चिकोटी
दीपक शर्मा“वर-वधू घर पर ही हैं ना?”
दरवाज़े पर बहू की बड़ी दो बहनें अपने बच्चों के साथ खड़ी थीं।
“आइए,” उन्होंने मुस्कराने की चेष्टा की। बहू के परिवार का कोई भी सदस्य उन्हें न भाता।
“आज छुट्टी जो ठहरी,” बड़ी वाली बोली, “बाहर घूमने भी तो जा सकते थे . . .”
बहू उसी टैक्सटाइल मिल में पैकर थी जहाँ बेटा करघा चलाता था। बहू से बेटा वहीं मिला था। पिछले साल। मिलने के तीसरे माह ही उसे ब्याह लाया था।
बहू के पिता एक मामूली दरजी थे और छह बेटियों के पुत्रविहीन उस परिवार में सभी ने उस का स्वागत किया था।
“जीजी? जीजी?” बहू बाहर लपक आयी। वैसे दोपहर में घर रहने पर बहू एक लम्बी नींद लिया करती। निर्विघ्न। कहती, मेरी नींद में विघ्न पड़ जाए, तो कमबख़्त सिर दर्द पीछे लग जाता है . . .
“कैसी है?” एक बड़ी बहन ने पूछा।
“कैसी है?” दूसरी ने पूछा।
दोनों बहनें बारी-बारी उस से चिपक लीं।
नीतू मौसी, साथ आए पाँच बच्चों में से किसी एक ने कहा, “आज हम फिर पेस्ट्री खाएँगे . . .”
चुप, बहू ने बच्चे को एक चिकोटी काटी। उस की गाल पर।
चिकोटी काटने की आदत उस परिवार में सभी को थी। जब भी उनमें से किसी को संदेह होता उनका कोई भेद खुलने जा रहा है, तो झट कहीं से एक अँगूठा तथा उँगली उठते और कहने वाले के मुँह पर ढक्कन लगा देते। इस बात की परवाह किसे थी चिकोटी सब की आँखों के सामने काटी जाती थी।
“अम्मा, चाय बना लाओ,” बेटा भी आन उपस्थित हुआ।
वह समझ गयीं। उन्हें वहाँ से हटाने के लिए ऐसा कहा गया था। वह रसोई में चली आयीं।
“अम्मा, कुछ पकौड़े भी बना लाना,” बेटा वहीं से चिल्लाया।
बेटा बहू की मूठ में था। उसी की मनोदशा व सुविधा देख कर सोता-जागता, नहाता-धोता, हँसता-गाता।
“ख़ाली पकौड़ों से नहीं चलेगा, भई,” पहली वाली बड़ी बहन ठुमकी, “हम तो पूरी दावत खाएँगे . . .”
“हाँ, भई,” दूसरी वाली ने जोड़ा, “तुम्हारा वेतनमान बढ़ा है। तुम्हें ख़ुशी तो बाँटनी ही पड़ेगी . . .”
“धीरे बालो,” बहू बिफरी, “इनकी अम्मा इसी तरफ़ कान धरे बैठी है। उसे पता चला इनकी तनख़्वाह बढ़ी है तो वह दिन में दस बार चाय पीने लगेगी . . .”
जब से बहू ने जाना था, उन्हें चाय अच्छी लगती थी, वह उनकी चाय में व्यवधान ज़रूर डालती। यदि उनकी चाय गैस पर तैयार हो रही होती, तो वह कभी उन्हें, अपना दुपट्टा इस्त्री करने को बोल देती या फिर यही कि, ’मेरे बाल तो बनाइए आज, सासू माँ। कैसे रूखे-उलझे बैठे हैं’।
बहू ने उन्हें अम्मा कभी नहीं पुकारा था। उन की पीठ, पीछे बेटे से कहती, तुम्हारी अम्मा, और सामने सासू माँ।
“कुछ लाना तो नहीं, अम्मा?” कोलाहल को अपने कमरे में स्थापित करते ही बेटा उनके पास रसोई में चला आया।
“क्या बाज़ार जा रहे हो?” बेटे के संग उनकी साझेदारी बनी रही थी।
इसी सन् 2000 से, जब एक सिनेमा में गेटकीपर रहे, उस के पिता अपनी नौकरी गँवा बैठे थे। सिनेमा हाल तोड़ा जाना था। व्यावसायिक एक बाज़ार को जगह देने हेतु। छिटपुट कई नौकरियाँ फिर उन्होंने पकड़ी थीं और छोड़ी थीं और फिर एक सुबह घर से निकले, तो लौटे नहीं। माँ-बेटे ने खोजबीन जो की भी, सो निष्फल ही रही। वह लापता के लापता ही रहे। बेटा उस समय कुल जमा दस साल का था, मगर घर की सिलाई तो वह पति के रहते भी सँभाले थी, साथ कुछ घरों में खाना बनाने का काम भी पकड़ ली थी। उधर बेटे ने स्कूल के बाद दुकानदारों के यहाँ हाथ बँटाने का काम शुरू कर दिया था। अपनी दसवीं जमात के बाद वह स्थानीय आई.टी.आई., औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान, से एक सालाना कोर्स करने का इरादा रखता था और उसे अपनी फ़ीस अपने बूते पर प्राप्त करनी थी। करघा-चालक की यह नौकरी बेटे को उसी के आधार पर फिर मिली भी। उस का कोर्स ख़त्म होते ही।
“हाँ,” बेटा झेंप गया, “सोचता हूँ मुझे इन्हें अच्छा जलपान करवा ही देना चाहिए। वहाँ इन लोग के घर जाता हूँ तो अच्छी-खासी ख़ातिर पाता हूँ ,” . . .वह चुप रहीं।
“तुम पकौड़े तैयार करो, अम्मा,” बेटे ने उन की पीठ सहलायी। “मैं कुछ मीठा ले कर अभी आया . . .”
न चाहते हुए भी उन्होंने बेसन फेटा, आलू और प्याज़ काटा।
गैस पर तेल अभी गरम हो ही रहा था कि बहू दबे पाँव रसोई में आ घुसी।
बिना एक शब्द बोले उसने मेहमानों के लिए अलग ख़रीदे गए बरतन, एक ट्रे उठा कर वापिस चल दी।
तेल का धुआँ अंधी हो रही उनकी आँखों से टकराया और उनकी आँखों से पानी टपक पड़ा।
“अम्मा, यह तुम्हारे लिए है,” बेटा जब भी बाज़ार जाता उनके लिए एक लिफ़ाफ़ा अलग से अवश्य लाता। कभी उसमें बेसन भुजिया रहती, तो कभी बेसन लड्डू। उनके मनभावन।
“मैं अभी चाय के साथ पकौड़े लाती हूँ,” लिफ़ाफ़े ने उन्हें गुदगुदा दिया। उनका सारा रोष लुप्त हो चला।
“कोई जल्दी नहीं है,” बेटे ने जग में पानी लिया और अपने कमरे की ओर बढ़ चला।
उन्होंने बेटे वाला लिफ़ाफ़ा अपनी साड़ी की ओट में ले लिया।
हँसी की, चुग़ली की, खिल्ली की, प्यार-मनुहार की आवाज़ें लिफ़ाफ़ों की, प्लेटों की, गिलासों की खड़-खड़ाहट उनके खानों से कई बार टकरायीं, परन्तु वह अपनी धुन से पकौड़े बनाती रहीं, चाय तैयार करती रहीं।
“अम्मा, तुम ने अपना लिफ़ाफ़ा नहीं खोला?” बेटा फिर उनके पास चला आया।
“अभी देखती हूँ,” वह मुस्कुरायीं।
“चाय मैं ले जाता हूँ,” बेटे ने गैस के दूसरे चूल्हे पर तैयार हो चुकी चाय की केतली में छान ली।
“अच्छा अम्मा,” बेटे ने केतली वाली ट्रे में पकौड़ों की प्लेट भी रख ली।
“क्या पकौड़े और भी हैं?” कुछ समय बाद बहू रसोई में आन धमकी।
“हैं तो . . .”
बहू ने एक बड़ी तश्तरी में बन चुके पकौड़े भरे और बोली, “चाय अभी और बनानी होगी।”
“ठीक है,” उन्होंने सिर हिला दिया।
बहू के लोप होते ही उन्होंने अपना लिफ़ाफ़ा खोला।
उसमें चार बेसन लड्डू थे और चार छोटे समोसे। भुनी दाल के।
वह हँस पड़ी। इस बार लिफ़ाफ़े का सामान पर्याप्त से कहीं अधिक था। इसमें कोई अन्य भागीदार के न रहने पर वह कई दिन तक अपना मुँह भरती रहेगी।
जब तक चाय तैयार हुई, फेटा हुआ बेसन चुक गया। उन्होंने अपने हाथ धोए, अपना लिफ़ाफ़ा उठाया और उसे रसोई के उस कोने में टिका दिया जहाँ उन का निजी सामान रखा रहता।
अब वह रसोई ही में बैठती-उठती, सोती-जागती। उनका बिछौना भी यहीं, बैठक भी यहीं।
उन माँ-बेटे के रहन-सहन में बहू की उपस्थिति कई परिवर्तन ले कर आयी थी।
कुछ परिवर्तन बहू ने घर में प्रवेश पाने से पहले किए थे और कुछ बाद में।
मकान-मालिक की पिछली चार-दीवारी की ओट में बना दो कमरों का यह उनका मकान एक खुले बरामदे में खुलता था। बरामदे के एक ओर रसोई-घर था और दूसरी और नहान-घर था। कमरे उन्हीं की अगल-बग़ल रखे गए थे। एक कमरा वह सामूहिक स्थल था जहाँ बत्तीस साल की उनकी घर-गृहस्थी की सभी चीज़ें धरी थीं। सांयोगिक व असांयोगिक, दोनों ही।
बेटे के कमरे में डबल-बेड और टीवी बहू के प्रवेश से पहले आए थे। बेटे की जेब से।
दूसरे कमरे में बहू ने उठा-पटक अपने प्रवेश के बाद की थी। उस कमरे में रही घर की एकमात्र आलमारी ख़ाली करवायी थी और बेटे के कमरे में जा टिकायी थी।
कैसा मकान है। दीवार ही दीवार है। एक आला तक नहीं!!
फिर उसने बिछे उनके तख़्त को नज़र में उतारा था, और उस का बिछौना हटा कर उस पर नए गद्दे और गद्दियाँ ला बिछायीं बैठने की जगह तो ढंग की होनी ही चाहिए . . .
वह कुछ न बोली थीं। तख़्त के नीचे टीन के जो दो ख़ाली बक्से धरे रहे, उन्हें खींची थी, अपनी निजी वस्तुएँ उन में भरी थीं और रसोई में खिसक आयी थीं।
रसोई ऐसी छोटी भी नहीं, बहू ने बेटे से कहा था, और फिर बरामदा है, खुला और ख़ाली . . .
“चाय मैं ले जाता हूँ,” बेटा फिर रसोई में आ गया, “पकौड़े बहुत अच्छे बने हैं, अम्मा।”
“अच्छा, उनकी बाँछें खिल गयीं, ये भी लेते जाओ।”
“नहीं, अम्मा। अब और वहाँ नहीं चलेंगे। तुम भी तो कुछ खाओ न।”
“ये ज़्यादा हैं। मुझ से ख़त्म न होंगे,” वह हँसी।
“नहीं, नहीं, तुम खाओ . . .” बेटे ने एक बड़े गिलास में उनके लिए चाय उड़ेली और बाक़ी चाय केतली में लेकर पलट लिया।
पकौड़े वाक़ई बहुत अच्छे बने थे।
वह दूसरा पकौड़ा उठा न पायीं।
प्लेट लेकर बेटे के कमरे में चली आयीं।
जैसे ही उन्होंने कमरे में प्रवेश किया, कमरे के तूफ़ानी हुल्लड़ व समारोही आमोद-प्रमोद पर अकस्मात विराम चिह्न लग गया।
सारा शोरगुल थम गया। बच्चे समेत सभी सकपका गए।
पकौड़ों की दोनों भरी प्लेटों को छोड़ कर मेज़ पर रखी सभी प्लेटें ख़ाली थीं।
पास वाले बिस्तर पर रखे तमाम मुड़े-तुड़े लिफाफे तथा खुले डिब्बे भी ख़ाली थे।
“पकौड़ों में मिर्च बहुत तीखी रहीं,” बहू ने अपनी एक बड़ी बहन के चिकोटी काटी, “इसीलिए खाए ही न गए . . .”
“ठीक है,” वह धीरे से बुदबुदायी और हाथ वाली पकौड़ों की प्लेट रसोई में लौटा लायीं।
पकौड़े उन्होंने भी नहीं खाए। दो समोसे और एक लड्डू ही चाय के साथ लिए।
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