर नौकरी के बिना अच्छा गुज़ारा चला सकते हो।”

”आपकी तरह?” माँ हँसती रहीं। 

मेरे पिता ने कभी नौकरी नहीं की। इधर शहर में अपने बँगले का आधा भाग एक बड़े बैंक को ऊँचे किराए पर दे रखा है, साथ ही गाँव की अपनी ज़मीनों से भी हम लोग को अच्छी रक़म वसूल हो जाती है।

”और अपनी जैसी पत्नी तुम इसे दिला देना,” मेरे पिता ने माँ को छेड़ रहे, “तस्वीर पूरी हो जाएगी . . . ”

मेंरे पिता जितने स्वकेन्द्रित आत्म सन्तोष में मग्न रहते हैं, माँ उतनी ही व्यग्र और स्वतोविरोधी। वे भी एक बड़े ज़मींदार की बेटी हैं, लेकिन मेरे नाना ने उन्हें ब्याहने से पहले कान्वेंटी शिक्षा दिलाई रही जिसे बी.ए. तक पूरी भी कराई। जिस कारण मेरे पाँचवीं फ़ेल पिता के संग अपने आत्मतत्व का तालमेल बिठलाना माँ के लिए शुरू से असम्भव रहा है। 

”अपनी जैसी क्यों?” मैं तमका रहा, “शशि क्यों नहीं?”

शशि मेरी प्रेमिका है। मेरी पुरानी एयरलाइन की परिचारिका। जिसके संग मेरे विवाह की सम्भावना माँ पिछले दस वर्षों से लगातार तितर-बितर कर रही हैं। 

”क्योंकि दहेज़ के असबाब के नाम पर उसके पास बिन बाप के आठ छोटे भाई-बहन हैं जो तुम्हारा सारा रुपया भकोसने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।”

माँ अपना कथन दोहरा रही थी। अपनी नई योजना के साथ, “तुम्हारे लिए मैं न एक डाॅक्टर देख रखी है। इधर सिविल अस्पताल में उसकी तैनाती हाल ही में हुई है। मध्यवर्गीय उसके पिता के पास तीन बेटे हैं। सभी के पास नौकरियाँ हैं। सभी के शहर दूसरे हैं। दूर हैं। ऐसे में उसके बैंक अकाउंट और उसकी तनख़्वाह में उनमें से किसी के भी हस्तक्षेप करने की गुंजाइश नहीं के बराबर है . . . ”

”लेकिन आप जानती हैं शशि को मैं कभी नहीं छोड़ूँगा . . . ” 

“उसे छोड़ने को कह कौन रहा है? यह डॉक्टर तुम्हारे नहीं, हमारे काम आएगी . . . ”

”मगर किसी भी लड़की को अपने पास दास बनाए रखने में मैं कोई रुचि नहीं रखता।”

“उस डॉक्टर की नौकरी ही उसे तुम्हारे नहीं, हमारे पास रखेगी। और वह तुम्हारी नहीं, हमारी दासी होगी . . . ” माँ मुझे एक कुटिल मुस्कान दिए थीं और अगले ही सप्ताह मधु और मेरी सगाई सम्पन्न हो गई थी। हमारी सगाई और विवाह के बीच जो एक माह का अन्तराल रहा वह पूरा माह भी माँ ही ने मधु के संग अधिक बिताया रहा, मैंने नहीं। उसे पूरी तरह अपने वश में करने। दावत पर दावत खिलाकर भेंट पर भेंट दिलाकर। विवाह का आयोजन भी हमारे ही शहर में रखा रहा केवल एक ही माँग के साथ। आयोजन किसी फ़ाइव स्टार होटल में रखा जाएगा, जिसका बिल मधु के पिता चुकाएँगे, जिसे अपनी 6साल की सरकारी नौकरी के बूते पर मधु सहर्ष मान गई थी। और सहज ही अपने विवाह के अगले दिन हम इस अजनबी शहर के लिए निकले रहे थे। परसों। 

बैंच से वह मीनार और भी ऊँची लग रही है। और ज़्यादा स्पष्ट भी। दीवारगीर चार बन्धनियों पर खड़ी उन चार बालकनियों के मेहराबी दरवाज़े घोड़े की नाल के आकार के हैं, बीच का उसका भाग लम्बी, लाल सपाट ईंटों की दीवार लिए है। और घड़ी प्रकट होती है फूलकारी वाले रंगदार पत्थरों की 6पट्टियों के बाद जहाँ बीच-बीच में ईंटों के कुन्दे मोड़ लेते मालूम देते हैं। घड़ी के ऊपर वे निकास हैं जो घड़ी के घंटों की गूँज बाहर ले जाते हैं दूर तक। निकास तीन परतों में बँटे हैं। पहली परत में चार निकास हैं। बालकनियों के चार दरवाज़ों की सीध पर उन्हीं की लम्बाई लिए। दूसरी परत के निकास चौड़े कम हैं किन्तु मात्रा अधिक रखते हैं। उनके ऊपर मीनार का पहला तल उस चौरस अंश पर जा ख़त्म होता है जो अपनी दीवारों पर एक एक गुम्बद लिए हैं। ये चारों गुम्बद प्याज़ के आकार के हैं। मीनार के अगले तल पर एक और संरचना है। चार बड़े निकास वाली पहले तल से ऊँचे तल पर। उसमें चार गुम्बद बने हैं। आकार में समान, किन्तु कहीं छोटे। शिखर पर एक बहुत बड़ा गुम्बद है, वातसूचक लिए। 

अकस्मात मुझे लगता है मैं उसे नीचे से नहीं, ऊपर से देख रहा हूँ। किसी हवाई जहाज़ से। और वह वातसूचक कोई पक्षी है जो मेरे जहाज़ से आ टकराने वाला है। अपनी देह का स्थापन मैं निश्चित नहीं कर पा रहा था। तभी एक उच्छृंखल अनवलि मेरी ओर बढ़ आती है। यह मधु के मोबाइल की रिंगटोन है। शायद अपना मोबाइल वह मेरी जेब में भूल गई है। नम्बर देखता हूँ तो चौंक जाता हूँ। नम्बर शशि का है जो मधु से कभी नहीं मिली है और मैं सोचता हूँ उन दोनों को एक दूसरे से कभी मिलना भी नहीं चाहिए। 

”तुम यक़ीन क्यों नहीं करतीं?” शशि मोबाइल पर बोल रही है, “मैं तुम्हारे पति की लिव-इन गर्लफ्रैंड हूँ। देहली में हमारा साझा फ्लेट है जिसका किराया हम बारी-बारी से भरते हैं . . . ”

”तुम ऐसा क्यों कर रही हो, शशि?” मुझसे बोले बिना अब नहीं रहा जाता। 

”क्योंकि तुम्हारा मोबाइल मिलाती हूँ तो कॉल नॉट अलाउड लिखा चला आता है,” उसकी आवाज़ रोआँसी है। 

”तुम समझ सकती हो, शशि समझने की चेष्टा करो, शशि मैं हनीमून पर हूँ . . . ”

”लेकिन मैं अकेली हूँ। तुम्हें मिस कर रही हूँ . . . ”

”मैं भी . . . ” तभी मुझे सामने से मधु आती दिखाई देती है। मेरे बैंच की दिशा में। लम्बे डग भरती हुई। बूढ़े गाइड को पिछेलती। तत्काल उसका मोबाइल स्विच ऑफ़ कर देता हूँ। उस पर कोरी स्क्रीन लाने हेतु। 

”कौन थी?”मधु हँसती है, “शशि? शी इज़ अ स्टौकर। ऐन अटर न्यूसेन्स (लुक-छिपकर वार करने वाली एक घातिनी। उपद्रवी, लोककंटक . . .) . . . ”

मैं झेंप जाता हूँ।

”ऐसे लोगों को मैं बहुत अच्छी तरह जानती हूँ। ये बहुत दिक करते हैं . . .”

”मतलब?” मैं सतर्क हो लेता हूँ, “तुम्हारे बारे में भी मुझे ऐसे दावे सुनने पड़ सकते हैं?”

”शायद।” मधु एक ठहाका छोड़ती है, ”लेकिन आप भी उन्हें गम्भीरता से मत लीजिएगा। जैसे शशि का कहा मैं बेकहा मानती हूँ और उसका सुना, अनसुना . . . ” 

क्या वह मेरी हँसी उड़ा रही थी? या मुझे तैयार कर रही थी? किसी रहस्योद्घाटन के लिए? 

”इनसे पूछिए,”बूढ़ा गाइड मधु के बराबर आ पहुँचता है, “दूसरी सीढ़ी पार करते ही यह लौट क्यों आई?”

”क्यों लौट आईं?” मैं मधु से पूछता हूँ। 

”मुझे याद आया मेरा मोबाइल आपकी जेब में रह गया है। इन गाइड साहब से पूछा तो इन्होंने बताया ये मोबाइल रखते ही नहीं। ऐसे में बालकनी पर पहुँचकर आपको अपने पास बुलाती कैसे?”

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में