चचेरी

दीपक शर्मा (अंक: 256, जुलाई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

“प्रभात कुमार?” वाचनालय के बाहर वाले गलियारे में अपने मोबाइल से उलझ रहे प्रभात कुमार को चीह्नने में मुझे अधिक समय नहीं लगा। 

“जी . . .जी हाँ,” वह अचकचा गया। 

“मुझे उषा ने आपके पास भेजा है . . .।” 

“वह कहाँ है?” उसे हड़बड़ी लग गयी, “उसका मोबाइल भी मिल नहीं रहा . . .।” 

“कल शाम दोनों बारिश में ऐसे भीगे कि उषा को बुख़ार चढ़ आया और उस का मोबाइल ठप्प हो गया,” मैं मुस्कुरायी। 

कल शाम उषा ने प्रभात कुमार ही के साथ बिताई थी। 

चंडीगढ़ में पाँच दिन के लिए आयोजित की गयी इस साहित्यिक गोष्ठी में हम चचेरी बहनें लखनऊ से आयी थीं और प्रभात कुमार कोलकाता से। किन्तु दूसरे दिन के पहले सत्र में ‘आधुनिक साहित्य-बोध’ के अन्तर्गत हुई चर्चा में उषा की भागीदारी ने प्रभात कुमार पर ऐसी ठगोरी लगायी थी कि वह अगले ही सत्र में उसके अरे-परे आकर बैठने लगा था। परिणाम, उषा का सुनना-सुनाना फिर गोष्ठी से हटकर प्रभात कुमार पर जा केन्द्रित हुआ था। तीसरा दिन दोनों ने विश्वविद्यालय के इस वाचनालय में बिताया था और चौथे दिन, यानी कल, दोपहर ही में वे सैर-सपाटे के लिए बाहर निकल लिए थे। 

“कितना बुख़ार है?” प्रभात कुमार का स्वर तक तपने लगा। 

“एक सौ चार। इसीलिए डॉक्टर ने दिसम्बर की इस हाड़-कँपाने वाली सर्दी में उसे बाहर निकलने से सख़्त मना किया है . . .।” 

“मगर मेरा उससे मिलना बहुत ज़रूरी था। कोलकाता का मेरा टिकट कल सुबह के लिए बुक्ड है और वह आज ही बाहर नहीं निकल पा रही,” प्रभात कुमार रोने-रोने को हो आया। 

“जभी तो उसने यह पत्र आपके नाम भेजा है,” उषा द्वारा तैयार किया गया लिफ़ाफ़ा मैंने उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। 

“लाइए,” उसने लिफ़ाफ़ा खोला और अन्दर रखे पत्र पर झपट पड़ा। 

“तुम फ़िल्म ज़रूर देखना,” उचक कर उषा की क़लम-घिसटती लिखाई में प्रभात कुमार के साथ मैंने भी पढ़ा, “और दूसरी टिकट पर रेवा को साथ ले जाना। वह मेरे ताऊ की बेटी है। और फ़िल्मों की शौकीन। आज हमारा मिलना ज़रूर असम्भव रहा है मगर यह अन्त नहीं है। स्पेन की उस कहावत को याद रखते हुए जो कल तुम मुझे सुना रहे थे: ‘लव विदाउट एंड हैज़ नो एंड’ (मनसूबा बाँधे बिना किया गया प्यार कभी विदा नहीं लेता)—तुम्हारी उषा।” 

“आइए,” प्रभात कुमार वाचनालय के मुख्य द्वार की ओर लपक पड़ा। 

“वुडी एलन की ‘मिडनाइट इन पेरिस’ देखी थी, तभी उसकी यह ‘ब्लु जैसमीन’ मेरे लिए देखना ज़रूरी हो गया था,” प्रभात कुमार की हड़बड़ीपूर्ण तेज़ी के साथ क़दम मिलाते हुए मैंने वातावरण के भारीपन को छितरा देना चाहा। 

प्रभात कुमार ने कोई उत्तर नहीं दिया। 

“आपको वुडी एलन पसन्द नहीं क्या?” 

“स्कूटर,” प्रभात कुमार चिल्लाया और स्कूटर पर चढ़ लिया। 

और जब उसने ‘ब्लु जैसमीन’ बिना बोले गुज़ार दी तो मैंने अपने भीतर एक उत्सुक जिज्ञासा को जागते हुए पाया। 

“क्या कहीं घूमा जाए?” सिनेमा-हॉल से बाहर निकलते ही मैंने सुझाया। 

“कहाँ घूमेंगे?” प्रभात कुमार की आँखें और वीरान हो उठीं। 

“जहाँ उषा के साथ घूमना था,” मैंने उसे डोर पर लाना चाहा, “जहाँ उसके साथ डोलना-फिरना था . . .।” 

“उसने आपको बताया था?” 

“बिलकुल,” मैंने झूठ कह दिया, “मत भूलिए, हम दोनों चचेरी बहनें हैं और अपने अपने जयपत्र एक-दूसरे के संग साझे तो करती ही हैं . . .।” 

मगर सच पूछें तो ऐसा क़तई नहीं था। उषा और मैं बहनेली कभी नहीं रही थीं। कारण पारिवारिक मनमुटाव था। जो सन् चौरासी के दिसम्बर में शुरू हुआ था। जिस माह दादा ने चाचा से उनकी भोपाल वाली नौकरी छुड़वाकर उन्हें लखनऊ में एक कारख़ाना ख़रीद दिया था, परिवार की साझी पूँजी से। 

“तो क्या पिंजौर चलेंगी आप?” प्रभात कुमार ने पहली बार मुझे अपनी पूरी नज़र में उतारा। 

“क्यों नहीं?” अपने स्वर में चोचलहाई भरकर मैंने कहा, “नए लोग और नयी जगहें मुझे बेहद आकर्षित करती हैं। जभी तो मैं उषा के साथ चंडीगढ़ चली आयी वरना साहित्य और साहित्य-बोध में मेरी लेश मात्र भी रुचि नहीं . . .।” 

“आप ने अभी जिस जयपत्र शब्द का प्रयोग किया उसका प्रसंग मैं समझ नहीं पाया,” पिंजौर की ओर जाने वाली बस में सवार होते ही प्रभात कुमार ने उत्सुकता से मेरी ओर देखा। 

“प्रसंग उषा की विजय का है, बल्कि महाविजय का है . . .।” 

“महाविजय? कैसी महाविजय?” 

“इतने कम समय में आप जैसे यशस्वी व युवा कवि का मन जीत लेना उसकी महाविजय नहीं तो और क्या है?” 

“मन तो उसने मेरा जीता ही है। जो दृढ़संकल्प और आत्मविश्वास उसने मेरे भीतर जगाया है, उसने तो मेरा जीवन ही पलट दिया है,” वह लाल-सुर्ख़ हो चला। 

“वह स्वयं भी तो दृढ़-संकल्प व आत्मविश्वास की प्रतिमूर्ति है,” अपनी डोर मज़बूत रखने के लिए मैंने तिरछी हवा का सहारा लिया, “बचपन से लेकर अब तक जो पढ़ाई में लगी है, सो लगी है। स्कूल-कॉलेज के समय उसे अगले साल के लिए छात्रवृत्ति पानी होती और अब अपनी अध्यापिकी में उसे ऊँचा स्केल पाने के लिए पीएच.डी. करनी है . . . भाई की इंजीनियरिंग और बहन की आई.आई.एम. का ख़र्चा तब तक उठाती रहेगी जब तक उन की पढ़ाई पूरी न हो लेगी और वह आर्थिक निर्भरता हासिल न कर लेंगे . . .।” 

“मगर उसके पिता का तो लखनऊ में अपना कारख़ाना है . . .।” 

“है तो! मगर वह शुरू ही से डाँवाँडोल स्थिति में रहा है। चाचा उसे लीक पर ला ही नहीं पाए। असल में अपनी इंजीनियरिंग के बाद भोपाल में वह अच्छी नौकरी पा गए थे और वह नौकरी उन्हें कभी छोड़नी नहीं चाहिए थी . . .।” 

“हाँ, उषा बता रही थी सन् चौरासी की जिस दो दिसम्बर के दिन उसके माता-पिता लखनऊ में विवाह-सूत्र में बँध रहे थे, उसी दिन यूनियन कारबाइड की उस इनसैक्टिसाइड फ़ैक्ट्री में हुए गैस-स्राव ने पूरे भोपाल को अपनी चपेट में लिया था और वैसी परिस्थितियों में उनका भोपाल जाना स्थगित होता चला गया था,” प्रभात कुमार अभी भी दुर्ग की उसी चौकी पर डटा खड़ा था जिसे उषा चीन्ह गयी थी। उसकी पहरेदारी का कार्यभार सौंप गयी थी। 

“वह गैस-स्राव तो लखनऊ में बने रहने का बहाना भर था,” मैंने एक लम्बा डग भरा, “समूचे का समूचा भोपाल थोड़े न उस गैस-स्राव से ग्रस्त हुआ था। इतने तो ताल हैं भोपाल में। उनके पानियों ने बहुत बड़ी मात्रा में वह ज़हरीली गैस सोख ली थी और कुछ ही दिनों में हवा साफ़ हो गयी थी। असली कारण तो हमारे दादा का पुत्र-प्रेम था जिसने उन्हें यहीं रोक लिया था और चाचा को पेंट्स का वह कारख़ाना ख़रीद दिया था जो उस समय अच्छा लाभ दे रहा था। मेरे पिता तो अक्सर कहा करते हैं, “बाबूजी वह कारख़ाना यदि मुझे ले दिए होते तो मेरे पेंट्स का मार्का बाज़ार के कई ऊँचे नामों को भांज रहा होता . . .।” 

“आपके पिता क्या करते हैं?” 

“तिमंजिला एक जनरल स्टोर चलाते हैं। जिसकी ऊपर वाली दो मंज़िलें उन्होंने अपने हाथों खड़ी की हैं। हमारे दादा के देहान्त के बाद। अपनी व्यापारिक सूझ-बूझ और दूरदर्शिता के बूते पर। जहाँ पहले केवल घी-तेल, दाल-अनाज और साबुन-फ़िनाएल बिका करते थे अब वहाँ तरह-तरह के डिब्बे-बंद पनीर, धान्य और दलिए से लेकर ताज़े फल-सब्जी भी सजे हैं देशीय-विदेशीय, सब। दूसरी मंज़िल पर बच्चों का माल रखा गया है। उनकी पोशाक, उनकी गेम्ज़, उनके खिलौने, उनकी कौटस, बाइक्स, बाबा-गाड़ियाँ सब उसी एक छत के नीचे उपलब्ध हैं . . .।” 

“और तीसरी मंज़िल पर?” प्रभात कुमार का स्वर कुतुहली रहा। 

“वहाँ महिलाओं का हाट लगाया गया है,” मैंने अपना क़दम आसमान पर जा टिकाया, “उनकी सज्जा-सामग्री से लेकर हैंडबैग्ज़ और बेल्ट्स जैसी सभी एक्सेसरीज, उपसाधन, वहाँ उपलब्ध हैं . . .।” 

“आपके पिता सचमुच ही एक कर्मठ व उद्यमी व्यक्ति हैं,” उसने एक सीटी छोड़ी। थोड़ी मौजी, थोड़ी विनोदी। 

“आप चाहें तो उनसे मिल भी सकते हैं,” मैं उसकी मौज पर सवार हो ली, “हमारी वाली गाड़ी कोलकाता तक तो जाती ही है। आप कल सुबह जाने की बजाय हमारे साथ परसों चलिएगा और लखनऊ स्टेशन पर हमें लिवाने आए मेरे पिता से मिल . . .” 

“मगर परसों मेरा कोलकाता में उपस्थित रहना बहुत ज़रूरी है . . .।” 

“तलाक़ की तारीख़ लगी है?” मैं शरारत पर उतर आई। 

“नहीं, नहीं, मेरी शादी ही अभी कहाँ हुई है?” वह बौखला उठा। 

“तो क्या शादी की तारीख़ है?” अपनी चुहलबाज़ी मैंने जारी रखी। 

“नहीं, नहीं। शादी के लिए मेरे मन में अभी न तो कोई इच्छा-विचार है और न ही कोई संकल्प-विकल्प। मेरी परिस्थितियाँ तो उषा से भी अधिक दुःसाध्य हैं। उसके पास पिता हैं, पारिवारिक पूँजी है, स्थायी नौकरी है जबकि मेरे पास ज़िम्मेदारियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। न पिता, न मकान, न नौकरी . . .।” 

“मतलब?” मैं आसमान से नीचे आ गिरी। उषा की जमा-बाक़ी अभी भी उससे ऊपर थी। 

“मतलब यह कि मुझे कहीं से भी कोई नियमित अथवा निश्चित राशि नहीं मिलती। यों समझिए, भाड़े का मज़दूर हूँ। मालिक कहता है, हाज़िर हो, रोकड़ लो और लोप हो जाओ और रोकड़ मुझे चाहिए ही चाहिए। अपनी विधवा माँ के लिए, स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई कर रही अपनी तीन बहनों के लिए। इसीलिए एक साथ कई काम पकड़े हूँ। दसवीं जमात वाले बच्चों को एक कोचिंग सेन्टर में पढ़ाने का, इन्टर कॉलेज के एक प्रिंसिपल से ‘डिक्टेशन’ लेकर उनके कम्प्यूटर पर उनके शासकीय पत्र तैयार करने का, उसी कॉलेज के पुस्तकालय में नयी-पुरानी किताबों पर नए लेबल चिपकाने का, एक प्रिंटिंग प्रेस के प्रूफ़ पढ़ने का . . .।” 

“आपने यह सब उषा को बताया?” मेरा सिर घूमने लगा। ऐसा भयंकर नामे-खाता! 

“हाँ, बताया, सब बताया।” 

“और उसने क्या कहा?” 

“उसने कहा यह सब पारिस्थितिक है। परिवर्तनीय है, चिरस्थायी नहीं। कॉलेज में पढ़ रही मेरी बहन अधिक समय तक मेरी आश्रित नहीं रहेगी। निकट भविष्य ही में मेरी सहायक बनकर मुझे अपनी बाँह की छाँह देगी और मैं अपनी मूलभूत परियोजनाओं को आगे बढ़ा सकूंगा-श्रेष्ठ शिक्षा की, उत्तम नौकरी की, प्रफुल्ल जीवन की . . .।” 

“छाँह देने के लिए उषा ने अपनी बाँह नहीं बढ़ाई?” मैंने उलटा धड़ बाँधा, “आप होंगे कामयाब—कहा और कतरा कर आगे निकल ली। राजा के लिए नए कपड़े बुने जा रहे हैं मगर करघा ख़ाली है। दुर्ग के बाहर पहरा बिठलाया गया है और दुर्ग छूछा है . . .।” 

“आप ऐसा समझती हैं?” प्रभात कुमार ने चतुराई तौली। 

“बिलकुल ऐसा ही समझती हूँ,” जिस घात की ताक में मैं रही थी वह घात मुझे मिल गयी थी। 

“फिर आप कहिए, कैसे होऊँगा मैं ‘कामयाब’? कब होऊँगा मैं ‘कामयाब’?” 

“आप पहले मुझे एक ‘मिस्ड कॉल’ दीजिए,” अपना फोन मैंने हवा में जा लहराया। 

“मेरे नम्बर से क्या होगा?” अस्थिर हो रहे अपने स्वर को सँभालने में उसे प्रयास करना पड़ा। 

“आपका नम्बर इसमें ‘सेव’ करूँगी। फिर लखनऊ पहुँचते ही अपने पिता से आपकी बात करवाऊँगी। कोलकाता से उनका माल कई जगह से आता है। वहाँ उनके तमाम परिचित हैं। उनमें से शायद कोई आपको कच्ची सड़क पर जा पहुँचाए। मेरे पिता बाज़ू देने पर आते हैं तो फिर पीछे नहीं हटते . . .।” 

जानती थी मेरे पिता उसके हिताहित को बातों में उड़ा देंगे। किन्तु बातें गढ़ने में हर्ज ही क्या था? उषा ने भी तो प्रभात कुमार को बातों ही में बहलाया-फुसलाया था। 

“अपना नम्बर बताइए,” उसने अपनी जेब से अपना मोबाइल हाथ में ले लिया। 

“पिंजौर आ गया।” बस के कंडक्टर ने जैसे ही घोषणा की हम दोनों एक साथ खड़े हो लिए। 

बस से नीचे उतरने में पहल प्रभात कुमार ने की। 

“आइए,” और उतरते ही अपना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया। 

“बस से मुझे नीचे उतारने के लिए।” 

“धन्यवाद,” मैंने अपना हाथ उसके हाथ में दे दिया और बस को पीछे, बहुत पीछे छोड़कर हम फूलों की ओर निकल पड़े। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में